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तालिबान को इतना क्रूर किसने बनाया?

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सलीम अख्तर सिद्दीकी तालिबान ने पेशावर में जिस बेरहमी से बच्चों का कत्ल किया है, उसे दुनिया का कोई धर्म या कानून सही नहीं ठहरा सकता. इसमें इंसानियत का कत्ल हुआ है. हमें लगता है कि इसे उन धर्माध तालिबानियों ने अंजाम दिया है, जो खुद को इसलाम का सच्चा पैरोकार मानने का दंभ भरते […]

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सलीम अख्तर सिद्दीकी
तालिबान ने पेशावर में जिस बेरहमी से बच्चों का कत्ल किया है, उसे दुनिया का कोई धर्म या कानून सही नहीं ठहरा सकता. इसमें इंसानियत का कत्ल हुआ है. हमें लगता है कि इसे उन धर्माध तालिबानियों ने अंजाम दिया है, जो खुद को इसलाम का सच्चा पैरोकार मानने का दंभ भरते हैं, पर सवाल यह भी है कि तालिबान को इतना क्रूर बनाया किसने, कि उनके हाथ मासूमों का कत्ल करते हुए नहीं कांपते?
अपने स्वार्थ के लिए भस्मासुर पालना आसान है, लेकिन जब वह ताकतवर हो जाता है, तो उसे खत्म करना उतना ही मुश्किल होता है. तालिबान को कभी अमेरिका ने अपने स्वार्थ की खातिर खड़ा किया था. 1978 में जब सोवियत संघ ने अफगानिस्तान पर कब्जा किया तो उससे लड़ने के लिए अमेरिका ने अफगानिस्तान के मदरसों के विद्यार्थियों को जेहाद का ऐसा पाठ पढ़ाना शुरू किया, जिसका वास्तविक जेहाद से कुछ लेना-देना नहीं था. तालिबान का राक्षस खड़ा करने के लिए पाकिस्तान में ट्रेनिंग कैंप खोले गये. उन कैंपों में सोवियत संघ से लड़ने को ही सबसे बड़ा काम बता कर उनमें इतनी धर्माधता कूट-कूट कर भर दी गयी कि उन्होंने अपना ‘इसलाम’ गढ़ लिया, जिसमें वास्तविक इसलामिक मूल्यों की कोई जगह नहीं थी. अफगानिस्तान पर सोवियत हमले को इसलाम पर हमला बताया गया. इसका नतीजा यह हुआ कि कई मुसलिम देशों के युवा सोवियत सेना के खिलाफ जेहाद करने पहुंचने लगे. अमेरिकी एजेंसी सीआइए ने तालिबान को हथियारों और डॉलर से नवाजा. नतीजा यह हुआ कि अफगानिस्तान और पाकिस्तान अवैध हथियारों से पट गया. सऊदी अरब, इराक आदि ने भी कई तरीकों से तथाकथित मुजाहिदीनों की मदद की.
अमेरिका अपने मकसद में कामयाब हुआ और 1991 में सोवियत संघ टूट गया. इस कामयाबी के लिए अमेरिका ने तालिबान प्रमुख मुल्ला उमर और ओसामा बिन लादेन को सम्मानित किया. लेकिन इसके बाद अमेरिका को तालिबान की जरूरत नहीं रह गयी थी. वह वहां चुनाव करा कर नयी सरकार बनाना चाहता था. लेकिन तब तक तालिबान अफगानिस्तान पर काबिज हो चुका था. उसने वहां अपनी सत्ता कायम करके शरीयत कानून लागू कर दिये. इस सरकार को सऊदी अरब ने सर्मथन दिया. पाकिस्तान ने भी तालिबान सरकार को मान्यता दे दी.
अफगानिस्तान में तालिबान ने शरीयत कानूनों की आड़ में जंगल राज चलाया. उनके शासन में न महिलाएं महफूज रहीं, न बच्चे. स्कूल तो जैसे तालिबान के सबसे बड़े दुश्मन बन गये. इस तरह अमेरिका और कुछ पश्चिमी देशों ने जेहाद का जो बीज अफगानिस्तान में बोया था, उसके पौधे इतने फले-फूले कि उन्होंने पूरी दुनिया में कोहराम मचा दिया. यहां तक कि खुद अमेरिका भी इससे अछूता नहीं रहा.
अमेरिका को गलतफहमी थी कि आतंकवाद का डंक उस तक नहीं पहुंच पायेगा, लेकिन 9/11 ने उसे एहसास कराया कि उसके खुद के पैदा किये भस्मासुर की आग की लपटें उसे भी झुलसा गयीं. यहीं से शुरू हुआ अमेरिका और पश्चिमी देशों का ‘आतंकवाद के खिलाफ युद्ध’. इसकी चपेट में आये अफगानिस्तान व इराक जैसे देश. इस युद्ध से आतंकवाद खत्म नहीं हुआ, बल्कि उसका दायरा बढ़ता गया.
आतंकवाद के खिलाफ युद्ध में पाकिस्तान की नीतियां दोगली रही हैं. वहां की राजनीतिक पार्टियों में तालिबान के लिए हमेशा एक नरम कोना रहा है. हो सकता है कि इसकी सियासी वजह हो, लेकिन क्या महज सियासत के लिए ऐसे लोगों को गले लगाया जा सकता है, जिनका ईमान ही हिंसा हो? (हस्तक्षेप डॉट कॉम से साभार)

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