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संसद की गरिमा का सवाल

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विश्वनाथ सचदेव वरिष्ठ पत्रकार सदन में विपक्ष द्वारा उत्पन्न किये गये बारंबार गतिरोध के चलते संसद का मॉनसून सत्र लगभग धुल गया. लोकसभा और राज्यसभा दोनों में विपक्ष द्वारा पहले इस्तीफा, फिर काम का नारा लगता रहा. इसलिए लोकसभा अध्यक्ष सुमित्र महाजन को कहना पड़ा कि 40 सांसद 440 सांसदों को काम नहीं करने दे […]

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विश्वनाथ सचदेव
वरिष्ठ पत्रकार
सदन में विपक्ष द्वारा उत्पन्न किये गये बारंबार गतिरोध के चलते संसद का मॉनसून सत्र लगभग धुल गया. लोकसभा और राज्यसभा दोनों में विपक्ष द्वारा पहले इस्तीफा, फिर काम का नारा लगता रहा.
इसलिए लोकसभा अध्यक्ष सुमित्र महाजन को कहना पड़ा कि 40 सांसद 440 सांसदों को काम नहीं करने दे रहे. उन्होंने लोकसभा टीवी को यह आदेश भी दिया था कि वह प्रदर्शनकारी सांसदों का व्यवहार देश की जनता को दिखाये, ताकि जनता भी जाने कि उसके प्रतिनिधि संसद में किस तरह का व्यवहार करते हैं.
संसद के एक पूरे सत्र का इस तरह निर्थक हो जाना, सचमुच, चिंता की बात है, और शर्म की बात भी.अपने व्यवहार के लिए सत्तारूढ़ दल के ‘संख्या-बल के घमंड’ को दोषी ठहराते हुए कांग्रेस और विपक्ष के कुछ अन्य दल यह भी तर्क दे रहे हैं कि जब भाजपा विपक्ष में थी, तब वह भी वही सब कर रही थी, जो आज कांग्रेस कर रही है. यह बात गलत नहीं है. तब भाजपा के वही नेता, जो आज मंत्री हैं, यह तर्क देते थे कि सदन में ऐसे प्रदर्शन जनतांत्रिक प्रणाली का हिस्सा हैं!
प्रदर्शन, धरने, बहिर्गमन आदि ‘हथियार’ जनतांत्रिक-लड़ाई का हिस्सा हो सकते हैं, पर इस बात पर तो विचार होना ही चाहिए कि क्या इन हथियारों का सीमा-हीन प्रयोग जनतांत्रिक कार्य-प्रणाली को कमजोर नहीं बना रहा? राजनीतिक दलों की जिद के चलते संसद का पूरा सत्र न चले, इसे किसी भी दृष्टि से उचित नहीं ठहराया जा सकता. संसद विचार-विमर्श का मंदिर है, नारेबाजी के लिए सड़कें हैं.
जनतंत्र में दोनों की अपनी उपयोगिता है. लेकिन, स्वयं को जनतंत्र का पहरेदार कहनेवाले राजनीतिक दलों को समझना होगा कि उनके स्वार्थ देश के हितों के ऊपर कभी नहीं हो सकते. कुछ भी कारण रहे हों, संसद के काम-काज को लगातार न होने देना, एक गुनाह है. संसद की कार्यवाही पर करोड़ों रुपये खर्च होते हैं. सवाल इस खर्च का नहीं है, बल्कि जनतांत्रिक मूल्यों और मर्यादाओं की रक्षा का है.
राजनीतिक स्वार्थो के लिए इन मूल्यों और मर्यादाओं की बलि देना ऐसा अपराध है, जिसकी क्षमा नहीं मिलनी चाहिए. फिर भी देश से क्षमा मांगना कांग्रेस-भाजपा दोनों का दायित्व बनता है. इस बारे में संसद के दोनों सदनों को मिल-बैठ कर यह सोचना होगा कि क्या किया जाये, ताकि संसदीय मर्यादाएं भी बनी रहें और राजनीतिक जरूरतों को पूरा करने का रास्ता भी मिल सके.
देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने ‘नियति से साक्षात्कार’ की बात कही थी और अपने कार्यकाल में उन्होंने सदन में विपक्ष की महत्ता को भी लगातार रेखांकित किया था. एक मजबूत और उत्तरदायी विपक्ष जनतंत्र की सफलता की एक शर्त है. यह स्थिति तभी बन सकती है, जब सत्तारूढ़ पक्ष और विपक्ष दोनों जनतंत्र की सफलता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता का प्रमाण दें.
जनतंत्र की सफलता हमारी नियति है, इस नियति के साक्षात्कार तभी संभव हैं, जब सभी पक्ष ईमानदारी के साथ इस दिशा में काम करें. वैयक्तिक महत्वाकांक्षाएं नहीं, राष्ट्र की आवश्यकताएं; राजनीतिक दलों के स्वार्थ नहीं, राष्ट्रीय हित जनतंत्र की सफलता की शर्ते हैं.
ये आवश्यकताएं और ये हित ही हमारी राजनीति की प्राथमिकता होनी चाहिए. हमारे जनप्रतिनिधियों को समझना होगा कि उन्हें इस देश की जनता के हितों का ट्रस्टी चुना गया है, उनका हर कार्य इसी कसौटी पर कसा जायेगा. यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि हमारे जनप्रतिनिधियों का आचरण इस कसौटी पर खरा नहीं उतर रहा.
संसद के दोनों सदनों में, काम न हो पाने का मतलब यह नहीं है कि हमारी जनतांत्रिक व्यवस्था में कोई खोट है, खोट हमारी राजनीति के तथाकथित पहरेदारों की सोच में है. सत्ता के लिए नहीं, सेवा के लिए होनी चाहिए राजनीति. गांधी ने इसी राजनीति की वकालत की थी. हमने राजनीति को सत्ता-सुख भोगने का माध्यम मान लिया. जब यह सोच बदलेगी, तभी राजनीतिक दल एक-दूसरे को समझने की आवश्यकता और महत्ता को समङोंगे.
हर राजनीतिक दल की अपनी सोच होती है, अपनी नीति होती है, रीति होती है. पर इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि दूसरे की रीति-नीति, दूसरे की सोच कुछ मानी नहीं रखती. सबको अधिकार है कि वे अपनी सोच के साथ मतदाता के सामने जायें.
भाजपा को पांच साल तक अपनी नीति के अनुसार शासन करने का अवसर मिला है. विपक्ष का दायित्व है कि वह उसके काम-काज पर नजर रखे. जो गलत दिख रहा है, उसकी ओर जनता का ध्यान दिलाये. अपनी नीतियों के समर्थन और सत्तारूढ़ दल की विफलताओं के संदर्भ में जनमत जुटाये.
जनतंत्र की सफलता का तकाजा है कि देश में सरकार और विपक्ष, दोनों, मजबूत हों. यह मजबूती संख्या-बल की नहीं, सोच की होनी चाहिए. तभी वह स्थिति बनेगी जब हमारी संसद का काम देखने बाहर से आये किसी प्रतिनिधिमंडल को हंसने का मौका नहीं मिलेगा.

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