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कन्हैया और सुजीत दोनों ही अपने हैं

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तरुण विजय राज्यसभा सांसद, भाजपा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार गिरफ्तार किये गये, तो पूरे देश की मीडिया में एक उबाल आया तथा उसकी तीखी नजरों तले जांच चल रही है. इसी घटना के समानांतर केरल के कण्णूर जिले में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक सत्ताइस वर्षीय कार्यकर्ता सुजीत की उसके वृद्ध […]

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तरुण विजय
राज्यसभा सांसद, भाजपा
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार गिरफ्तार किये गये, तो पूरे देश की मीडिया में एक उबाल आया तथा उसकी तीखी नजरों तले जांच चल रही है.
इसी घटना के समानांतर केरल के कण्णूर जिले में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक सत्ताइस वर्षीय कार्यकर्ता सुजीत की उसके वृद्ध माता-पिता के सामने पीट-पीट कर हत्या कर दी गयी. वृद्ध मां-बाप का एक मात्र सहारा उनकी आंखों के सामने मार डाला जाये, तो वे जीते हुए भी मृतक समान हो ही गये होंगे. इस घटना का सामान्यत: मीडिया ने कोई नोटिस नहीं लिया और इसे एक साधारण स्थानीय घटना मान कर उपेक्षित कर दिया गया.
कन्हैया कुमार और कण्णूर के सुजित दोनों हमारे अपने हैं. एक के विरुद्ध जांच चल रही है और जब तक जांच का परिणाम नहीं आता, कन्हैया कुमार के उस बयान पर संदेह करने का कोई कारण नहीं है जिसमें उसने कहा है कि वह देशभक्त है और भारत के संविधान को मानता है.
वह सीपीआइ की छात्र शाखा का सदस्य है. उसके पक्ष में यदि जांच का परिणाम आता है, तो वह उसी तरह बेदाग बाहर आ जायेगा, जैसे पठानकोट के पुलिस अधीक्षक सलविंदर सिंह जांच के बाद निर्दोष सिद्ध हुए. तब तक कन्हैया कुमार को पूरी सुरक्षा मिले और उसकी उचित देखभाल हो, यह हम सब चाहते हैं. इस प्रकरण में जो मारपीट हुई तथा पत्रकारों के साथ बदसलूकी की गयी वह सरासर भर्त्सना योग्य और अस्वीकार्य है तथा इस प्रकरण के दोषियों को दंड मिलना ही चाहिए.
कन्हैया कुमार के समर्थन में एक विशेष सेक्युलर विचारधारा के अनुगामी पत्रकार, साहित्यकार एवं संपादक खुल कर सामने आये हैं. अभी जांच चल रही है तथा मजिस्ट्रेट ने दो मार्च तक हिरासत में रखने का आदेश दिया है. कोई कारण होगा तभी रिमांड का फैसला हुआ.
जब तक जांच का निर्णय नहीं आता, तब तक कन्हैया कुमार निर्दोष ही माने जायेंगे और हमें भी ऐसा ही मानना चाहिए. जहां तक विश्वविद्यालय में पुलिस के जाने का सवाल है, मैं भी यह मानता हूं कि किसी भी कैंपस में पुलिस नहीं जानी चाहिए और छात्रों का मामला महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय के प्रशासन को ही सुलझाना चाहिए.
लेकिन जब विषय छात्र, अध्यापक, शिक्षा और परीक्षा के दायरों को लांघ कर अराष्ट्रीय एवं देशद्रोही गतिविधियों का हो तो विश्वविद्यालय के सामने देश की जांच एजेंसियों को वह विषय सौंपने के अलावा और क्या रास्ता बचता है? क्या अब पुलिस, न्यायपालिका तथा प्रशासन पर विश्वास खत्म करते हुए यह तय करना होगा कि राजनीतिक दलों के छात्रसंघ निर्णय लेंगे कि जांच कहां और कौन करे?
कण्णूर के सुजीत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सेवक होने के नाते किसी अखबार में संपादकीय अथवा उग्र विरोध प्रदर्शन का विषय नहीं बने. इस संबंध में स्थानीय पुलिस ने मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के कुछ कार्यकर्ताओं को पूछताछ के लिए हिरासत में लिया है. कुछ दिन पहले माकपा की स्थानीय इकाई के महासचिव जयदेव को भाजपा के एक कार्यकर्ता की हत्या के आरोप में पकड़ा गया तथा अदालत ने जयदेव की जमानत की अर्जी भी खारिज कर दी थी.
जब तक सुजीत के हत्यारे नहीं पकड़े जाते, तब तक इस विषय में निर्णायक तौर पर कुछ भी कहना कठिन है, लेकिन परिस्थितिजन्य साक्ष्य कम्युनिस्टों की ओर ही संकेत करते हैं. क्या प्रकरण है कि सुजित का मारा जाना किसी अखबारी चिंता या आक्रोश का विषय नहीं बनता और यह प्रकरण अभिव्यक्ति एवं वैचारिक स्वतंत्रता पर आघात भी नहीं समझा जाता? क्या कन्हैया और कण्णूर के सुजीत दोनों ही भारतीय नहीं? और दोनों को ही संविधान एवं मीडिया से एक समान व्यवहार नहीं मिलना चाहिए?
यह सत्य है कि जो भी लिखने-पढ़नेवाले व्यक्ति हैं, उनकी अपनी एक विचारधारा एवं राजनीतिक सोच होती ही है. लेकिन क्या समाचार पत्रों के समाचार एवं संपादकीय पृष्ठ उस विचारधारा के इश्तिहार बन जाने चाहिए?
देश में बहुत कम ऐसे संपादक होंगे, जो अपनी संपादकीय नीति से इतर मत रखनेवाले लेखकों को भी छापते होंगे. बाकी जगहों पर तो देखा जाता है कि केवल एक ही विचार की बात और उसी विचार के रंग में रंगे समाचार छापे जाते हैं. अपनी बात अपने संपादकीय में लिखना और उससे भिन्न मत को संपादकीय पृष्ठ पर छापना, इसके लिए आज के समय में साहसी संपादकों की आवश्यकता होती है.
दुख इस बात का है कि अब देशद्रोह और देशभक्ति पर भी बहस की जरूरत समझी जाती है. जिस दिन पूरा देश नम आंखों से सियाचिन के वीर हनुमंथप्पा को विदाई दे रहा था और सबके अधरों पर जयहिंद था, उस दिन यदि किसी विश्वविद्यालय में ‘भारत की बरबादी तक जंग करेंगे’ तथा ‘हर घर से अफजल निकलेगा’ जैसे नारे लगें, तो इसे क्या कहा जायेगा? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता?
और जो आज कह रहे हैं कि वे भारत के संविधान को मानते हैं, उन्होंने देश के संविधान को तोड़नेवाले उन छात्रों के खिलाफ क्या कदम उठाया? क्या उनके बारे में इन संविधान समर्थक छात्रों ने विश्वविद्यालय प्रशासन को रिपोर्ट की थी?
क्या ऐसा करना उनका कर्तव्य नहीं था? हर बार देश विरोधी गतिविधियों के कारण ही जेएनयू चर्चा में क्यों आता है? कारगिल युद्ध के समय इन्हीं वामपंथी छात्र संगठनों ने पाकिस्तानी शायरों को बुला कर भारतीय सेना के विरुद्ध आपत्तिजनक शायरी होने दी थी, जिसका वहां उपस्थित दो सैनिक अधिकारियों ने विरोध किया, तो छात्रों ने उन पर हमला बोल दिया था, तब उनमें से एक मेजर ने पिस्तौल से हवाई फायर कर जान बचायीथी. इसी प्रकार दंतेवाड़ा में मारे गये सुरक्षा सैनिकों की मृत्यु पर ‘माओवादी विजय’ का जेएनयू में जश्न मनाया गया.
गत 9 फरवरी को भी जो पोस्टर विश्वविद्यालय की दीवारों पर चिपकाये गये, उनमें लिखा था कि कश्मीर पर कब्जे के विरुद्ध एवं कश्मीर की आजादी के आंदोलन के समर्थन में शाम को सभा होगी. कश्मीर पर किसका कब्जा है, यह क्या बताया जायेगा? सैनिकों का अपमान और भारत की एकता पर अाघात क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अंतर्गत आयेंगे? क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और देश विरोधी वक्तव्यों में अब कोई अंतर नहीं करना चाहिए?

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