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सिर्फ भूखा रहना रोजा नहीं है

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शहजाद पूनावाला अधिवक्ता एवं ब्लॉगर भारत में मुसलमानों ने रोजे रखने शुरू कर दिये हैं, लेकिन इस बात पर दो राय है कि इस पवित्र महीने को रमजान कहा जाये या रमदान. दरअसल, यह केवल अरबी और उर्दू भाषा के कुछ अक्षरों के उच्चारण का फर्क है. भारतीय उपमहाद्वीप में रमजान ही कहा जाता रहा […]

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शहजाद पूनावाला
अधिवक्ता एवं ब्लॉगर
भारत में मुसलमानों ने रोजे रखने शुरू कर दिये हैं, लेकिन इस बात पर दो राय है कि इस पवित्र महीने को रमजान कहा जाये या रमदान. दरअसल, यह केवल अरबी और उर्दू भाषा के कुछ अक्षरों के उच्चारण का फर्क है. भारतीय उपमहाद्वीप में रमजान ही कहा जाता रहा है, लेकिन कुछ वर्षो में रमदान शब्द का इस्तेमाल बढ़ा है. पर बात उच्चारण की नहीं, नीयत की है.
उर्दू में रोजे कहिये या अरबी में सौम. मकसद सिर्फ इतना है कि मुसलमान केवल पूरे दिन खाना-पानी से दूर रह कर भूखे न रहे, बल्कि एक-दूसरे के प्रति सेवा भाव और उदारता दिखाये. खाने से ही नहीं, बल्कि शराब, धूम्रपान, सेक्स, गुस्सा, गाली-गलौज, चुगली, नापाक इरादों से भी परहेज करे. आत्मनियंत्रण विकसित करे और ज्यादा समय नमाज अदा करने में, कुरान पाक पढ़ कर उस पर अमल करने में और अल्लाह के दिखाये गये सही रास्ते पर चलने में खर्च करे. इम्तिहान है यह खुद का खुद से, भूखा रहना रोजा नहीं है. रोजा हमें गरीबों की भूख और प्यास का एहसास कराता है.
रमदान या रमजान इसलामी या हिजरी कैलेंडर का नौवां महीना है और सबसे पाक माना जाता है. कुरान पाक (2:185) में ही फरमाया गया है कि रमदान के महीने में ही कुरान पाक नाजिल हुई थी और केवल कुरान ही नहीं बल्कि तोराह, साल्मस, गॉस्पेल जैसी कई धार्मिक ग्रंथों का रहस्योद्घाटन इसी महीने में हुआ था.
सूरज उगने से पूर्व, फज्र की नमाज अदा करने से पहले सुहूर करके, रोजे की शुरुआत कर ली जाती है और सूरज डूबने के समय, मगरिब की नमाज से पहले खजूर खाकर रोजा खोला जाता है. उसके बाद मिल कर इफ्तारी की जाती है. बच्चों से, बीमार लोगों से, गर्भवती महिलाओं से रोजे रखने की अपेक्षा नहीं की जाती है. अगर अनजाने में रोजा टूट जाये या सेहत पर कोई आफत आ जाये और रोजा तोड़ना पड़े, तो उसे अमान्य नहीं समझा जाता है. रोजे रखने के वैसे कई स्वास्थ्य संबंधी फायदे बताये जाते हैं. इससे वजन, ब्लड प्रेशर, शुगर, कोलेस्ट्रोल पर नियंत्रण पाया जा सकता है. कुछ देशों में तो यह स्टडी हुई है कि रमदान के समय अपराध दर कम हो जाती है.
वैसे उपवास या रोजे रखने की प्रथा सिर्फ इसलाम में ही नहीं, बल्कि यहूदी, हिंदू, बौद्ध और ईसाई धर्मो में भी पायी जाती है. हां, इसलाम में इसे बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है, क्योंकि यह इसलाम के पांच स्तंभों में से एक है. इस दौरान हर मुसलमान अपनेआप से एक जिहाद करता है, एक जंग छेड़ता है कि वह एक बेहतर इंसान और एक बेहतर मुसलमान बन सके.
रमजान का अंत होता है ईद उल फित्र से. यह इसलामी कैलेंडर के 10वें महीने यानी शव्वाल की शुरुआत है. इस दिन रोजा नहीं रखा जा सकता है.
ईद उल फित्र मौका है जश्न और खुशी का. सबेरे मसजिद या ईदगाह पर नमाज अदा करने के बाद, नये कपड़े पहनकर अपने दोस्त-संबंधियों से मिलना, बच्चों में ईदी देना और गरीबों को दान-पुण्य करना, यही कार्यक्रम होता है. और इसी के साथ समाप्त होता है दुनियाभर के मुसलमानों का सबसे महत्वपूर्ण महीना. उम्मीद है कि कुछ इसी तरह आगे के तीस दिन भी गुजरेंगे- भक्ति, शील और सेवाभाव में.

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