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थर्मोकॉल छीन रहा गरीबों का रोजगार

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आज पूरे विश्व में पर्यावरण सुरक्षा की बात हो रही है और इसके लिए सरकार की ओर से कई योजनाएं चलायी जा रही हैं. जगह-जगह पेड़ लगाये जा रहे हैं. लेकिन किसी ने सोचा है कि क्या हमारा प्रयास कोई रंग ला भी रहा है या नहीं. क्या सच में हम पर्यावरण को बचा रहे […]

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आज पूरे विश्व में पर्यावरण सुरक्षा की बात हो रही है और इसके लिए सरकार की ओर से कई योजनाएं चलायी जा रही हैं. जगह-जगह पेड़ लगाये जा रहे हैं. लेकिन किसी ने सोचा है कि क्या हमारा प्रयास कोई रंग ला भी रहा है या नहीं. क्या सच में हम पर्यावरण को बचा रहे हैं?
अगर देखा जाये तो नहीं. एक तरफ तो हम पर्यावरण बचाने की बात कर रहे हैं और दूसरी तरफ हम इसे खुद प्रदूषित कर रहे हैं. आज धड़ल्ले से हम प्लास्टिक और थर्मोकॉल के प्लेट, कटोरी और ग्लास का इस्तेमाल करते हैं. इनके इस्तेमाल से कैंसर जैसे घातक रोगों के अलावा थकान, मूर्च्छा और अनिद्रा जैसी बीमारियां दिनों-दिन बढ़ती जा रही हैं. वहीं यह आसपास का कचरा भी बढ़ा देता है, जो कभी खत्म नहीं होता.
थर्मोकॉल हमारी नालियों, तालाबों और नदियों में फंस कर जल में बसनेवाले जैविक तंत्र को भी हानि पहुंचा रहा है. थर्मोकॉल का एक अन्य दुष्प्रभाव यह भी है कि इसके अधिक प्रचलन से गरीबों का रोजगार छिन रहा है. जैसा कि हम जानते हैं कि झारखंड एक जंगल बहुल राज्य है.
यहां साल, महुआ, पलाश आदि पेड़ों की प्रचुरता है, जिनके पत्ते दोना-पत्तल बनाने के काम आते हैं. इन जंगलों के आसपास रहनेवाली आबादी की जीविका इसी पर निर्भर है. प्रतिदिन जंगल से पत्ते लेकर आना, घर में उनसे पत्तल-दोना बनाना और अगले दिन बाजार में उन्हें बेचना. लेकिन इन दिनों बाजारों में भरे पड़े थर्मोकॉल के प्लेट, कटोरी और ग्लास की वजह से प्राकृतिक दोना-पत्तलों की मांग कम हो चुकी है और इस पर निर्भर आबादी पर रोजी-रोटी का संकट आ पड़ा है.
हालांकि, विगत 19 जून को झारखंड के माननीय मुख्यमंत्री ने थर्मोकॉल पर प्रतिबंध लगाने का निर्देश भी दिया था. अगर समय रहते थर्मोकॉल के प्लेट-ग्लास आदि पर रोक नहीं लगायी गयी, तो राज्य की एक बड़ी आबादी की रोजी-रोटी पर संकट खड़ा हो जायेगा.
सुधीर कुमार मंडल, रांची

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