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बड़ा सवाल: कौन होगा जयललिता का उत्तराधिकारी

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!!प्रकाश कुमार रे !! जब 1984 में तत्कालीन मुख्यमंत्री एमजी रामचंद्रन अपोलो अस्पताल में भर्ती हुए थे, तब उनके परिवार और करीबी नेताओं ने जयललिता को उनसे मिलने नहीं दिया था. तीन साल बाद जब उनका देहांत हुआ, तब भी उनकी शव तक पहुंच पाने में जयललिता को बड़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ा था. […]

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!!प्रकाश कुमार रे !!

जब 1984 में तत्कालीन मुख्यमंत्री एमजी रामचंद्रन अपोलो अस्पताल में भर्ती हुए थे, तब उनके परिवार और करीबी नेताओं ने जयललिता को उनसे मिलने नहीं दिया था. तीन साल बाद जब उनका देहांत हुआ, तब भी उनकी शव तक पहुंच पाने में जयललिता को बड़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ा था. एमजीआर ने अपना कोई राजनीतिक वारिस घोषित नहीं किया था. जयललिता ने भी अपने उत्तराधिकारी का चयन नहीं किया था. लेकिन उसी अपोलो अस्पताल में जब जयललिता ने अपने आखिरी दिन बिताये, तब वैसा कुछ भी नहीं हुआ, जो 32 और 29 साल पहले हुआ था. तब अन्ना द्रमुक के वरिष्ठ नेता आरएम वीरप्पन और एमजीआर की पत्नी जानकी रामचंद्रन तथा जयललिता के बीच खुला सत्ता-संघर्ष हुआ था. परंतु आज उनकी खास सहयोगी शशिकला नटराजन और उनकी अनुपस्थिति में दो बार मुख्यमंत्री का पद संभालनेवाले ओ पनीरसेल्वम ने बड़ी शांति से उत्तराधिकार का संकट सुलझा लिया है. तो, क्या यह मान लिया जाये कि पार्टी और सरकार के भीतर प्रतिद्वंद्वी सत्ता-केंद्र नहीं हैं और आगे भी यह सिलसिला कायम रहेगा?

पनीरसेल्वम को नेता चुने जाने से पहले पार्टी के वरिष्ठ नेता इ रामामूर्ति और लोकसभा के उपाध्यक्ष थंबी दुरै के नामों की चर्चा भी थी, लेकिन शशिकला के समर्थन के बिना किसी का नेता बन पाना संभव न था. एक आकलन के मुताबिक पार्टी के कम-से-कम 60 विधायक और 12 मंत्री शशिकला के साथ हैं. यह समूह किसी भी तरह से अंदर या बाहर के कारकों को सरकार को अस्थिर नहीं करने देना चाहता है. फिलहाल, तमिलनाडु विधानसभा की 234 में से 136 सीटें अन्ना द्रमुक के पास हैं.

स्थितियां यही संकेत दे रही हैं कि पनीरसेल्वम पर भरोसा नहीं कर पाने के बावजूद शशिकला सरकार में बदलाव नहीं करना चाहेंगी. पनीरसेल्वम पर जयललिता ने बार-बार विश्वास जताया था, और उस पर किसी हमले से जनता में नाराजगी का डर भी है. ऐसे में पार्टी के विभिन्न धड़े नौकरशाही की मदद से सरकार चलाना चाहेंगे जिसका लगभग साढ़े चार साल का कार्यकाल बाकी है. जयललिता के बेहद नजदीकी सलाहकारों की संख्या भी बहुत थोड़ी रही है और उनके बारे में बस कयास ही लगाया जा सकता है. माना जाता है कि ऐसी ही एक सलाहकार शीला बालाकृष्णन मुख्य सचिव रामा मोहन राव के साथ मिलकर जयललिता की अनुपस्थिति में सरकार चलाती रही हैं. पर, वे पूर्व मुख्य सचिव रही हैं और उन्हें राजनीतिक रूप से निष्पक्ष भी माना जाता है.

अन्ना द्रमुक के नेताओं को 1987 का वह घटनाक्रम भी जेहन में होगा, जब एमजीआर की मृत्यु के बाद आंतरिक संघर्ष के कारण सत्ता से हाथ धोना पड़ा था और जानकी रामचंद्रन गुट कुछ ही समय बाद जयललिता के सामने झुकने के लिए मजबूर हुआ था. ऐसे में मौजूदा सरकार के चलते रहने के आसार प्रबल हैं.

अन्ना द्रमुक का मुख्य प्रतिद्वंद्वी द्रमुक भी नहीं चाहेगा कि जल्दी ही राज्य में कोई राजनीतिक संकट पैदा हो क्योंकि राष्ट्रपति शासन की स्थिति में भारतीय जनता पार्टी को लाभ मिल सकता है. तमिलनाडु की राजनीति में अपनी जगह बनाने को बेताब भाजपा की थोड़ी बढ़त भी स्थापित दलों के लिए बड़ी मुश्किल की वजह बन सकती है. हालांकि कावेरी जल-विवाद में केंद्र सरकार के रुख को देखते हुए यह भी कहा जा सकता है कि भाजपा यह निर्णय ले पाने में सफल नहीं हो पा रही है कि उसका ध्यान कर्नाटक पर अधिक रहे या फिर वह तमिलनाडु में दायरा बढ़ाने की कोशिश करे. भाजपा के सामने किसी कद्दावर नेता की कमी भी बड़ी चुनौती है. ऐसे में उसकी ओर से अधिक दखल की गुंजाइश बहुत कम है.

द्रमुक नेता एम करुणानिधि कमजोर सेहत के कारण पार्टी की बागडोर अपने छोटे बेटे एमके स्टालिन को दे चुके हैं. जयललिता के देहांत से अन्ना द्रमुक को लगे झटके का लाभ द्रमुक को मिल सकता है, पर पीएमके, एमडीएमके, डीएमडीके, और विभिन्न दलित पार्टियों को भी अपना प्रभाव-क्षेत्र बढ़ाने का अवसर दिख रहा है. कांग्रेस की स्थिति नाजुक है. उसे अपने विस्तार के लिए राज्य के किसी बड़े दल का साथ चाहिए या फिर उसे छोटे दलों के साथ गंठबंधन के विकल्प को तलाशना होगा. यदि अन्ना द्रमुक में कोई बड़ी टूट होती है, तो कांग्रेस और भाजपा उनके साथ जा सकते हैं, पर परिणामों को लेकर असमंजस ऐसी किसी रणनीति को प्रभावित कर सकता है.

राजनीति की बिसात पर उथल-पुथल के दौर लगातार आते हैं और भविष्य की संभावनाओं के बारे में निश्चित रूप से कह पाना ठीक भी नहीं है. जयललिता नहीं हैं. करुणानिधि पृष्ठभूमि में चले गये हैं. बीते कई दशकों से तमिलनाडु को प्रभावित करनेवाले इन व्यक्तित्वों के बिना राजनीति के रंग और अंदाज तो बदलेंगे ही, उसके चाल-ढाल में भी फर्क आयेगा. यह देखना दिलचस्प होगा कि नये चेहरे क्या गुल खिलाते हैं और उनके सियासी पैंतरा किन-किन दिशाओं का रुख करते हैं.

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