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अलविदा लाल किला कवि सम्मेलन!

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डॉ बुद्धिनाथ मिश्र वरिष्ठ साहित्यकार इस बार स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर लाल किले पर हिंदी कवि सम्मेलन का आयोजन नहीं हुआ. इस प्रकार राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित होनेवाली एक साहित्यिक परंपरा एक झटके में समाप्त हो गयी. दिल्ली को आधे राज्य का दर्जा दिये जाने के बाद यह आयोजन दिल्ली सरकार करती रही है […]

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डॉ बुद्धिनाथ मिश्र
वरिष्ठ साहित्यकार
इस बार स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर लाल किले पर हिंदी कवि सम्मेलन का आयोजन नहीं हुआ. इस प्रकार राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित होनेवाली एक साहित्यिक परंपरा एक झटके में समाप्त हो गयी. दिल्ली को आधे राज्य का दर्जा दिये जाने के बाद यह आयोजन दिल्ली सरकार करती रही है और इस समय दिल्ली सरकार जिनके हाथों में है, उनसे यही उम्मीद भी थी.
नेहरू के समय से चली आ रही एक प्रतिष्ठाजनक परंपरा अनुभवहीन, निरंकुश और अल्पप्राण नेताओं के दंभ की शिकार हो गयी. पिछले वर्ष तक हिंदी के अलावा अन्य भाषाओं के कवि सम्मेलन भी नियमित रूप से होते थे. दिल्ली सरकार की विभिन्न भाषाओं की अकादमियां स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस के एक सप्ताह पहले से क्रमश: मैथिली-भोजपुरी, हिंदी, उर्दू, संस्कृत, सिंधी और पंजाबी के कवि सम्मेलन नगर के विभिन्न स्थानों पर आयोजित करती रहीं.
इनमें हिंदी कवि सम्मेलन और उर्दू मुशायरा लाल किले के प्रांगण में होते थे. अन्य भाषाओं के कवि सम्मेलन फिक्की, श्रीराम भारतीय कला केंद्र, हिंदी भवन, आजाद भवन आदि सभागारों में होते थे. इस प्रकार मुख्य स्वातंत्र्य पर्व आने के एक सप्ताह पहले से दिल्लीवासियों की हर शाम साहित्यिक रंगों में रंग जाती थी.
इस बार दिल्ली सरकार ने पहले तो तीन दिनों का ‘स्वराज पर्व’ के आयोजन की घोषणा की; फिर प्रतिकूल मौसम और पर्याप्त संख्या में पुलिस बल न मिलने का बहाना कर सारा कार्यक्रम रद्द कर दिया. इस प्रकार दिल्ली में केंद्र सरकार स्वतंत्रता दिवस मनायेगी, अन्य सभी राज्यों की सरकारें भी स्वतंत्रता दिवस मनायेंगी, लेकिन दिल्ली सरकार स्वतंत्रतापूर्वक आराम करेगी.
जहां तक मौसम की बात है, पावस ऋतु में वर्षा नहीं होगी, तो क्या बैसाख में होगी? न जाने कितनी बार लाल किले पर देश-विदेश के विशिष्टजन छाता ओढ़ कर प्रधानमंत्री का भाषण सुनते रहे हैं. लेकिन इस बार अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदीजी बादलों को अपनी बातों में उलझा लें, तो और बात है.
जहां तक पुलिस बल का केंद्र सरकार के आयोजनों में व्यस्त रहने का प्रश्न है, वह भी हमेशा ही रहेगा. तो क्या केजरीवाल सरकार स्वतंत्रता दिवस मनायेगी ही नहीं या किसी और मास में (मसलन मार्च-अप्रैल) अपना स्वतंत्रता दिवस मनायेगी, जिससे वर्षा की आशंका भी न हो और दिल्ली पुलिस भी केंद्र की सेवा से फरागत में रहे? इसी तरह, गणतंत्र दिवस भी उस समय पड़ता है, जब दिल्ली में कड़ाके की ठंढ पड़ती है.
लोग मफलर बांध कर पहुंचते हैं. अब दिल्ली का लड्डू जो खा रहे हैं, वे भी पछता रहे हैं और जो नहीं खा पाये, उन्हें तो पछताना ही था. सो, बहुत संभव है कि दिल्ली सरकार के मंत्री भयंकर शीत का पूर्वानुमान कर गणतंत्र दिवस को भी टरका दें. उन्हें इन राष्ट्रीय पर्वो में कोई रुचि नहीं है, जिसे वे गाहे-बगाहे जन-कल्याणार्थ उद्घोषित करते भी रहे हैं.
लाल किले पर स्वतंत्रता दिवस कवि सम्मेलन की परंपरा देश में गणतांत्रिक व्यवस्था लागू होने के तत्काल बाद ही शुरू हुई थी. उस समय पंडित जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री थे, जिनके बारे में यह प्रसिद्धि थी कि वे अगर राजनेता न होते थे, तो अग्रणी साहित्यकार होते.
उन दिनों मैथिली शरण गुप्त, रामधारी सिंह दिनकर, सोहनलाल द्विवेदी जैसे राष्ट्रीय चेतना के मूर्धन्य कवि मौजूद थे, जिनकी ओजस्वी वाणी ने स्वतंत्रता संग्राम में आग में घी का काम किया था. पंडित नेहरू स्वयं सदल-बल लाल किले के कवि सम्मेलन में उन मूर्धन्य महाकवियों को सुनने आते थे. आकाशवाणी के सभी केंद्र उसका सीधा प्रसारण करते थे.
गणतंत्र दिवस के मौके पर आकाशवाणी का अपना ‘सर्वभाषा कवि सम्मेलन’ भी होता था, जिसमें पढ़ी गयी कविताओं का अन्य भाषाओं में काव्यानुवाद उस भाषा के प्रतिष्ठित कवियों द्वारा कराया जाता था, जो मूल काव्यपाठ के साथ प्रसारित होता था. 1991 में मुङो हिंदी के प्रतिनिधि कवि के रूप में कलकत्ता से दिल्ली बुलाया गया था.
दर्शकदीर्घा में श्री अटल बिहारी वाजपेयी बैठे थे, जिन्होंने बाद में मंच पर आकर मेरे काव्यपाठ को सराहा. वे राजनेता के अलावा स्वयं कवि थे, इसलिए उनका पीठ थपथपाना मेरे लिए काफी रोमांचक था. साहित्य और राजनीति का वह अन्योन्याश्रय संबंध उस पीढ़ी के साथ ही खत्म हो गया.
लाल किला कवि सम्मेलन की ही एक घटना की चर्चा आज भी काव्यमंचों पर होती रहती है. एक बार कवि सम्मेलन के मंच पर चढ़ते समय नेहरूजी के पांव लड़खड़ा गये. उनके पीछे दिनकरजी थे, जिन्होंने उन्हें तुरंत संभाल लिया.
नेहरूजी ने उन्हें धन्यवाद दिया. दिनकरजी तपाक से बोल पड़े- ‘इसमें धन्यवाद की कोई बात नहीं है. राजनीति जब-जब लड़खड़ाती है, साहित्य उसे संभाल लेता है’. आज सोचता हूं, पिछली आधी सदी में साहित्य की हैसियत कितना नीचे चली गयी है, खासकर हिंदी प्रदेश में! सर्जक से बड़ा कद समीक्षक का हो गया है.
उसने अपनी सृष्टि रच कर अपंगों के गांव बसाये और उन्हें ही पूर्णमानव कह कर प्रचारित किया. नतीजा, आज कोई भी रचनाकार यह दावा नहीं कर सकता कि वह या उसका साहित्य राजनीति के लड़खड़ाने पर उसे संभाल सकता है. क्योंकि वह जमीन से जुड़ा नहीं है.
जमीन से जुड़े, जनता के बीच अपनी कविता को जीनेवाले साहित्यकार दबंगों द्वारा घर से निकाल दिये गये हैं. वे न पाठ्यपुस्तकों में हैं, न साहित्यिक चर्चाओं में. आकाशवाणी और दूरदर्शन दो दशक पहले तक उन्हें संबल देते थे, मगर प्रसार भारती बनने के बाद वे खुद सड़क पर आ गये हैं.
वैसे लाल किला कवि सम्मेलन की यह मौत आकस्मिक नहीं है. वह बीमार कई दशकों से था. बहुत आग्रह पर दो-एक बार मैं उसमें गया भी, मगर बहुत निराश होकर लौटा. वहां जब से श्रोता शराब पीकर हास्य कविता का मजा लेने आने लगे, तभी से यह आयोजन राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक नहीं रहा. कई बार तो कवियों और श्रोताओं के बीच हाथापाई की नौबत भी आ गयी थी.
जनवरी की आधी रात में ‘न्यून से किंचित अल्प’ दक्षिणा का लिफाफा लेकर जब परिसर से निकलिए और आपके पास वाहन न हो, तो सारा लाल किला कवि सम्मेलन भीतर घुस जाता है. पूरे कवि सम्मेलन में दो ही तरह की ‘कविताएं’ होती हैं. या तो लोगों के मनोरंजन के लिए सिलसिलेवार लतीफे सुनाये जाते हैं या अतिसामान्य शब्दों की नींद-तोड़क चीख से पाकिस्तान का अस्तित्व दुनिया के नक्शे से मिटाया जाता है.
इसीलिए अब उसका सीधा प्रसारण न कर केवल झलकियां मीडिया में दिखा दी जाती थीं. उत्तरोत्तर गिरावट के कारण इस कवि सम्मेलन में भी आप उन्हीं को पायेंगे, जो निजी चैनलों पर पाये जाते हैं. वर्षो से कराह रहे इस शाहजहां का मर जाना ही श्रेयस्कर था.

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