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पारदर्शिता से परहेज

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लोकतंत्र विधि आधारित शासन है, इसलिए इस राजनीतिक व्यवस्था में विधि से सबको बंधना होता है. लेकिन अकसर जो नियामक है, वह सोचता है, नियम तो मैंने ही बनाये हैं, सो मैं क्यों अपने बनाये नियम से बंधूं? सूचना के अधिकार (आरटीआइ) कानून को लेकर राजनीतिक दलों और नागरिक संगठनों के बीच जारी रस्साकशी में […]

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लोकतंत्र विधि आधारित शासन है, इसलिए इस राजनीतिक व्यवस्था में विधि से सबको बंधना होता है. लेकिन अकसर जो नियामक है, वह सोचता है, नियम तो मैंने ही बनाये हैं, सो मैं क्यों अपने बनाये नियम से बंधूं? सूचना के अधिकार (आरटीआइ) कानून को लेकर राजनीतिक दलों और नागरिक संगठनों के बीच जारी रस्साकशी में कमोबेश यही होता दिख रहा है. नागरिक संगठन चाहते हैं कि राजनीतिक दल खुद को जनता के प्रति जवाबदेह मानते हुए आरटीआइ से बांध लें, पर दलों को लगता है कि आरटीआइ अन्य सार्वजनिक संस्थाओं के लिए भले हो, उनके लिए कदापि नहीं है.

इस रस्साकशी में अब एक नया मोड़ आया है. एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) नामक स्वयंसेवी संस्था की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने छह पार्टियों से पूछा है कि उन्हें आरटीआइ के दायरे में क्यों नहीं बंधना चाहिए? राजनीतिक दलों को आरटीआइ के दायरे में लाने की लड़ाई में दो साल पहले एक अहम मोड़ आया था, जब नागरिक संगठनों की पहल पर केंद्रीय सूचना आयोग ने कहा था कि राजनीतिक दल सार्वजनिक प्राधिकरण हैं, इसलिए उन्हें आरटीआइ के दायरे में बंधते हुए आय-व्यय का ब्योरा सार्वजनिक करना चाहिए. आयोग के इस फैसले को नकारने के लिए दलों ने उस वक्त तर्क दिया था कि वे न तो सरकारी संस्था हैं और ना ही सरकार से स्वतंत्र कोई सार्वजनिक प्राधिकरण, इसलिए आरटीआइ कानून उन पर लागू ही नहीं हो सकता. केंद्रीय सूचना आयोग के फैसले को नकारने के लिए सभी प्रमुख पार्टियां एकजुट हो गयी थीं और लड़ाई को नागरिक संगठनों के हाथ से हमेशा के लिए छीन लेने की मंशा से संसद में एक संशोधन विधेयक भी लाया गया, ताकि पार्टियों को आरटीआइ के दायरे से बाहर रखा जा सके. अधिकार क्षेत्र सीमित होने के कारण केंद्रीय सूचना आयोग तब अपना फैसला दलों से मनवा नहीं सका था, पर राजनीतिक दलों को सार्वजनिक प्राधिकरण करार देने के उसके तर्क बहुत पैने थे. मुख्य सूचना आयुक्त के पद से रिटायर हुए सत्यानंद मिश्र ने एक साक्षात्कार में आयोग के फैसले को जायज ठहराते हुए कहा था कि भारत का आरटीआइ कानून बहुत व्यापक है और उसमें सूचना क्या है, सार्वजनिक प्राधिकरण किसे कहते हैं, जैसे प्रश्नों की सुस्पष्ट व्याख्या है.

जब कानून बन रहा था, सरकार की पहल पर ऐसे स्वयंसेवी संगठनों को भी सार्वजनिक प्राधिकरण के रूप में चिह्न्ति किया गया था, जिन्हें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सरकारी वित्तीय सहायता मिलती हो. सत्यानंद मिश्र का तर्क था कि राजनीतिक दल सरकारी संस्था नहीं होते, परंतु उनका पंजीकरण स्वयंसेवी संस्था की कोटि में ही होता है, यहां तक कि आरटीआइ कानून में कॉरपोरेट घराने को भी स्वयंसेवी संस्था माना गया है. सीआइसी ने राजनीतिक दलों को सरकार द्वारा प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से वित्तीय सहायता पानेवाली स्वयंसेवी संस्था मान कर ही उन्हें सार्वजनिक प्राधिकरण करार दिया था. दलों को सरकार से ऑफिस, जमीन, सरकारी संचार माध्यमों पर फ्री एयरटाइम आदि तो मिलता ही है, चंदे के रूप में हासिल रकम पर आयकर अधिनियम के तहत छूट भी मिलती है. मिसाल के लिए 2006 से 2009 के बीच कांग्रेस को 300 करोड़, जबकि भाजपा को 141.25 करोड़ रुपये की टैक्स छूट हासिल हुई.

अगर चंदा बीस हजार रुपये से ज्यादा का नहीं है, तो उन्हें आयकर विभाग को चंदे का स्नेत बताने की वैधानिक बाधा नहीं है. इस स्थिति का लाभ उठाते हुए दलों ने अपनी आय के स्नेत का खुलासा करने में कभी पारदर्शिता नहीं बरती. एडीआर ने अपने हालिया अध्ययन में पाया है कि राजनीतिक दलों को हासिल 20 हजार रुपये से अधिक के चंदे की मात्र उनको कुल हासिल चंदे का महज नौ प्रतिशत (435.85 करोड़ रुपये) है. ज्ञात स्नेतों से दलों को आय का सिर्फ 16 प्रतिशत यानी 785.60 करोड़ रुपये हासिल हुए, जबकि अज्ञात स्नेतों से कुल 75 प्रतिशत यानी 3674.50 करोड़ रुपये हासिल हुए.

इतनी बड़ी रकम के स्नेत का पता न होना लोकतंत्र के भीतर जनमत निर्माण से लेकर कानून बनाने तक में महत्वपूर्ण भूमिका निभानेवाले राजनीतिक दलों को संदेहास्पद बनाता है. आशंका जतायी जाती रही है कि दलों को फंड देनेवाले अज्ञात बने रह कर सरकार की नीति और जनमत दोनों को अपने पक्ष में मोड़ सकते हैं. ऐसे में बड़े पैमाने के भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलेगा और खतरा पैदा होगा कि लोकतंत्र ‘जनता के द्वारा, जनता के लिए, जनता की सरकार’ न रह कर, मोटा चंदा देनेवाले कुछ धनकुबेरों की मनमानी का कार्य-व्यापार न बन जाये. अब आरटीआइ के बारे में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर राजनीतिक दलों का रुख और उस पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला तय करेगा कि एक लोकतंत्र के रूप में भारत जनता के प्रति जवाबदेही और पारदर्शिता की राह पर आगे बढ़ेगा या नहीं.

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