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राजनीति का अपराधीकरण रुके

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जब अपराधी खुद राजनीति में आ जाते हैं, तो मुश्किलें और बढ़ जाती हैं. सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बावजूद बाहुबलियों को लोकतांत्रिक प्रक्रिया से बाहर नहीं रखा जा सका है.

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संसद और विधानसभाएं लोकतांत्रिक व्यवस्था का आधार स्तंभ हैं. संविधान निर्माताओं की परिकल्पना थी कि इन संस्थाओं से कानून बनेंगे और उनके द्वारा जनता की अपेक्षाएं पूरी की जायेंगी. सदन सार्थक चर्चा और जन समस्याओं के निराकरण का मंच भी है. संविधान निर्माताओं ने उम्मीद की थी कि जनप्रतिनिधि शुचिता और आचरण में आदर्श नागरिक होंगे.

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वे सदन की गरिमा बनाये रखेंगे और देश व समाज हित के मुद्दों को उठायेंगे. लेकिन ऐसा देखने में नहीं आ रहा है. सदन में अमर्यादित आचरण और शब्दों का इस्तेमाल बढ़ता जा रहा है. विधानसभा में मारपीट तक की घटनाएं होने लगी हैं. भारत में प्रशासनिक कामकाज में भारी राजनीतिक हस्तक्षेप होता है. जब भी किसी पहुंचवाले शख्स को पुलिस पकड़ती है, तो उसे छुड़वाने के लिए रसूखदार नेताओं के फोन आ जाते हैं. जब अपराधी खुद राजनीति में आ जाते हैं, तो मुश्किलें और बढ़ जाती हैं. सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बावजूद बाहुबलियों को लोकतांत्रिक प्रक्रिया से बाहर नहीं रखा जा सका है.

हाल में देश की सर्वोच्च अदालत में पेश एक रिपोर्ट में कहा गया कि संसद और विधानसभाओं में दागी सदस्यों की संख्या बढ़ती जा रही है. कोर्ट द्वारा नियुक्त न्यायमित्र (एमिकस क्यूरी) वरिष्ठ अधिवक्ता विजय हंसारिया ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि सांसदों, विधायकों और विधान परिषद सदस्यों के खिलाफ कुल 4,984 मामले लंबित हैं, जिनमें 1,899 मामले पांच वर्ष से अधिक पुराने हैं. दिसंबर, 2018 में लंबित मामलों की कुल संख्या 4110 थी, जो अक्तूबर, 2020 में बढ़कर 4859 हो गयी.

दिसंबर, 2018 के बाद 2775 मामलों के निष्पादन के बावजूद सांसदों एवं विधायकों के खिलाफ मामले बढ़ गये हैं. रिपोर्ट के मुताबिक, कुछ मामले तीन दशक से अधिक समय से लंबित हैं. मौजूदा विधायकों के खिलाफ 2,324 मामले हैं और 1,675 मामले पूर्व विधायकों के खिलाफ हैं. यहां तक कि 1,991 मामलों में तो आरोप भी तय नहीं किये जा सके हैं.

उत्तर प्रदेश में एक दिसंबर, 2021 तक 1,339 मामले लंबित थे, जबकि दिसंबर, 2018 में यहां से 992 मामले लंबित थे और अक्तूबर, 2020 में इनकी संख्या 1,374 थी. अक्तूबर, 2020 और एक दिसंबर, 2021 के बीच कुछ मामलों का निपटारा हुआ है. चार दिसंबर, 2018 से यूपी के 435 मामलों का निपटारा किया गया, जिसमें सत्र न्यायालय द्वारा 364 और मजिस्ट्रेटों द्वारा 71 मामलों का निपटारा किया गया है. बिहार में दिसंबर, 2018 में 304 मामले लंबित थे, जो अक्तूबर, 2020 में 557 और फिर दिसंबर, 2021 में 571 हो गये. कुल 571 में से 341 मामले मजिस्ट्रेट अदालतों में और 68 मामले सत्र न्यायाधीशों के समक्ष लंबित हैं.

सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में ऐसे मामलों की तेज सुनवाई के लिए विशेष अदालतों के गठन का निर्देश दिया था. केंद्र सरकार से जांच में देरी के कारणों की जांच के लिए एक निगरानी समिति बनाने को भी कहा गया था. रिपोर्ट में कहा गया है कि आपराधिक पृष्ठभूमि के अनेक लोग सदनों में पहुंच रहे हैं. यह बेहद जरूरी है कि इस संबंध में तत्काल कड़े कदम उठाये जाएं.

इनमें लंबित मामलों का त्वरित निस्तारण करना सबसे महत्वपूर्ण है. न्यायमित्र विजय हंसारिया ने कहा कि उच्च न्यायालयों द्वारा दाखिल स्थिति रिपोर्ट से भी स्पष्ट होता है कि कुछ राज्यों में विशेष अदालतें गठित हुई हैं, जबकि अन्य में संबद्ध क्षेत्राधिकार की अदालतें समय-समय पर जारी निर्देशों के तहत सुनवाई कर रही हैं. विशेष क्षेत्राधिकार वाली ये अदालतें सांसदों व विधायकों के खिलाफ मामलों की सुनवाई के साथ अन्य दायित्वों का भी निर्वहन कर रही हैं.

कई राज्यों में ये अदालतें अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति अधिनियम, पोक्सो अधिनियम आदि जैसे विभिन्न विधानों के तहत मामलों की सुनवाई भी कर रही हैं. रिपोर्ट में कहा गया है कि जांच में देरी के कारणों का मूल्यांकन करने के लिए एक निगरानी समिति के गठन के संबंध में पिछले साल अगस्त में अदालत के आदेश के बाद भी इस मामले में कोई प्रगति नहीं हुई है.

पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी ने एक हालिया लेख में कहा है कि भारतीय राजनीतिक व्यवस्था की शुचिता और स्वच्छता पर खतरा लगातार गहराता जा रहा है. उनका कहना था कि कभी सार्वजनिक जीवन में बेदाग लोगों की वकालत की जाती थी, लेकिन अब यह आम धारणा है कि राजनेता और अपराधी एक-दूसरे के पर्याय हो चले हैं. जानी-मानी संस्था एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) ने यूपी विधानसभा चुनाव 2022 के पहले चरण में चुनाव लड़नेवाले 623 में से 615 उम्मीदवारों के शपथ पत्रों का विश्लेषण किया है.

राज्य के 58 निर्वाचन क्षेत्रों से चुनाव लड़ रहे इन 615 उम्मीदवारों में से 156 ने अपने ऊपर आपराधिक मामले घोषित किये हैं. इसका अर्थ है कि 20 फीसदी उम्मीदवारों पर गंभीर आपराधिक मामले चल रहे हैं. इनमें से 12 लोगों पर महिलाओं से संबंधित आपराधिक मामले चल रहे हैं. एक उम्मीदवार पर बलात्कार का मामला भी है.

हत्या से संबंधित मामले घोषित करनेवाले छह उम्मीदवार हैं. हत्या के प्रयास से संबंधित मामले घोषित करनेवाले उम्मीदवार 30 हैं. इनमें से 280 करोड़पति हैं तथा 39 फीसदी उम्मीदवारों की शैक्षिक योग्यता पांचवीं से 12वीं के बीच है, जबकि 49 फीसदी उम्मीदवारों की शैक्षणिक योग्यता स्नातक और इससे ज्यादा है.

इसमें दो राय नहीं है कि विभिन्न सदनों में अहम मुद्दों पर अपेक्षित चर्चा नहीं हो पा रही है. एक दौर था जब संसद में लंबी गंभीर बहसें होती थीं. यह बहुत पुरानी बात नहीं है. विधानसभाओं की स्थिति तो और खराब है. उनके सत्र लगातार छोटे होते जा रहे हैं. कई बार होता यह है कि पूरा सत्र हंगामे की भेंट चढ़ गया और कोई विधायी कार्य नहीं हो पाया. सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि विधेयक बिना किसी बहस और हस्तक्षेप के पारित हो जाते हैं.

अनेक बार सांसद व विधायक सदन के विधायी नियमों का या तो पालन नहीं करते या कई बार उन्हें इनकी जानकारी ही नहीं होती है. हालांकि हर सत्र से पहले सरकार और विभिन्न दलों के बीच संसदीय मर्यादा के पालन पर सहमति बनती है, लेकिन होता इसके उलट है. यह बैठक एक तरह की रस्म बन कर रह गयी है. यह सब लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है.

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