11.1 C
Ranchi
Monday, February 10, 2025 | 06:39 am
11.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

दिल्ली में 5 फरवरी को मतदान, 8 फरवरी को आएगा रिजल्ट, चुनाव आयोग ने कहा- प्रचार में भाषा का ख्याल रखें

Delhi Assembly Election 2025 Date : दिल्ली में मतदान की तारीखों का ऐलान चुनाव आयोग ने कर दिया है. यहां एक ही चरण में मतदान होंगे.

आसाराम बापू आएंगे जेल से बाहर, नहीं मिल पाएंगे भक्तों से, जानें सुप्रीम कोर्ट ने किस ग्राउंड पर दी जमानत

Asaram Bapu Gets Bail : स्वयंभू संत आसाराम बापू जेल से बाहर आएंगे. सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें जमानत दी है.

Oscars 2025: बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप, लेकिन ऑस्कर में हिट हुई कंगुवा, इन 2 फिल्मों को भी नॉमिनेशन में मिली जगह

Oscar 2025: ऑस्कर में जाना हर फिल्म का सपना होता है. ऐसे में कंगुवा, आदुजीविथम और गर्ल्स विल बी गर्ल्स ने बड़ी उपलब्धि हासिल करते हुए ऑस्कर 2025 के नॉमिनेशन में अपनी जगह बना ली है.
Advertisement

लानत है ऐसे अस्पताल और ऐसी व्यवस्था पर

Advertisement

अनुज कुमार सिन्हा anuj.sinha@prabhatkhabar.in इन दाे खबराें आैर एक पत्र काे पढ़िए. पहली खबर : राजधानी रांची में एक पिता अपने बीमार बेटे के इलाज के लिए अस्पताल-अस्पताल घूमता रहा. पैसे नहीं थे. पिता गिड़गिड़ाता रहा. अस्पताल ने इलाज नहीं किया. बेटे की माैत हाे गयी. दूसरी खबर : राजधानी रांची के एक स्कूल के […]

Audio Book

ऑडियो सुनें

अनुज कुमार सिन्हा

- Advertisement -

anuj.sinha@prabhatkhabar.in

इन दाे खबराें आैर एक पत्र काे पढ़िए.

पहली खबर : राजधानी रांची में एक पिता अपने बीमार बेटे के इलाज के लिए अस्पताल-अस्पताल घूमता रहा. पैसे नहीं थे. पिता गिड़गिड़ाता रहा. अस्पताल ने इलाज नहीं किया. बेटे की माैत हाे गयी.

दूसरी खबर : राजधानी रांची के एक स्कूल के एक छात्र ने पेट्राेल छिड़क कर आग लगा कर जान देने का प्रयास किया, क्याेंकि पढ़ाई के दबाव से वह तबाह था.

आैर मुख्यमंत्री के नाम एक बच्चे का पत्र : माननीय मुख्यमंत्री जी, मैं 11 साल का बालक हूं.

स्कूल और घर में सिर्फ पढ़ाई-पढ़ाई की बात हाे रही है. मुझे खेलने का मन करता है. आप बताइए, मैं कहां खेलूं. खेल के मैदान नहीं हैं. सभी मैदानाें पर कब्जा हाे गया है. जब खेल नहीं पाता, ताे घर में टीवी, माेबाइल पर समय काटता हूं. अब ताे इसका नशा लग गया है. मुख्यमंत्री जी, हम भी वैसा ही खेलना चाहते हैं, जैसा आप बचपन में खेलते हाेंगे. मेरे जैसे लाखाें बच्चाें के सपनाें काे आपसे उम्मीद है.

ये तीनाें (खबर आैर पत्र) चिंताजनक हैं. तीनाें में समानता है. तीनाें ही बच्चाें से जुड़े मामले हैं. तीनाें हालात बताते हैं. पहली खबर से ताे यही संदेश जाता है कि लाेग (खास कर अस्पताल से जुड़े) कितने संवेदनहीन हाे गये हैं, सिस्टम कैसे बेकार हाे गया है, सेवा नहीं, धंधा महत्वपूर्ण हाे गया है. दूसरी खबर से यही संदेश जा रहा है कि कैसे बच्चे तनाव में जी रहे हैं, उनमें धैर्य नहीं रह गया है, टूट जा रहे हैं? पत्र से एक बालक की पीड़ा झलकती है. इसका संदेश ताे यही है कि बच्चाें के बचपन काे छीन लिया गया, किसी काे चिंता नहीं.

आइए,पहले बात हाे पहली खबर की. सिमडेगा से एक पिता अपने बीमार बेटे काे लेकर रांची आता है. रिम्स जाता है. कराेड़ाें रुपये रिम्स पर खर्च हाेते हैं. रिम्स में अत्याधुनिक सुविधाआें का दावा किया जाता है. एक से एक नामी-अनुभवी डॉक्टर्स हैं, पर किसी ने उसका इलाज नहीं किया. कहा कि यहां सुविधा नहीं है. रांची के बच्चाें के एक निजी अस्पताल में ले जायें. वहां 15 हजार रुपये मांगा. इतने पैसे नहीं थे. एडमिट नहीं किया. काश, उस पिता के पास 15 हजार रुपये हाेते, ताे शायद उस बच्चे की जान नहीं जाती.

वह बच जाता. हां, जब अखबार में पैसे की कमी की खबर छपी, ताे समाज के संवेदनशील लाेगाें ने पैसा देना चाहा, लेकिन तब तक देर हाे चुकी थी. लानत है ऐसे अस्पताल और ऐसी व्यवस्था पर, जिसने पैसे की खातिर बच्चे की जान ले ली. काेई आैर राज्य हाेता, ताे ऐसे अस्पतालाें के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करता. ऐसे अस्पतालाें ने धंधा चला रखा है. सैकड़ाें कमियां हैं. लाखाें-कराेड़ाें इसी समाज से कमाते हैं, टैक्स मारते हैं, लेकिन जब एक गरीब के इलाज की बात आती है, ताे मुंह माेड़ लेते हैं. ठीक है अस्पताल कह सकता कि उसने सभी का मुफ्त में इलाज के लिए ठेका नहीं ले रखा है, लेकिन ऐसे अस्पतालाें (इसमें अधिकतर अस्पताल शामिल हैं) काे अपनी कमियाें की आेर देखना हाेगा.

अगर अस्पताल सिर्फ प्रॉफिट-लॉस की दुहाई दे, ताे उस अस्पताल के साथ भी सरकार काे वैसा ही कड़ा व्यवहार करना चाहिए. सरकार भी अपनी जिम्मेवारी से बच नहीं सकती.

सरकारी तंत्र (सरकारी अस्पताल) अगर बेहतर हाेता, ताे इन निजी अस्पतालाें की आेर काेई ताकता भी नहीं. ऐसे खुदगर्ज अस्पताल अपनी दुकान खाेल कर बाेहनी करने के लिए तरसते. राज्य बनने के 16 साल बाद भी हम अपने झारखंड के जिलाें में सदर अस्पताल काे सुधार नहीं सके. रिम्स काे एम्स की टक्कर का अस्पताल नहीं बना सके. इसी का खमियाजा है कि ये निजी अस्पताल लूट रहे हैं, काेई बाेलनेवाला नहीं. लाेगाें के पास विकल्प नहीं है आैर ये अस्पताल इसी मजबूरी का फायदा उठाते हैं.

अब झारखंड काे एम्स मिल गया है (जहां बनना है बने, लेकिन एक ही जिले में बनेगा), बेहतर हाेगा कि सरकारी अस्पतालाें काे इतना बेहतर बनाया जाये, ताकि काेई इलाज के अभाव में न मरे. इसी देश में पीजीआइ लखनऊ, पीजीआइ चंडीगढ़, बीएचयू अस्पताल उदाहरण हैं, जहां गरीब हो या अमीर, आपका इलाज बेहतर होगा. झारखंड के हालात देखिए, 180 कराेड़ की लागत से रांची में सदर अस्पताल बन कर बेकार पड़ा है. ठाेस निर्णय नहीं हाे पाता. कभी कहा जाता है कि खुद सरकार चलायेगी, कभी कहा जाता है, देश के बड़े अस्पताल चलायेंगे. जिसे चलाना है, चलाये. पर गरीबाें के लिए अगर उसमें जगह नहीं रहेगी, ताे ये अस्पताल रहे या न रहे, फर्क नहीं पड़ता.

दूसरी खबर यानी राजधानी रांची के एक निजी स्कूल में एक छात्र द्वारा पढ़ाई के दबाव में जान देने के प्रयास का. यह बताता है कि बच्चे कमजाेर हाे रहे हैं. उन्हें समझना हाेगा कि जान देना किसी समस्या का समाधान नहीं है. इससे उनकी समस्या सुलझ नहीं जायेगी. वे पास नहीं हाे जायेंगे. अगर परीक्षा में कम अंक आये, फेल हाे गये, ताे क्या फर्क पड़ता है. दुनिया खत्म नहीं हाे जाती. न्यूटन से लेकर आइंस्टीन तक फेल हाे चुके हैं, लेकिन उन्हाेंने हिम्मत नहीं हारी आैर संकल्प लिया, फिर इतिहास रच दिया.

यह सच है कि बच्चाें पर पढ़ाई का दबाव है. ऐसे मामलाें में माता-पिता का दायित्व है, वे बच्चाें पर अनावश्यक दबाव न दें. उनकी क्षमता काे पहचाने. हर काेई अपने बेटे-बेटियाें काे आइआइटी में ही भेजना चाहता है. आइएएस ही बनाना चाहता है. मेडिकल में ही भेजना चाहता है. यह संभव भी नहीं है. इस सच काे स्वीकारना पड़ेगा. संयम आैर धैर्य बढ़ाना हाेगा. हार काे स्वीकारना भी हाेगा.

हर बार आप सफल नहीं हाे सकते. सच है कि ऐसे हालात इसलिए पैदा हाे रहे हैं, क्याेंकि बच्चाें के लालन-पालन में गड़बड़ी हाे रही है. माता-पिता बच्चाें काे समय देते नहीं आैर बेहतर परिणाम की अपेक्षा करते हैं. बच्चाें का जीवन घर से स्कूल, स्कूल से घर या काेचिंग तक सिमट गया है. उनके मन में जाे कुछ चल रहा है, उसे शेयर नहीं करते, काेई सुनना नहीं चाहता. एक जिद पूरी कराे, दूसरी की जिद कर देते हैं. मानते जाइए ताे ठीक, नहीं माना, ताे जान देने की धमकी. इस हालात काे बदलना हाेगा. बच्चाें काे समझना हाेगा, समझाना हाेगा. ये ही अापकी पूंजी हैं, देश की पूंजी हैं. इन बच्चाें की बाताें काे अगर सुन लिया जाये, अनावश्यक बाेझ नहीं लादा जाये, ताे फिर ऐसे हालात पैदा ही नहीं हाेंगे. यह बड़ी चुनाैती है.

आैर अंत में उस पत्र के बारे में. गांव आैर छाेटे शहराें की बात छाेड़ दीजिए, यह सत्य है कि रांची जैसे शहर में खेलने का मैदान लगभग बचा ही नहीं है. अपार्टमेंट कल्चर आैर जमीन पर अवैध कब्जे ने सारा कुछ बदल दिया है. मैदानाें में कब्जा हाेता रहा, पुलिस देखती रही, प्रशासन देखता रहा. बड़े-बड़े घर बन गये, अवैध जमीन पर किसी ने उसे ताेड़ा नहीं. मैदान गायब हाेते गये. अब बच्चे कहां क्रिकेट खेलेंगे, कहां फुटबॉल या हॉकी खेलेंगे. जगह ही नहीं है. ऐसे में उस बच्चे की पीड़ा स्वाभाविक है. जब बच्चे मैदान में खेलेंगे ही नहीं, ताे ये आगे चल कर कैसे देश के लिए पदक जीतेंगे. खेल का माहाैल बनाना हाेगा.

स्कूलाें में पहले खेल के शिक्षक हाेते थे. अब ताे नजर नहीं आते. हम बच्चाें काे खेलने की जगह नहीं देते (जमशेदपुर अपवाद है) आैर उम्मीद करते हैं कि वे खेल कर अच्छा खिलाड़ी बनें. बेहतर हाेता कि प्रशासन इमानदारी बरतता आैर कुछ कड़े फैसले करता. मैदान पर जिन लाेगाें ने कब्जा किया है, चाहे वह कितना भी ताकतवर क्याें न हाे, उसका घर टूटेगा ही. अगर ऐसे घराें काे नहीं ताेड़ेंगे, ताे बच्चाें का खेलने का सपना टूटेगा. अब सरकार तय करे कि वह चाहती क्या है?

ट्रेंडिंग टॉपिक्स

Advertisement
Advertisement
Advertisement

Word Of The Day

Sample word
Sample pronunciation
Sample definition
ऐप पर पढें