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लिखने-पढ़ने का व्यवसाय क्यों नहीं!

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सत्य प्रकाश भारतीय स्वतंत्र लेखक जब तक लोग पढ़ेंगे नहीं तब तक लिखेंगे नहीं. हां! लोग लिखने के लिए पढ़ेंगे. अधिक से अधिक किताबें छपवाने के लिए लोगों को लिखने के लिए ही प्रेरित करना होगा. हर पढ़े-लिखे आदमी को कम-से-कम एक किताब तो लिखना ही होगा. मैं यह नहीं कह रहा हूं कि लिखना […]

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सत्य प्रकाश भारतीय

स्वतंत्र लेखक

जब तक लोग पढ़ेंगे नहीं तब तक लिखेंगे नहीं. हां! लोग लिखने के लिए पढ़ेंगे. अधिक से अधिक किताबें छपवाने के लिए लोगों को लिखने के लिए ही प्रेरित करना होगा. हर पढ़े-लिखे आदमी को कम-से-कम एक किताब तो लिखना ही होगा. मैं यह नहीं कह रहा हूं कि लिखना चाहिए, बल्कि यह कह रहा हूं कि लिखना ही होगा.

हर किसी की जिंदगी में ढेरों संघर्ष होते हैं. जब आदमी इतने संघर्षों में अपना जीवन बचाये रख सकता है, तो क्या उसे हक नहीं कि वह उसका दस्तावज तैयार कर रख सके. सवाल है कि कौन पढ़ेगा उसे? क्यों! सबसे पहले तो उसके अपने पढ़ेंगे. उनकी आनेवाली पीढ़ियां पढ़ेंगी. हां! यह हो सकता कि वह ख्यातिलब्ध लेखक न बन सके, मगर वह लिख तो सकता ही है. क्योंकि वह परेशानियों से गुजर कर ही एक मुकाम पर पहुंचा है.

अब यह सवाल सताता है कि कैसे लिखें? उसे चिंता सताती है कि वह लिखेगा तो गलतियां करेगा. उन गलतियों पर लोग हंसेंगे, इसलिए वह नहीं लिखेगा. उसके अपने ही हंसेंगे. तो क्या इसीलिए वह लिखेगा ही नहीं.

क्यों? वह लिख कर तो किसी प्रोफेशनल से भी तो दिखा सकता है या अपनी बातें किसी जानकार से सही-सही लिखवा सकता है. कितने पढ़े-लिखे लोग बेरोजगार हैं, जो लिख सकते हैं, मगर उनको भी दो जून की रोटी नहीं मिलती है. या फिर उसे पेट के लिए दूसरा काम करना पड़ता है और उनका लिखना शौक में चला जाता है या साहित्य-सेवा या समाज-सेवा में चला जाता है.

फेसबुक के संस्थापक मार्क जुकरबर्ग ने दिल्ली में कहा था कि दस लोग अगर इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं, तो एक आदमी को रोजगार मिल जाता है. ठीक उसी तरह से सौ लोग अगर साहित्य लिखेंगे और पढ़ेंगे, तो क्या एक आदमी को रोजगार नहीं मिलेगा? जरूर मिलेगा!

एक रिटायर्ड आदमी अपनी सारी जमा-पूंजी घर, बच्चों की शादी आदि में खर्च करता है, तो क्या उसे अपने जीवन के अच्छे-बुरे अनुभवों को कलमबद्ध नहीं करना चाहिए? इस तरह वह आनेवाली पीढ़ी को बता सकता है कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं, और वह किन संघर्षों से आगे बढ़ा है. इस तरह वह कुछ को रोजगार दे सकता है और साथ ही साहित्य सेवा भी कर सकता है.

पहले कोई भी किताब छपवाने के लिए प्रकाशकों की खुशामद करनी पड़ती थी. क्योंकि उन्हें किताबों के न बिकने का डर था. पहले किताबें एक-दो की मात्रा में नहीं छपती थीं. मगर अब आप चाहें, तो एक किताब भी उसी गुणवत्ता के साथ छप सकती है, वह भी ऑनलाइन घर बैठे बिना किसी प्रकाशक का चक्कर लगाए. खुद टाइप कर सकते हैं, तो कीजिए, न हो तो किसी बेरोजगार को रोजगार देकर टाइप करवाएं और पुस्तक छपवाने के लिए प्रिंट ऑन डिमांड (पीओडी) पर भेज दीजिए.

इसे अपनों में तो भेजें और कुछ उनकी भी पढ़ें. खाना-पीना पहनना और शौक का सामान ऑनलाइन खरीदी-बेची जा रही है, तो किताबें क्यों नहीं? किताबों का व्यवसाय क्यों नहीं! लिखने-पढ़ने का व्यवसाय क्यों नहीं!

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