उर्मिलेश
वरिष्ठ पत्रकार
आजादी के बाद अनेक सरकारों ने अपना पहला साल पूरा किया और कई ने पहले साल में बड़े काम भी किये, लेकिन पहले साल को इस तरह ‘राष्ट्रीय उत्सव’ में बदल कर ‘महा-कवेरज’ का ‘प्रबंध-कौशल’ शायद ही किसी के पास था!राजनेताओं की तरफ से विवादास्पद बयान पहले भी आते रहे हैं, आगे भी आयेंगे. लेकिन, हाल के दिनों में सत्ताधारी नेताओं-मंत्रियों में बेतुके बयान देने की मानो होड़ सी मच गयी है.
इन बयानों का विवाद सिर्फ तर्कहीनता की वजह से नहीं, इनमें लोकतंत्र और हमारी राजनीतिक सामाजिकता का भी निषेध नजर आता है. भगवाधारी नेताओं की बात छोड़िये, पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं-केंद्रीय मंत्रियों के बयान भी निरंतर विवाद पैदा करते आ रहे हैं. हाल में मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी ने जिस तरह का बयान दिया, वह स्तब्ध करनेवाला है.
प्रियंका गांधी वाड्रा ने अमेठी-रायबरेली इलाके में प्रौद्योगिकी प्रशिक्षण संस्थान जल्द खोलने की मांग की, तो स्मृति ने कहा, ‘जीते हुए लोग हारे हुए से मांग कर रहे हैं.’ बीते चुनाव में राहुल के मुकाबले अमेठी में हारने के बाद भी स्मृति बड़े मंत्रलय की प्रभारी मंत्री बनीं. राज्यसभा की वह पहले से सदस्य थीं. मैं न तो प्रियंका का ‘फैन’ हूं, न उनकी राजनीति का प्रशंसक, लेकिन उनकी शिकायती मांग पर स्मृति की टिप्पणी परेशान करती है. इसमें लोकतांत्रिक मिजाज का अभाव है. आज की तारीख में ईरानी मंत्री हैं, इसलिए किसी भी नेता को उनके समक्ष अपनी मांग या शिकायत रखने का अधिकार है.
किसी मांग की आलोचना सिर्फ इसलिए नहीं की जा सकती कि मांग करनेवाले नेता लंबे समय तक सत्ता में रहते हुए अपने क्षेत्र का अपेक्षित विकास क्यों नहीं कर सके?
अमित शाह का बयान देखें-‘बांग्लादेश से आनेवाले हिंदुओं का स्वागत है. वे शरणार्थी हैं.’ यही भाजपा बांग्लादेश से यहां आनेवाले मुसलमानों को ‘घुसपैठिये’ और ‘आतंकी’ कह कर बाहर करने की बात करती रही है. सवाल है कि भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का उक्त बयान हमारे राष्ट्रराज्य की कैसी तसवीर पेश करता है? क्या संविधान-संशोधन के बगैर भारत धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र से ‘हिंदू राष्ट्र’ बन चुका है?
कुछ ही दिनों पहले देश के रक्षा मंत्री मनोहर पर्ाीकर ने कश्मीर में आतंकवाद से मुकाबला करने के नये सरकारी नुस्खे का खुलासा किया. उनके बयान का लब्बोलुवाब था- ‘कश्मीर में आतंकवादियों को खत्म करने के लिए आतंक या आतंकवादियों का सहारा लेंगे या ले रहे हैं.’
इजरायल के रक्षा मंत्री की तरफ से इस तरह का बयान आये, तो बात समझी जा सकती है. क्या हमारी सरकार ने भी इजरायल की तरह अमानवीय, गैर-कानूनी और असंवैधानिक आचरण करने की ठान ली है? क्या वह उग्रवाद और आतंकवाद से निपटने में इस्तेमाल किये जानेवाले अपने तमाम तरह के हथकंडों का औपचारिक और सार्वजनिक ऐलान करने की पक्षधर हो गयी है?
साफगोई कह कर कोई इसकी प्रशंसा भी कर सकता है, लेकिन हमारे राष्ट्र-राज्य की अब तक की प्रतिष्ठा को क्या यह धूमिल नहीं करता? क्या यह विधान-आधारित एक सभ्य-लोकतांत्रिक शासन के बर्बर-सैन्य तंत्र में संतरण के खतरे का संकेत नहीं है? इसकी गारंटी कौन करेगा कि ऐसे निरंकुश-सैन्य हथकंडों का इस्तेमाल देर-सबेर सरकारी नीतियों के खिलाफ आवाज उठानेवाले लोकतांत्रिक आंदोलकारियों के खिलाफ नहीं होगा?
अनेक लोगों ने, यहां तक कि कुछ सेक्युलर विपक्षियों ने भी, केंद्रीय गृह राज्यमंत्री किरण रिजिजू के एक ताजा बयान पर बहुत खुशी जाहिर की. अरुणाचल-निवासी रिजिजू ने अपनी पार्टी के नेता मुख्तार अब्बास नकवी के विवादास्पद बयान को आपत्तिजनक बताते हुए (नेतृत्व से डांट खाने के बाद अब वह ना-नुकुर कर रहे हैं) कहा, ‘मैं गोमांस खाता हूं, मैं अरुणाचल से आता हूं.
क्या कोई मुङो ऐसा करने से रोक सकता है? वैसे राज्य जहां हिंदू बहुसंख्यक हैं, वहां गोहत्या पर प्रतिबंध लगाने का कानून बना सकते हैं.’ इसके कुछ ही दिन पहले एक मीडिया संस्थान के समारोह में राज्यमंत्री नकवी ने गोमांस-प्रतिबंध के अपनी पार्टी के रवैये का पक्ष लेते हुए बड़े उत्तेजक ढंग से कहा, ‘गोमांस खानेवाले पाकिस्तान चले जायें.’ नकवी भाजपा-नीत महाराष्ट्र सरकार द्वारा लागू किये गोमांस-प्रतिबंध को जायज ठहरा रहे थे.
जिन सेक्युलरवादियों ने शुरू में किरण के बयान की तारीफ की, उन्होंने बयान के दूसरे हिस्से को शायद नजरंदाज कर दिया. क्या भारत में कानून बनाने के लिए धर्मावलंबियों की संख्या को आधार माना जायेगा? फिर यह कैसे साबित होगा कि किसी एक धर्म को माननेवाले सारे लोग एक ही तरह का खान-पान करते हैं? सवाल यह भी उठेगा कि गोमांस-प्रतिबंध किसी पार्टी का एजेंडा है या किसी समाज या समुदाय का?
गोमांस पर प्रतिबंध तो भैंस या बैल-बछड़ा मांस पर प्रतिबंध क्यों नहीं? आखिर कोई सरकार एक लोकतांत्रिक समाज में लोगों के खाने-पीने की आदतों का निर्धारण कैसे और क्यों करेगी? नकवी गोमांस खानेवालों को पाकिस्तान भेजने पर आमादा हैं, जबकि रिजिजू पूर्वोत्तर राज्यों में गोमांस खाने की आजादी के साथ महाराष्ट्र में पाबंदी से सहमत हैं. यह कैसा लोकतंत्र है भाई!
मथुरा में दीनदयाल जी के जिस गांव में मोदी जी ने 25 मई को रैली की, वहां पेयजल की भारी किल्लत के बारे में पूछे गये सवाल पर अमित शाह ने कहा कि यूपी में भाजपा की सरकार बनने पर गांव की पानी की समस्या खत्म हो जायेगी. क्या यूपी में रामप्रकाश गुप्ता, कल्याण सिंह और राजनाथ सिंह जैसे भाजपा नेता मुख्यमंत्री नहीं रह चुके हैं? क्या गुजरात और मध्य प्रदेश के गावों में पेयजल संकट हल कर लिया गया है? गुजरात के विकास मॉडल में तो कई शहर भी जलसंकट से ग्रस्त हैं.
ऐसा लगता है कि भाजपा के बड़े नेता जमीनी काम के बजाय बयानों की किलेबंदी से अपनी सत्ता को चाकचौबंद करना चाहते हैं. विवादास्पद बयानों की किलेबंदी का सबसे शीर्ष गुंबद है- दक्षिण कोरिया के सोल में दिया प्रधानमंत्री मोदी का हास्यास्पद बयान. उन्होंने प्रवासी भारतीयों के बीच कहा ‘अब से पहले भारत में पैदा होनेवाले लोग शर्म महसूस करते थे! अब भारतीय होने में लोग गर्व महसूस कर रहे हैं.’
सरकार के पहले साल को पार्टी और उसके शीर्ष नेताओं ने जिस तरह ‘महा-घटना’ के रूप में पेश करके ‘महा-कवरेज’ का प्रबंधन किया, उससे स्पष्ट है कि पार्टी और सरकार का ध्यान ठोस काम पर कम, अपनी मार्केटिंग और आक्रामक प्रचार पर ज्यादा है.
आजादी के बाद अनेक सरकारों ने अपना पहला साल पूरा किया और कई ने पहले साल में बड़े काम भी किये, लेकिन पहले साल को इस तरह ‘राष्ट्रीय उत्सव’ में बदल कर ‘महा-कवेरज’ का ‘प्रबंध-कौशल’ शायद ही कभी किसी के पास था!
नेहरू-शास्त्री-इंदिरा-राजीव-वीपी-मनमोहन की बात छोड़िये, वाजपेयी-नीत एनडीए सरकार सहित किसी भी सरकार के एजेंडे में बयानों की ऐसी किलेबंदी और जलसे शामिल नहीं थे. तो क्या जलसों और बयानों से ही बदलेगा भारत?