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आदिवासी सिनेमा का ऐतिहासिक क्षण

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फिल्म ‘बांधा खेत’ झारखंड के आदिवासी समाज के जीवन संघर्ष की कलात्मक अभिव्यक्ति करती है. इस फिल्म की कहानी यहां की जमीन की उपज है.

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ओडिशा में आयोजित कोविड-19 अंतरराष्ट्रीय ट्राइबल फिल्म फेस्टिवल में झारखंड के नागपुरी एवं मुंडारी में बनी शॉर्ट फिल्म ‘बांधा खेत’ को ‘बेस्ट फिल्म’, ‘बेस्ट डायरेक्टर’ एवं ‘बेस्ट एक्टर’ का पुरस्कार मिला. इस फिल्म फेस्टिवल में तीस देशों से लगभग तेरह सौ फिल्मों की भागीदारी की थी. इनके बीच से ‘बांधा खेत’ को पुरस्कृत किया जाना झारखंडी-आदिवासी सिनेमा के लिए ऐतिहासिक उपलब्धि है.

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यह उपलब्धि इसलिए महत्वपूर्ण है कि इसने झारखंड जैसे उपेक्षित प्रदेश की सांस्कृति और कला के विरासत को नये माध्यम से अभिव्यक्ति दी है. ऐसा माध्यम, जो दुनिया में आज सबसे ज्यादा लोकप्रिय है, जिसके बारे में झारखंड का समाज लगभग उदासीन है. जब भी झारखंड की संस्कृति की बात होती है, तो वह स्थानीय आदिवासी-सदान समाज की लोक संस्कृति तक सिमट जाती है. इसकी अभिव्यक्ति मूलतः धार्मिक-सामाजिक अनुष्ठानों के समय देखने को मिलती है. इस समृद्ध संस्कृति के नये माध्यमों में रचनात्मक एवं प्रयोगशील अभिव्यक्ति बहुत कम देखने को मिलती है. इसे साहित्य, कला एवं फिल्मों के माध्यम से अभिव्यक्त करने की पहल बहुत कम है.

झारखंडी सिनेमा की बात करें, तो डॉक्यूमेंट्री फिल्म के क्षेत्र में मेघनाथ, बीजू टोप्पो एवं श्रीप्रकाश आदि ने राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनायी है, लेकिन फिक्शन फिल्मों के मामले में कोई मिसाल नहीं है. हालांकि, संताली भाषा के सिनेमा में जरूर कुछ पहल दिखायी देती है. बांग्ला, तेलुगु, तमिल, मलयालम, मराठी, असमिया आदि भाषाओं की फिल्मों का भारतीय फिल्म कला के इतिहास में अहम योगदान है. भले ही व्यावसायिक धरातल पर बॉलीवुड की फिल्मों की चमक-धमक हो, लेकिन क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्में कलात्मकता और मौलिकता में उससे बेहतर उदाहरण प्रस्तुत करती हैं.

राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर पहचान बनाने के लिए जरूरी है कि झारखंडी समाज की विशिष्टता को रेखांकित किया जाए, उसके जीवन संघर्ष की कहानी कही जाए. झारखंड के आदिवासी-सदान समाज की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विशिष्टता की विरासत बहुत बड़ी है. औपनिवेशिक पूर्व, औपनिवेशिक कालीन एवं स्वतंत्रता के पश्चात झारखंडी-आदिवासी समाज ने जिन अनुभवों का संकलन किया है, वह दुर्लभ है. यहां की लोक कलाओं, मिथकों और इतिहास में उसकी झलकी दिखती है. यह कला की दुनिया को न केवल नया विषय-वस्तु प्रदान करता है, बल्कि एक ऐसी शैली भी प्रदान करता है, जो रोमांटिक एवं यथार्थवादी कला को नया स्वरूप दे सकता है.

फिल्म ‘बांधा खेत’ झारखंड के आदिवासी समाज के जीवन संघर्ष की कलात्मक अभिव्यक्ति है. इस फिल्म की कहानी यहां की जमीन की उपज है. यहां की आजीविका का आधार खेती है. लोगों को आजीविका के लिए दूसरे विकल्प की जरूरत पड़ती है. यही वजह है कि बड़े पैमाने पर पलायान होता है. जब लोग कोई बड़ा सामाजिक, पारिवारिक या अन्य कार्यक्रम करते हैं, तो उन्हें दूसरों से सहयोग या ऋण लेना पड़ता है. इसका दूसरा तरीका है खेतों को ‘बांधा देना’, यानी खेत को बंधक या गिरवी रख देना.

एक समय सीमा के लिए खेतों को कुछ पैसों के बदले में दूसरे के यहां ‘बंधक’ दे दिया जाता है. जब बंधक का पैसा वापस दिया जाता है, तो बंधक खेत लौटा दिया जाता है. इस फिल्म में इसी त्रासदी को दिखाया गया है. एक आदिवासी युवा, जिसके मां-पिता गुजर गये हैं, उसके खेत बंधक हैं. वह बंधक छुड़ाने की कोशिश करता है. वह अपने खेत पर धान उपजाना चाहता है. स्वाभाविक है कि यदि वह खेती करेगा, तो उसके घर में अनाज आयेगा. बंधक लिये गये व्यक्ति को पैसा देने के लिए उसे दो बैलों को भी बेचना पड़ता है.

बैलों को बेचने का दृश्य मार्मिक है. पैसा लौटाने के बाद जब वह आदिवासी खुशी-खुशी अपने खेत देखने जाता है, तो वह देखता है कि उसके खेत पर ट्रैक्टर चल रहा है. इससे उसकी उम्मीद टूट जाती है. इस कहानी में जो व्यक्ति बंधक लेता है, वह वर्चस्वकारी है. वह बंधक में दिये गये पैसे को वापस लेकर भी खेत वापस नहीं करता है. आदिवासी व्यक्ति को वह डरा कर भगा देता है. यह कहानी जमीन लूट के प्रतीकों को उभारती है.

इस फिल्म का बेहतरीन निर्देशन पुरुषोत्तम साहू ने किया है और आदिवासी जीवन संघर्ष को पूरी भाव-भंगिमा से अभिनेता अनुराग लगुन ने प्रस्तुत किया है. इस फिल्म का निर्माण गांव में स्थानीय युवाओं और अप्रशिक्षित अभिनेताओं ने किया है. इसके निर्माण में सामूहिकता की भावना दिखती है. लोकगीतों और अंचल का दृश्य फिल्म को प्रभावी बनाता है. सभी ग्रामीण अभिनेताओं ने जिस परिपक्वता से अभिनय किया है, वह अद्भुत है.

इस फिल्म के बारे में टिप्पणी करते हुए मशहूर डॉक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता और संस्कृतिकर्मी मेघनाथ कहते हैं कि फिल्म की टीम ने बिना मुंबईया तड़का के बहुत ही सादगी और कलात्मकता के साथ आदिवासी जीवन संघर्ष को चित्रित किया है. राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार प्राप्त डॉक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता बीजू टोप्पो बधाई देते हुए कहते हैं कि यदि इसी रास्ते पर झारखंडी फिल्म मौलिक ढंग से आगे बढ़ेगी तो वह नयी पहचान बना पायेगी. दूसरों की नकल से अपनी पहचान नहीं बन सकती है. फिल्म ‘बांधा खेत’ ने झारखंडी जमीन की कहानी कह कर मिसाल प्रस्तुत की है.

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