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घाटा, कर्ज का भीषण कांटा!

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अिनल रघुराज संपादक, अर्थकाम.काॅम कालेधन को साफ करने की जिस वैतरणी के लिए सरकार ने देश के 26 करोड़ परिवारों को तकलीफ की भंवर में धकेल दिया, वह दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ती हमारी अर्थव्यवस्था के लिए कर्मनाशा बनती दिख रही है. आइएमएफ जैसे प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय संगठन तक ने भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास का […]

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अिनल रघुराज
संपादक, अर्थकाम.काॅम
कालेधन को साफ करने की जिस वैतरणी के लिए सरकार ने देश के 26 करोड़ परिवारों को तकलीफ की भंवर में धकेल दिया, वह दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ती हमारी अर्थव्यवस्था के लिए कर्मनाशा बनती दिख रही है. आइएमएफ जैसे प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय संगठन तक ने भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास का अनुमान 7.6 प्रतिशत से घटा कर 6.6 प्रतिशत कर दिया है, जबकि चीन का अनुमान 6.5 प्रतिशत से बढ़ा कर 6.7 प्रतिशत कर दिया है. यह केंद्र सरकार के लिए बड़ी फजीहत की बात है. इसलिए ‘माया मिली, न राम’ की स्थिति से बचने के लिए वित्त मंत्री अरुण जेटली अपने तीसरे बजट में भरपूर कवायद कर सकते हैं.
कल, मंगलवार को संसद में आर्थिक समीक्षा आयेगी. इसमें देश की तमाम आर्थिक समस्याओं से लेकर निदान की बात होगी. परसों, बुधवार को विपक्ष के हंगामे के बीच जेटली नये वित्त वर्ष 2017-18 का आम बजट पेश कर देंगे. हंगामा इसलिए, क्योंकि विपक्ष का कहना था कि पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों से ठीक पहले बजट लाना वोटरों को ‘रिश्वत’ देने जैसा है. इसलिए उसे 11 मार्च को चुनाव नतीजे आने के बाद पेश किया जाये. पांच साल पहले 2012 में यूपीए सरकार ने विपक्ष की मांग पर इन्हीं पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के चलते बजट को 28 फरवरी से टाल कर 16 मार्च को पेश किया था. लेकिन, एनडीए सरकार ने अबकी बार ऐसा नहीं किया और गेंद निर्वाचन आयोग के पाले में डाल कर अपनी जिद पर डटी रही.
इस बीच कालेधन को खींच न पाने की कालिख मिटाने के लिए सरकार से जुड़े अर्थशास्त्रियों ने कुछ नये गणित उछाल दिये. उन्होंने कहा कि पीडीएस और मनरेगा जैसी योजनाओं में जो धन जाता है, उससे हर साल 1.75 लाख करोड़ रुपये का कालाधन बनता है. यह 2016-17 के लिए बजट में अनुमानित जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) 150.65 लाख करोड़ रुपये का करीब 1 प्रतिशत बनता है. इन स्कीमों को बंद करके सरकार यूनिवर्सल बेसिक इनकम (यूबीआइ) लाकर हर देशवासी के खाते में जीने लायक न्यूनतम आय डाल सकती है.
सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यम आर्थिक समीक्षा में इस पर विस्तार से लिखने जा रहे हैं. लेकिन, इसी बीच नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया ने साफ कर दिया कि देश में आय के मौजूदा स्तर और स्वास्थ्य, शिक्षा, इंफ्रास्ट्रक्चर व डिफेंस में निवेश की जरूरतों को देखते हुए हमारे पास इतने वित्तीय संसाधन नहीं हैं कि हम 130 करोड़ भारतीयों को वाजिब मूलभूत आय दे सकें.
पनगढ़िया की बात ने यूबीआइ स्कीम के गुब्बारे की हवा निकाल दी. साथ ही उसने एक अहम मसले पर हमारा ध्यान खींच लिया कि आखिर केंद्र सरकार के पास कुल कितने संसाधन हैं और उनका स्रोत क्या है.
चालू वित्त वर्ष 2016-17 में बजट अनुमान के मुताबिक, केंद्र के पास कुल वित्तीय संसाधन 19,78,060 करोड़ रुपये के हैं. इसमें से 10,54,101 करोड़ रुपये (53 प्रतिशत) उसे टैक्स से मिलने हैं, जबकि 5,33,904 करोड़ रुपये (27 प्रतिशत) उसने उधार लेकर जुटाये हैं. बाकी 20 प्रतिशत संसाधन वह सरकारी कंपनियों से मिले लाभांश, उनके मालिकाने की बिक्री, स्पेक्ट्रम व कोयला खदानों की नीलामी और दूसरों को दिये गये ऋणों की वसूली से हासिल करती है. लेकिन, ध्यान देने की खास बात यह है कि वह अपने वित्तीय संसाधनों का एक चौथाई से ज्यादा हिस्सा खुद ऋण लेकर जुटाती है, जिस पर हर साल उसे बराबर ब्याज चुकाना होता है.
इस ब्याज का बोझ कितना विकराल है, इसे जान कर आप चौंक सकते हैं. 2016-17 में सरकार ब्याज पर कुल 4,92,670 करोड़ रुपये चुकाने जा रही है. इस तरह वह अपने कुल वित्तीय संसाधन का करीब 25 प्रतिशत हिस्सा ब्याज अदायगी में लगा देती है, जबकि हर साल लिये गये उसके ऋण का 92 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा केवल ब्याज अदायगी में चला जाता है. दूसरे शब्दों में कहा जाये, तो हमारी केंद्र सरकार पुराने ऋणों का ब्याज चुकाने के लिए नये ऋण लेते जाने के दुष्चक्र में फंस गयी लगती है. हाल ही में रिजर्व बैंक के गर्वनर उर्जित पटेल ने भी सरकार से बढ़ती उधारी पर अंकुश लगाने की फरियाद की है.
दिक्कत यह है कि सरकार इस बार उधारी को घटाने के बजाय बढ़ाने के मूड में दिख रही है. पहले बता दें कि इस उधारी का दूसरा और चर्चित नाम राजकोषीय घाटा है. बजट में इसकी सटीक मात्रा दी जाती है. लेकिन, इसका जिक्र जीडीपी के प्रतिशत में ज्यादा किया जाता है. अंतरराष्ट्रीय निवेशक, रेटिंग एजेंसियां और अर्थशास्त्री इस आंकड़े को खास तवज्जो देते हैं.
गौरतलब है कि सरकार ऋण लेने में बहक न जाये, इसके लिए 2003 से ही फिस्कल रिस्पांसिबिलिटी एंड बजट मैनेजमेंट (एफआरबीएम) एक्ट नाम का कानून बना हुआ है. इसके अनुपालन पर नजर रखने के लिए एफआरबीएम समिति है, जिसकी कमान फिलहाल पूर्व राजस्व सचिव एनके सिंह ने संभाल रखी है.
कानून कहता है कि केंद्र सरकार को पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार राजकोषीय घाटे व जीडीपी के अनुपात को बराबर कम करते जाना है. चालू वित्त वर्ष 2016-17 में इसे जीडीपी का 3.5 प्रतिशत रखने का वचन दिया गया है. इसका कितना पालन हुआ, यह परसों पता चलेगा. नये वित्त वर्ष 2017-18 में इसे जीडीपी का 3 प्रतिशत रखा जाना है. हालांकि, रेटिंग एजेंसी क्रिसिल का कहना है कि यह लक्ष्य पूरा करना किसी चमत्कार से कम नहीं होगा. वैसे, वित्त मंत्री के लिए नाक बचाने की बात यह है कि एफआरबीएम समिति ने ही इसे 3 के बजाय 3.5 प्रतिशत तक रखने का सुझाव दे दिया है.
दरअसल, सरकार को अगर राजकोषीय घाटा जीडीपी का 3 प्रतिशत रखना है, तो उसे नये वित्त वर्ष में इसकी मात्रा चालू वित्त वर्ष से 35,000 करोड़ रुपये तक घटानी होगी. लेकिन, अर्थव्यवस्था में निजी निवेश और खपत का स्तर जिस तरह ठहरा हुआ है, उसमें सरकार अपने हाथ बांधने का आत्मघाती जोखिम नहीं उठा सकती.
जाहिर है कि जेटलीजी इस बार के बजट में ज्यादा आमदनी के साथ ही ज्यादा खर्च करने का पूरा घटाटोप फैलायेंगे. लेकिन, आप नजर रखियेगा कि उन्होंने राजकोषीय घाटा कितना रखा है, क्योंकि इसी से साफ होगा कि देश को कर्ज का कांटा इस बार कितनी जोर से लगने जा रहा है.

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