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सोचने की आजादी बहुत जरूरी

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आकार पटेल कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया हालिया रिपोर्टों के मुताबिक, दिल्ली पुलिस को कन्हैया कुमार के खिलाफ राजद्रोह का कोई सबूत नहीं मिला है. दिल्ली पुलिस मोदी सरकार के अधीन आती है. जो लोग कन्हैया को नहीं जानते, उन्हें बता दूं कि कन्हैया जेएनयू का छात्र है, जो एक साल पहले राष्ट्रीय घृणा का […]

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आकार पटेल
कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया
हालिया रिपोर्टों के मुताबिक, दिल्ली पुलिस को कन्हैया कुमार के खिलाफ राजद्रोह का कोई सबूत नहीं मिला है. दिल्ली पुलिस मोदी सरकार के अधीन आती है. जो लोग कन्हैया को नहीं जानते, उन्हें बता दूं कि कन्हैया जेएनयू का छात्र है, जो एक साल पहले राष्ट्रीय घृणा का विषय बन गया था. उसके ऊपर भारत-विरोधी नारे लगाने का आरोप था. यह शब्द ‘भारत-विरोधी नारा’ वास्तव में उसके और उसके मुकदमे के कारण बहुत प्रसिद्ध हो गया.
हालांकि, बहुतों को यह मालूम ही नहीं है कि वास्तव में भारत-विरोधी नारा है क्या चीज? ‘कश्मीर मांगे आजादी’ को भारत-विरोधी माना जाता है, जबकि आजादी के कई रूप और अर्थ होते हैं. अगर हम इसे भारत-विरोधी मान भी लें, तो भी यह राजद्रोह का मामला नहीं है. उच्चतम न्यायालय ने पूरी तरह से स्पष्ट कर दिया है कि किसी पर राजद्रोह का मुकदमा तभी दायर किया जा सकता है, जब वह हिंसा भड़काने का काम करे.
अब हमसे यह कहा जा रहा है कि टेप में कन्हैया की आवाज नहीं है. ऐसे में उसे राजद्रोह का आरोपी नहीं बनाना चाहिए था और उसे गिरफ्तार कर जेल नहीं भेजा जाना चाहिए था.
वकीलों द्वारा अदालत में कन्हैया कुमार के ऊपर जो हमला किया गया था, वह अापराधिक कृत्य था. उससे प्रधानमंत्री और स्मृति ईरानी को माफी मांगनी चाहिए, जिन्होंने जेएनयू मसले पर ट्वीट किया था और कड़े बयान जारी किये थे.
जेल से बाहर आने के बाद कन्हैया द्वारा दिये गये भाषण के बारे में कई लोगों का मानना है कि वह बहुत शानदार था. ऐसा माननेवाले में से मैं भी एक था और मैंने तब लिखा था कि भाजपा को अब कन्हैया को परेशान नहीं करना चाहिए, क्योंकि वह उनके लिए खतरनाक है. वह बेहतरीन वक्ता है और वह प्रधानमंत्री के शब्दाडंबर का जवाब दे सकता है.
ऐसा राहुल गांधी जैसे नेता नहीं कर सकते हैं. कन्हैया के जेल से बाहर आने के बाद मैंने उससे मुलाकात की थी. इस मुलाकात में उसके भाषण पर बातचीत हुई थी. वह एक आकर्षक व्यक्ति है- गंभीर, विचारशील और शालीन- जो अपने बारे में बात करना पसंद नहीं करता है, बल्कि गंभीर मुद्दों पर चर्चा करना उसे पसंद है. उसके रिहा होने के बाद भाजपा समर्थक छात्र संगठन ने उसे नजरअंदाज किया है और भाजपा ने भी कन्हैया से बहस करने से दूरी बना ली है. यह उसे मीडिया में तवज्जो न मिलने देने की बुद्धिमानी है. कन्हैया कुमार के खिलाफ राजद्रोह के कोई सूबत न होने की खबर को लीक कराना संभवत: मामले को पूर्णविराम देकर आगे बढ़ने की कोशिश है.
अब एक बार फिर विश्वविद्यालयों में राष्ट्र-विरोध का मुद्दा उभर आया है. इस बार एक शहीद सैनिक की बेटी गुरमेहर कौर जैसे अन्य युवा राष्ट्रीय चेहरा बन गये हैं. गुरमेहर के युद्ध के खिलाफ दिये गये बयान का क्रिकेटर वीरेंद्र सहवाग ने मजाक बनाया था. बेशक राष्ट्र-विरोधी बहस के दो पक्ष हैं, लेकिन हमें इस बात को स्वीकार करना होगा कि यहां एक ही पक्ष हिंसक है और हिंसा को बढ़ावा दे रहा है. और वह पक्ष सरकार और उससे जुड़े अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् (एबीवीपी) का है.
यहां सवाल है कि आखिर क्यों विद्यार्थी मुसीबत में पड़ने को इतने इच्छुक रहते हैं, जबकि यह पूरी तरह स्पष्ट है कि उनके कृत्य को मीडिया और आम लोग नापसंद करते हैं तथा उन्हें हिंसा का सामना करना पड़ता है? इसका कारण यह है कि आज भारत में बहुसंख्यकवाद और ठगों जैसी विचारधारा का प्रतिरोध करने के लिए दूसरा कोई दूसरा मंच उपलब्ध नहीं है.
भाजपा और इसके हिंदुत्व समूह उग्र राष्ट्रवाद के एजेंडे को आगे बढ़ा रहे हैं. वे राष्ट्रगान, तिरंगा, कश्मीर, माओवाद या अल्पसंख्यकों के अधिकारों को लेकर अपने विचारों से इतर दूसरे किसी भी विचार को सहन नहीं करते हैं. दूसरे राजनीतिक दल राष्ट्रवाद की चर्चा से भाग गये हैं.
कांग्रेस मानती है कि व्यक्तिगत अधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और नागरिक अधिकारों के पक्ष में खड़े होने से बहुत ज्यादा चुनावीफायदा नहीं मिलेगा.
अदालतें भी यही जता रही हैं कि माहौल व्यापक राष्ट्रवाद के पक्ष में है और उनके हालिया आदेश, जैसे कि सिनेमा में राष्ट्रगान बजाने और सभी को खड़े होने का आदेश, यही इंगित करते हैं. मीडिया भी एक व्यवसाय है और इसलिए उसे लोकप्रिय मत के सामने झुकना होता है. हालांकि, समाचारपत्र कुछ हद तक विरोधी विचारों को भी अपने संपादकीय और संपादकीय आलेखों में जगह देते हैं, लेकिन टेलीविजन के लिए ऐसा करना सचमुच संभव नहीं है. न्यूज चैनलों को अपनी उच्च रेटिंग के लिए बहुमत के साथ ही खड़े रहना होता है.
ऐसे में प्रतिरोध और विरोध के लिए केवल विश्वविद्यालय ही एक मंच बचता है. और इसी मंच पर कन्हैया, उमर खालिद, गुरमेहर और शेहला रशीद जैसे बहादुर युवा व युवती हिंदुत्व के खिलाफ खड़े हो रहे हैं. वे कुछ भी गलत नहीं कह रहे हैं. कश्मीरियों के साथ बातचीत की शुरुआत करने में क्या गलत है और यह स्वीकार करना क्यों गलत है कि हम लोग आदिवासियों और दलितों के साथ दुर्व्यवहार करते हैं? यही सत्य है.
मैंने पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एमएस गिल (जो मतदान में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन लेकर आये थे, जिसकी वजह से भारत की चुनावी प्रक्रिया दुनिया की बेहतरीन व्यवस्थाओं में शुमार होने लगी) से इस मुद्दे पर बात की थी. मैंने उनसे पूछा कि कोई विश्वविद्यालय कैसे महान बनता है.
वे कैंब्रिज में रह चुके हैं. उन्होंने कहा कि सोचने की आजादी से एक विश्वविद्यालय महान बनता है. यही वह अधिकार है, जिसकी मांग हमारे हिम्मती छात्र कर रहे हैं. पिछले वर्ष जब उन्होंने यह मांग की थी, तब उन्हें गाली दी गयी और पीटा गया, और अब मोदी सरकार का पुलिस बल चुपके से यह खबर लीक कर रही है कि जिस व्यक्ति को उन्होंने सबसे बड़ा खलनायक बताया था, दरअसल उसने कोई गैरकानूनी काम नहीं किया था.
‘राष्ट्र-विरोधियों’ के खिलाफ एक बार फिर से जब हिंसा और घृणा का सिलसिला शुरू हुआ है, तो हम सभी को उनका समर्थन करना चाहिए और उनका पक्ष लेना चाहिए, भले ही हम उनके विचारों से सहमत हों या असहमत.

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