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बैंकों की खूबियां और खामियां

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सार्वजनिक बैंकों में सरकार की हिस्सेदारी को कम किया जा सकता है तथा कामकाज में उन्हें अधिक स्वायत्तता दी जा सकती है.

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वर्ष 1969 की दो घटनाओं- एक राष्ट्रीय व दूसरी अंतरराष्ट्रीय- की वर्षगांठ जुलाई के तीसरे सप्ताह में आती है. उस वर्ष चांद पर पहली बार मनुष्य के पहुंचने के 12 घंटे पहले भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री ने 14 निजी बैंकों के सरकारी अधिग्रहण तथा देश की 85 प्रतिशत जमा राशि के राष्ट्रीयकरण की घोषणा की थी. दोनों घटनाओं के दूरगामी प्रभाव हुए- एक ने अंतरिक्ष अनुसंधान कार्यक्रम को गति दी, तो दूसरे ने बैंकिंग व वित्तीय तंत्र को आगे बढ़ाया.

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हम कभी बाद में अपोलो-11 अभियान के बारे में चर्चा करेंगे. अभी हम बैंकों के राष्ट्रीयकरण के दीर्घकालिक प्रभावों पर बात करें. वर्ष 1969 से अर्थव्यवस्था 50 गुनी बड़ी हो चुकी है. तब उन 14 बैंकों की कुल जमा पूंजी 100 करोड़ रुपये भी नहीं थी, जबकि आज सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के पास 100 लाख करोड़ रुपये से अधिक जमा हैं.

आज 53 साल बाद भी सार्वजनिक बैंकों के जमा का अनुपात 70 प्रतिशत है, जो राष्ट्रीयकरण के दिन से मात्र 15 प्रतिशत कम है. तत्कालीन प्रधानमंत्री ने आनन-फानन में यह फैसला लिया था, लेकिन इस निर्णय को छह माह बाद ही सर्वोच्च न्यायालय ने पलट दिया और अदालती बाधा से पार पाने के लिए एक संशोधित अध्यादेश लाना पड़ा था.

बैंकों के राष्ट्रीयकरण से प्रधानमंत्री को व्यापक लोकप्रियता के साथ राजनीतिक लाभ भी मिला, क्योंकि उससे पहले के 20 वर्षों में निजी बैंकों की असफलता के सैकड़ों मामले सामने आ चुके थे. लोगों को ऐसा लगा कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में उनका पैसा सुरक्षित है. ऐसी सोच आज भी बरकरार है. वर्तमान सरकार ने भी निजी बैंकों की तुलना में सरकारी बैंकों पर बहुत अधिक निर्भरता दिखायी है. उदाहरण के लिए, प्रधानमंत्री की जन-धन योजना के 45 करोड़ खातों में से 90 प्रतिशत से अधिक खाते सार्वजनिक बैंकों ने ही खोले हैं.

यह दुनिया का सबसे बड़ा वित्तीय समावेशन अभियान है और इससे सरकारी अनुदानों को सीधे लाभार्थियों के खाते में भेजने में बड़ी सुविधा हुई है. कोविड महामारी के दौरान भी ये खाते बड़े मूल्यवान साबित हुए थे. इन खातों के साथ बीमा और ओवरड्राफ्ट की सुविधा भी है. छोटे उद्यमियों को मिलने वाला मुद्रा ऋण भी मुख्य रूप से सार्वजनिक बैंकों द्वारा ही दिया जाता है.

सरकारी परियोजनाओं- बंदरगाह, सड़कें, रेलवे, अन्य इंफ्रास्ट्रक्चर योजनाएं आदि- के लिए भी अधिकांश कर्ज ये बैंक ही मुहैया कराते हैं. हाल में उत्तर प्रदेश में बने बुंदेलखंड एक्सप्रेसवे की अनुमानित लागत 15 हजार करोड़ रुपये है, जिसे सार्वजनिक बैंकों के एक समूह ने प्रदान किया है. जब बैंकों पर संकट आता है, तो ये बैंक ही काम आते हैं. हाल ही में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने एक तरह से यस बैंक का अधिग्रहण कर लिया है, भले ही तकनीकी रूप से यह नहीं हुआ है. कुख्यात ग्लोबल ट्रस्ट बैंक को 2004 में ओरियेंटल बैंक ऑफ कॉमर्स ने उबारा था.

सार्वजनिक बैंकों के केवल व्यावसायिक कामकाज को देखा जाए, तो मिली-जुली तस्वीर उभरती है. फंसे हुए कर्ज, जिन्हें गैर-निष्पादित परिसंपत्तियां (एनपीए) भी कहा जाता है, के मामले में निजी बैंकों की तुलना में सार्वजनिक बैंकों की स्थिति बेहद खराब है. ट्रांसयूनियन सिबिल की एक हालिया रिपोर्ट में बताया गया है कि जान-बूझ कर कर्ज नहीं चुकाने वाले लोगों, जिनके खिलाफ बैंकों ने कार्रवाई शुरू की है, की संख्या बीते 10 साल में 10 गुनी बढ़ गयी है.

मार्च, 2021 तक ऐसे लोगों पर 2.4 लाख करोड़ रुपये बकाया थे, जिसमें 95 फीसदी सार्वजनिक बैंकों के हैं. यह सार्वजनिक कोष की लूट है. इसकी वसूली की संभावना न के बराबर है और वैसे भी कानूनी प्रक्रिया बहुत लंबी चलती है. सवाल यह है कि ऐसा देने वाले की लापरवाही से हुआ है, कर्जों पर निगरानी की कमी रही या कर्ज किसी राजनीतिक दबाव में दिया गया. लापरवाही का तर्क लचर है, क्योंकि 30 फीसदी ऐसे कर्ज स्टेट बैंक और उससे जुड़े बैंकों ने दिये हैं, जो उच्च कोटि की प्रक्रिया के लिए जाने जाते हैं.

आखिर निजी बैंकों पर ऐसे कर्जों का बोझ बहुत कम क्यों है? क्या वे बेहतर निगरानी करते हैं या ऐसे कर्ज नहीं बांटते, जो व्यावसायिक रूप से आकर्षक नहीं होते? क्या उन पर राजनीतिक दबाव नहीं होता? भारत में बैंकिंग की सभी समस्याओं के हल के रूप में बैंकों के निजीकरण को देखना गलत है. बड़ी बैंक असफलताएं निजी बैंकों की ही रही हैं. अमेरिका और पश्चिमी देशों से शुरू हुआ वित्तीय संकट 2008 में वैश्विक संकट बन गया था. उस संकट के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है.

उसी साल इंफोसिस ने घोषणा की थी कि वह अपने नगद जमा को निजी व विदेशों बैंकों से निकालकर स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में रखने जा रही है तथा उसके निवेशकों को घबड़ाना नहीं चाहिए. यह सार्वजनिक बैंकों में जमाकर्ताओं के भरोसे को इंगित करता है. लेकिन इस भरोसे का एक दूसरा पहलू भी है. यह इसलिए है कि इन बैंकों को भारत सरकार डूबने नहीं देगी.

यह गारंटी मुनाफे को प्रभावित कर सकती है. क्या यह सही है कि जमाकर्ता को असीमित गारंटी मिले? डूबने की स्थिति में क्या इसकी कोई सीमा (जैसे पांच लाख रुपया) नहीं होनी चाहिए? ऐसे बहुत से सवालों का जवाब बैंकिंग सुधार में है, जिसमें अधिक स्वायत्तता, अधिक व्यावसायिक रूझान, सामाजिक उद्देश्यों का कम बोझ, जमाकर्ता के जोखिम का बेहतर मूल्यांकन आदि शामिल हैं.

सीधे और पूरे तौर पर सभी सार्वजनिक बैंकों का निजीकरण ऐसे सवालों का बिलकुल ही गलत जवाब है, जैसा कि नीति आयोग के एक पूर्व प्रमुख और प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार परिषद के एक वर्तमान सदस्य द्वारा साझे तौर पर लिखे गये पर्चे में सुझाव दिया गया है. बैंकों से संबंधित समस्याओं के समुचित समाधान के लिए निश्चित रूप से एक बीच का रास्ता निर्धारित किया जा सकता है.

इस रास्ते के अंतर्गत सार्वजनिक बैंकों में सरकार की हिस्सेदारी को कम किया जा सकता है तथा कामकाज में उन्हें अधिक स्वायत्तता दी जा सकती है. लोगों को भरोसे को बहाल रखते हुए जमा राशि का उचित मूल्य पर बीमा किया जाना चाहिए तथा बैंकों के व्यावसायिक प्रदर्शन को बेहतर किया जाना चाहिए. यह 1969 में चांद पर उतरने जैसा कोई रॉकेट साइंस नहीं है.

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