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बेटियों का बराबरी का हक

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अब यह वक्त आ गया है कि हम अपनी सामाजिक व्यवस्था में आवश्यक सुधार करें. एक बड़ी चुनौती बेटियों की शिक्षा और आर्थिक स्वायत्तता की है.

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भले देश कितनी ही प्रगति कर गया हो, लेकिन बेटे और बेटी की बराबरी के मामले पर अब भी बहुत लोगों को संशय है. अक्सर पिता की अर्जित संपत्ति पुरुष उत्तराधिकारियों को हस्तांतरित कर दी जाती है और बेटियों को इससे वंचित कर दिया जाता है. भारतीय समाज में बेटियों का संपत्ति में हिस्सेदारी हमेशा से विवाद का विषय रहा है और इस पर समाज में भ्रम की स्थिति है.

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कहीं धारणा है कि बेटी को बेटे से कम अधिकार है, तो कहीं धारणा यह है कि शादी के बाद बेटी को कोई अधिकार नहीं है. इसकी मुख्य वजह कानून की जानकारी का अभाव है. संपत्ति में बेटियों के अधिकार के संबंध में कानून स्पष्ट है. हाल में देश की सर्वोच्च अदालत ने पिता की संपत्ति के मामले में महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है और स्थिति को एकदम स्पष्ट कर दिया है.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि किसी व्यक्ति की बिना वसीयत के मौत हो जाने पर भी उसकी संपत्ति पर उसकी बेटी का बराबर अधिकार बनता है. अदालत के सामने सवाल था कि अगर मृत पिता की संपत्ति का कोई और कानूनी उत्तराधिकारी न हो और उसने अपनी वसीयत न बनवायी हो, तो संपत्ति पर बेटी का अधिकार होगा या नहीं? अदालत ने अपने फैसले में कहा कि अगर ऐसे व्यक्ति की संपत्ति खुद अर्जित की हुई है या पारिवारिक संपत्ति में विभाजन के बाद प्राप्त हुई है, तो वह उत्तराधिकार के नियमों के तहत सौंपी जायेगी. ऐसे व्यक्ति की बेटी का उस संपत्ति पर अधिकार दूसरे उत्तराधिकारियों से पहले होगा.

देश में जहां महिलाओं को विरासत के लिए बड़े पैमाने पर सामाजिक और कानूनी बाधाओं का सामना करना पड़ता है, यह एक अहम फैसला है. यह मुकदमा इसलिए भी महत्वपूर्ण था कि संबंधित व्यक्ति मरप्पा गौंदर की मृत्यु 1949 में हो गयी थी. उस वक्त तक हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम नहीं बना था.

यह अधिनियम 1956 में बना. इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया कि फैसला ऐसे मामलों पर भी लागू होगा, जिनमें संबंधित व्यक्ति की मृत्यु अधिनियम के बनने से पहले हो गयी हो. उक्त अधिनियम में बेटे और बेटी को बराबर का अधिकार है. किसी भी संपत्ति में जितना अधिकार बेटे को मिलता है, उतना ही बेटी को मिलता है. बेटी की शादी हो जाने के आधार पर उन्हें पैतृक संपत्ति के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है.

भारतीय संविधान भी महिलाओं को समान अधिकार की गारंटी देता है. संविधान में राज्यों को महिलाओं और बच्चों के हित में विशेष प्रावधान बनाने का अधिकार भी दिया गया है, ताकि महिलाओं को उनका हक मिले, लेकिन इन सबके बावजूद महिलाओं की स्थिति अब भी मजबूत नहीं है. दरअसल, हमारी सामाजिक संरचना ऐसी है कि यह बात बच्चों के मन में बचपन से ही स्थापित कर दी जाती है कि लड़का लड़की से बेहतर है.

परिवार और समाज का मुखिया पुरुष है और महिलाओं को उसकी व्यवस्था को पालन करना है. यह सही है कि परिस्थितियों में बड़ा बदलाव आया है, लेकिन अब भी ऐसे परिवार कम हैं, जिनमें बेटे और बेटी के बीच भेदभाव न होता हो. बाद में ये बातें सार्वजनिक जीवन में प्रकट होने लगती हैं.

महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए काम करनेवाली संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूएन वीमेन द्वारा महिलाओं की प्रगति 2019-2020 : बदलती दुनिया में परिवार विषय से तैयार रिपोर्ट में विश्वभर से आंकड़े एकत्र कर परिवारों की मौजूद परंपराओं, संस्कृति और मनोवृत्तियों का अध्ययन किया गया है. इसमें कहा गया है कि दुनियाभर में महिलाओं के वजूद और अधिकारों को नकारने का चलन है तथा यह परिवार की संस्कृति और मूल्यों को बचाने के नाम पर किया जाता है.

हर पांच में से एक देश में लड़कियों को लड़कों के समान संपत्ति और विरासत के अधिकार नहीं हैं. लगभग 19 देशों में महिलाओं को पति का आदेश मानने की कानूनी बाध्यता है. विकासशील देशों में लगभग एक तिहाई विवाहित महिलाओं को अपने स्वास्थ्य के बारे में खुद निर्णय लेने का अधिकार नहीं है. हालांकि एक सकारात्मक बात यह सामने आयी कि दुनियाभर में विवाह की औसत उम्र कुछ बढ़ी है और बच्चों की जन्म दर कुछ कम हुई है.

कामकाजी दुनिया में महिलाओं की मौजूदगी भी बढ़ी है और उनकी आर्थिक स्वायत्तता में थोड़ी बढ़ोतरी हुई है, लेकिन पुरुषों के मुकाबले महिलाएं घरेलू कामकाज तीन गुना ज्यादा करती हैं और इसका उन्हें कोई श्रेय नहीं मिलता है.

भारत में शिक्षा, कला-संस्कृति और तकनीक के क्षेत्र में महिलाओं की सफलता के बावजूद आर्थिक क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी अन्य देशों के मुकाबले कमतर है. वजह स्पष्ट है कि उन्हें समान अवसर नहीं मिलते हैं. भारत सरकार के आंकड़ों के मुताबिक देश के कुल श्रम बल में महिलाओं की हिस्सेदारी केवल 25.5 फीसदी है. कुल कामकाजी महिलाओं में से लगभग 63 फीसदी खेती-बाड़ी के काम में लगी हैं.

करियर बनाने का समय आने तक अधिकतर लड़कियों की शादी हो जाती है. विश्व बैंक के आकलन के अनुसार भारत में महिलाओं की नौकरियां छोड़ने की दर बहुत अधिक है तथा एक बार नौकरी छोड़ने के बाद ज्यादातर महिलाएं दोबारा नौकरी पर नहीं लौटती हैं. कुछ अरसा पहले यूनेस्को की ग्लोबल एजुकेशन मॉनिटरिंग रिपोर्ट में बताया गया था कि दुनियाभर में स्कूली किताबों में महिलाओं को कम स्थान दिया जाता है.

साथ ही उन्हें कमतर पेशों में दिखाया जाता है, जैसे पुरुष डॉक्टर की भूमिका में दिखाये जाते हैं, तो महिलाएं हमेशा नर्स के रूप में नजर आती हैं. महिलाओं को हमेशा खाने, फैशन या मनोरंजन से जुड़े विषयों में ही दिखाया जाता है. कुछ अरसा पहले राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद के जेंडर स्टडीज विभाग की एक रिपोर्ट ने यह निष्कर्ष निकाला था कि पाठ्य पुस्तकों में महिलाओं को कमतर भूमिका में दिखाया जाता है, जबकि पुरुषों को नेतृत्व और फैसले लेने की भूमिका में रखा जाता है.

आजादी मिले 75 साल हो गये और अब वक्त आ गया है कि हम अपनी सामाजिक व्यवस्था को सुधारें. मेरा मानना है कि पहल की जिम्मेदारी माता-पिता की है. वे लड़के और लड़की में भेदभाव न करें. एक बड़ी चुनौती बेटियों की शिक्षा और आर्थिक स्वायत्तता की है. समझ बढ़ने के बावजूद ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो यह मानते हैं कि बेटी को ज्यादा पढ़ा-लिखा देने से शादी में दिक्कत हो सकती है. ऐसे लोगों की भी बड़ी संख्या है, जो करियर के बजाय शादी को ध्यान में रख कर बेटियों को शिक्षा दिलवाते हैं. इस मानसिकता में बदलाव लाने की जरूरत है.

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