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दर्शक झारखंडी युवाओं के लिए! सामान्य स्थिति में झारखंड विधानसभा चुनाव फिर पांच वर्षो बाद ही होंगे. तब तक आज के युवा और उम्रदराज होंगे. वयस्क, अधेड़ होंगे. और अधेड़, बूढ़े. समय का पहिया या रथ ठहरता नहीं. इसलिए झारखंड के युवा यह मौका न चूकें, और चुनावों के आईने में अपना भविष्य-भूमिका तलाशें. इसी […]

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दर्शक
झारखंडी युवाओं के लिए!
सामान्य स्थिति में झारखंड विधानसभा चुनाव फिर पांच वर्षो बाद ही होंगे. तब तक आज के युवा और उम्रदराज होंगे. वयस्क, अधेड़ होंगे. और अधेड़, बूढ़े. समय का पहिया या रथ ठहरता नहीं. इसलिए झारखंड के युवा यह मौका न चूकें, और चुनावों के आईने में अपना भविष्य-भूमिका तलाशें. इसी मकसद से झारखंडी युवाओं-युवतियों से सीधा संवाद.
अब तक दुनिया में युवा ही समाज की नियति बदलते रहे हैं. हाल के दौर में चाहे यूरोप में, 1967 में पेरिस के सोरबोन विश्वविद्यालय से शुरू हुआ युवा आंदोलन रहा हो, या पश्चिम देशों की यथास्थिति के खिलाफ हिप्पी आंदोलन हो, या 1966-67 में हुआ भारत का युवा आंदोलन रहा हो. इन आंदोलनों ने देश और दुनिया में यथास्थिति को बदला.
फिर बदलाव के लिए शुरू हुआ गुजरात नवनिर्माण आंदोलन तो स्मृति में है. इसके गर्भ से निकला बिहार आंदोलन, जिसने देश की जड़ राजनीति को हिला दिया. हाल की यात्र में पाया कि यूरोप के युवा फिर उद्वेलित हो रहे हैं. यूरोप में आर्थिक मंदी है. भारी बेरोजगारी है. युवाओं के लिए बढ़ने, पनपने और रोजगार के अवसर नहीं हैं. यूरोप के युवा, अपने पिता की पीढ़ी को इसके लिए जिम्मेदार मान रहे हैं. वे यूरोपीय युवा आज मान रहे हैं कि अधिक से अधिक पेंशन लेना, सामाजिक सुरक्षा लेना, रोजगार गारंटी के श्रम कानूनों का होना, रिटायरमेंट की उम्र का अधिक होने आदि कारणों से रोजगार के नये अवसर नहीं पैदा हो रहे हैं. इसलिए युवाओं को नौकरी नहीं मिल रही है.
युवाओं के इस बगावती तेवर से यूरोप व पश्चिम की राजनीति और समाज दोनों में बेचैनी है. माना जा रहा है कि अगर यह आंदोलन बढ़ा, तो यूरोप की राजनीतिक व्यवस्था को खतरा होगा. समाज में तनाव-टूट बढ़ेगा. फिलहाल भारत की बात छोड़ दें, जहां कई करोड़ नौजवान बेरोजगार हैं. पर झारखंड में तो चुनाव हो रहे हैं. झारखंड की जो स्थिति है, उसकी चर्चा झारखंड के युवाओं से जरूरी है. क्या झारखंड से निकलते युवाओं के लिए कोई भविष्य है?
इस सवाल की तह में उतरने के पहले बेंगलुरु की एक खबर (इकनॉमिक्स टाइम्स – 21.11.2014) पढ़ें. दुनिया के खुदरा बाजार (नया युद्ध क्षेत्र) यानी ग्लोबल रिटेल मार्केट के बीच, तकनीकी युद्ध, बेंगलुरु केंद्र से संचालित होगा. इसका अर्थ और साफ तरीके से समझें. दुनिया की अर्थव्यवस्था अब एकसूत्र में बंध गयी है. ग्लोबल हो गयी है. 1991 में कांग्रेस के द्वारा शुरू की गयी नयी अर्थनीति को, बाद की सभी सरकारों या दलों ने स्वीकारा. झारखंड भी इसी ग्लोबल इकॉनमी का हिस्सा है. आज कर्नाटक इसी अर्थव्यवस्था का हिस्सा रहते हुए आइटी सेक्टर से अपार धन या डॉलर कमा रहा है? पूरे भारत समेत दुनिया भर के युवा, वहां कैसे कामकाज कर रहे हैं?
क्योंकि बेंगलुरु में पढ़ने की अनेक संस्थाएं हैं. तकनीक प्रबंधन से लेकर बायोटेक वगैरह के सर्वश्रेष्ठ संस्थान हैं. जहां कई कंपनियां जाकर, युवाओं को लाखों-करोड़ों की नौकरी का ऑफर देती हैं. जहां बड़े-बड़े ट्रक रोजाना सड़कों पर घूमते मिलते हैं, जिनमें नौकरियों के लिए विज्ञापन लगे रहते हैं. ‘वाक इन फॉर इंटरव्यू’. एक तरफ वहां रोजगार की भरमार है, दूसरी तरफ झारखंड में मामूली रोजगार के लिए तरसते युवा हैं. कभी सोचा है आपने कि इसके लिए जिम्मेदार कौन है? अगर आप युवक नहीं सोचेंगे, तो झारखंड के नेता, शासक, सरकारें, राजनीतिक दल या पार्टियां जो कुछ करती रही हैं, उनसे साफ है कि यहां न रोजगार के आसार हैं, न बेहतर भविष्य की.
आपने खबर पढ़ी होगी. झारखंड के एक पूर्व युवा मंत्री की सौ करोड़ की संपत्ति, इडी ने जब्त की है. हकीकत यह है कि यह मंत्री पकड़ लिये गये. पर जो बचे लोग हैं, जो अपने को साथ-सुथरा और बेहतर मानते हैं, उनकी सही-सही जांच हो जाये, तो इस राज्य के अनेक नेता, कई हजार करोड़ के मालिक निकलेंगे.
दिल्ली के हिंदुस्तान टाइम्स (24.11.2014) की एक खबर पढ़ी. झारखंड के एक मंत्री की कुल संपत्ति 2009 में 2.7 करोड़ थी, 2014 में बढ़ कर 11.4 करोड़ हो गयी. 25 फीसदी की बढ़ोतरी. राजनीति से बेहतर रिटर्न का धंधा और कोई है? किसी आम झारखंडी की आय में 23 फीसदी की वृद्धि इस अवधि (2009 से 2014) के बीच हुई है? और ये लोग राजसत्ता की सुरक्षा (पुलिस गार्ड वगैरह) में जीते और रहते हैं. इनके रहन-सहन पर सरकार का करोड़ों का खर्च है. अगर ऐसी खबरें पढ़ कर भी, व्यवस्था बदलने का सात्विक, अहिंसक आक्रोश युवाओं में पैदा न हो, तो फिर झारखंड का भविष्य नहीं है.
याद रखिए, झारखंडी नेताओं का शगल है, राज्य की संपत्ति लूटना. अपवाद हर दल में हैं, पर मुख्यधारा यही है. नेता, किसका पैसा लूटते हैं? जो पैसा केंद्र सरकार से राज्य के विकास के लिए आता है, वह लूटा जाता है, या राज्य के कोयला-लोहा वगैरह प्राकृतिक संसाधनों के बदले केंद्र से जो रॉयल्टी मिलती है, वह पैसा लूटा जाता है, या हम और आप जो सरकार को कर देते हैं, वह सरकारी कोष लूटा जाता है.
इन झारखंडी नेताओं का ज्ञान, हेरा-फेरी और निजी संपदा बढ़ाने में है. इनकी दुनिया में समाज, युवा, भविष्य और राज्य के लिए कोई जगह नहीं है. अगर इन्हें राज्य के भविष्य की चिंता रहती, तो हर शहर, हर गली में जाम नहीं लगते.
अपराध नहीं बढ़ते. झारखंड की शासन-व्यवस्था, ईमानदार और बेहतर होती. झारखंड में रोजगार का सृजन होता. पर यह सब झारखंड में नहीं हो रहा. क्योंकि झारखंड के नेताओं के पास न विजन है, न समाज की चिंता. झारखंड के नेताओं का पूरा वर्ग, चाहे वह किसी भी पार्टी का हो (अपवादों को छोड़ कर) आत्मकेंद्रित और स्वजीवी है. स्व-उपार्जन में लगा. झारखंड में शासन करनेवालों का मानस कैसा रहा है, अपनी कई पीढ़ियों का भविष्य, आप युवाओं का भविष्य लूट कर सुखी व सुरक्षित बनाने में. जब तक ऐसे शासक रहेंगे, तब तक आप झारखंडी युवकों को बेहतर भविष्य नहीं मिल सकता है, यह बात गांठ बांध लें. झारखंडी नेताओं के बंद दिमाग को पहले आप युवा समझ लें. यह भी बेंगलुरु के उदाहरण से ही.
आज बेंगलुरु में दुनिया की श्रेष्ठ प्रतिभाएं काम कर रही हैं. वहां न बाहरी, न भीतरी, न स्थानीयता जैसे सवाल हैं. जब आपने ग्लोबल दुनिया की इकनॉमी का हिस्सा बनना तय कर लिया है, तब उस दुनिया का हिस्सा बन कर उससे सर्वश्रेष्ठ लाभ और सर्वाधिक अवसर आप लें, आज की व्यवस्था में यही व्यावहारिक रास्ता है. एकमात्र रास्ता. बेंगलुरु या कर्नाटक यही कर रहा है. कम्युनिस्ट केरल और बंगाल भी इसी रास्ते पर है. अन्य राज्यों की बात छोड़ दें. वे तो पहले से ही इसी रास्ते पर हैं.
या तो यह रास्ता है, इस पर चलें. या इस ग्लोबल या मार्केट इकनॉमी को नकार कर अपना विकल्प खड़ा कर दें. जिससे आप लाखों झारखंडी नौजवानों को रोजगार और समाज-राज्य को एक खुशहाल जीवन दे सकें. एक सीमा में बिहार (जिसे बंटवारे के समय झारखंड में कहा गया कि वहां आलू, बालू और लालू बचे हैं) ने यह कर दिखाया है. इस रास्ते झारखंडी नेताओं को अपना विकास मॉडल ढूंढ कर राज्य को आगे बढ़ाने से किसने रोका है? या वे यह करने में अक्षम हैं?
स्थानीयता का सवाल! हर राज्य अपने निवासियों को अधिक अवसर देता है, आप भी दें. पर आप में यह साहस क्यों नहीं कि 14 वर्षो में एक नीति, स्थानीयता की बना सके. याद रखिए, स्थानीयता और नागरिकता, दो चीजें हैं. देश की नागरिकता एक ही है और इसी में सभी राज्य बंधे हैं. अगर झारखंडी नेता स्थानीयता की कोई अन्य परिभाषा गढ़ना चाहते हैं, तो वे भी स्पष्ट करें. उलझाये रखना, आपस में लड़ाना, ताकि निजी राजनीति हो सके, यह राज्य की जनता के प्रति अपराध है. यह प्रवृत्ति झारखंडी युवकों के भविष्य की हत्या है. ये झारखंडी नेता, तो माला-माल हो ही रहे हैं, लड़ तो जनता रही है. झारखंडी युवा, जितना जल्दी यह समझ जायें, यह उनके हित में होगा.
शुरू में बेंगलुरु की जिस खबर की चर्चा की, वह जान लें. दुनिया के ही रिटेल मार्केट की जो बड़ी चेनें (दुकान श्रृंखलाएं) हैं, मसलन- वालमार्ट, टारगेट, टेस्को और एमेजन वगैरह, इन्होंने आंकड़ों के सिद्ध-हस्त युवकों की अपनी टीम (डाटा साइंटिस्ट) बेंगलुरु में तैनात किया है. ये अगली पीढ़ी के सॉफ्टवेयर विशेषज्ञ (नेक्सट जेनरेशन सॉफ्टवेयर कोडर्स) कहे जा रहे हैं. इस तरह पूरी दुनिया में बड़ी-बड़ी कंपनियां खुदरा बाजार क्षेत्र में विश्वव्यापी महायुद्ध की यह लड़ाई बेंगलुरु से लड़ेंगी. बड़ी महारथी कंपनियों ने अपने-अपने सैनिक (ग्लोबल दुनिया की यह लड़ाई तकनीक से ही लड़ी जायेगी, नये सैनिक होंगे, कंप्यूटर एक्सपर्ट्स) बेंगलुरु में हेडक्वार्टर बना कर तैनात कर दिये हैं.
इस तरह बेंगलुरु इस तकनीकी युद्ध क्षेत्र (टेक्निकल बैटलग्राउंड) का मुख्यालय बन गया है. दुनिया की तकदीर अब बाजार के युद्ध क्षेत्र (परंपरागत युद्ध क्षेत्र में नहीं) में लड़ी लड़ाइयों या महायुद्धों से तय होगी. इस युद्ध के नये सिपाही हैं, तकनीक विशेषज्ञ. अब वालमार्ट या एलब्रांउ व लो’ज, ये सब कंपनियां, प्रभावशाली भारतीय इंजीनियरों को ढूंढ रही हैं. अच्छी तनख्वाह पर. बड़ी संख्या में युवकों को रोजगार का नया अवसर, बेंगलुरु या ऐसे केंद्रों में खड़ा हो रहा है. इससे पहले भी, लगभग 10 वर्ष पहले, चीन समेत दुनिया के बड़े राष्ट्राध्यक्ष जब भारत आते थे, तो वे दिल्ली के बदले बेंगलुरु व हैदराबाद पहुंचते थे. कारण, वे समझना-देखना चाहते थे कि अमेरिका के सिलिकान वैली के बाद (जो अपनी तकनीक ईजाद से दुनिया को बदलने का केंद्र बन गया है) बेंगलुरु कैसे दुनिया का महत्वपूर्ण सॉफ्टवेयर केंद्र बन गया? इसी विषय पर विश्व के मशहूर पत्रकार फ्रीडमैन ने अपनी बहुचर्चित किताब लिखी, द वल्र्ड इज फ्लैट.
पंडित नेहरू ने जब नये भारत की कल्पना की, तो कल-कारखानों को नया मंदिर, मसजिद और गिरिजाघर कहा. तब बेंगलुरु में एचएमटी और रांची में एचइसी की स्थापना हुई. दोनों को बराबर महत्व मिला. दोनों जगहों पर सार्वजनिक कारखानों के नये मंदिर बने. दोनों की जलवायु एक तरह थी. पर क्यों बेंगलुरु आज दुनिया का केंद्र बन गया? पता नहीं कितने लाख करोड़ रुपये, अकेले बेंगलुरु शहर, पूरे कर्नाटक या देश के लिए कमाता है. इससे भी महत्वपूर्ण बात है कि देश के कोने-कोने से लाखों नौजवान यहां आकर रोजगार में लगे हैं. दूसरी तरफ रांची का क्या हालात है? दोनों शहरों (बेंगलुरु व रांची) ने एकसाथ यात्र शुरू की, केंद्र ने एक समान मदद की.
पर दोनों आज कहां खड़े हैं? यह फर्क, हमारे शासकों की योग्यता, समझ और दृष्टि का फर्क है. हमारे झारखंडी शासक भी स्वार्थी नहीं होते, समझदार होते, तो आज झारखंड या रांची भी दुनिया में अपनी जगह रखता. बेंगलुरु इसलिए बेंगलुरु हुआ, क्योंकि उसने बड़े पैमाने पर अपने यहां शिक्षण संस्थाएं खोली. बिजली का बंदोबस्त किया. बेहतर संचार-व्यवस्था कायम की. झारखंड के मुकाबले अच्छी कानून-व्यवस्था की स्थिति सुनिश्चित की. इससे बेंगलुरु (कर्नाटक) आगे बढ़ा. बेंगलुरु या ऐसे अन्य शहर आज प्रतीक हैं. इसी रास्ते अन्य राज्य भी गये. कोच्चि, पुणो, कोलकाता, मुंबई, गुड़गांव .. हर राज्य अपने यहां आधुनिक अर्थव्यवस्था के ऐसा केंद्र बनाने में लग गया.
बेंगलुरु या ऐसे केंद्रों की पृष्ठभूमि में वहां के शिक्षण संस्थाओं का फैला जाल ही है. सॉफ्टवेयर इंडस्ट्री को बड़े उद्योग-धंधों की तरह बड़ी जमीन नहीं चाहिए. अब बेंगलुरु, गुड़गांव, पुणो जैसे शहर अत्यंत महंगे हो गये हैं. इसलिए अब यह कारोबार सेकेंड टीयर सिटीज (दूसरे स्तर के शहरों) में शिफ्ट (जा) कर रहा है. केंद्र सरकार की अनेक योजनाएं हैं, सॉफ्टवेयर पार्क खोलने की. झारखंड के युवकों को पूछना चाहिए, हर राजनेता से, हर दल से कि उसके पास क्या विजन है? इस तरह के अवसरों से लाभ लेने के? क्या कभी आपने सोचा है कि इस सॉफ्टवेयर उद्योग के लिए अच्छे शिक्षण संस्थान चाहिए. झारखंड में स्कूलिंग (बारहवीं तक) के लिए बेहतर शिक्षण संस्थाएं हैं.
उसके बाद सब चौपट है. बीआइटी मेसरा, एक्सएलआरआइ, एक्सआइएसएस, आइआइएम वगैरह जैसे संस्थानों को छोड़ दें, तो पूरे झारखंड में ऐसे असंख्य बेहतर संस्थाएं खोलने की होड़ क्यों नहीं है? जहां के राजनेता ऐसी शिक्षण संस्थाओं को खोलने के लिए या बड़े अस्पताल, जो स्वत: आकर यहां काम करना चाहते हैं, उनसे पैसे-कमीशन मांगे, वह भी पढ़ाई या अस्पताल शुरू करने के पहले, तो झारखंड के युवाओं को समझ लेना चाहिए कि इस राज्य में उनका भविष्य क्या है? यह हाल किसी एक दल का नहीं है. इसमें सब दोषी हैं. दुखद तो यह है कि झारखंड के लिए ऐसे अवसर हो सकते हैं, इसकी समझ झारखंड के नेताओं को नहीं है.
यह पता होना जरूरी है कि पिछले 14 वर्षो में अनेक ऐसे नेता जिम्मेदार पदों पर गये, जिन्हें बदलती दुनिया का कोई ज्ञान ही नहीं है. जो क्षमता से पंचायत नहीं चला सकते, जो मुखिया की गद्दी नहीं संभाल सकते, उन्हें राज्य चलाने की जिम्मेदारी मिल गयी. अगर झारखंड की राजनीति के इस चरित्र को झारखंडी युवक नहीं बदलेंगे, तो उनके लिए कैसा भविष्य होगा, यह बहस का विषय नहीं होना चाहिए.
आज झारखंड जैसे गरीब राज्य से हजारों करोड़ रुपये दूसरे राज्यों में जाते हैं. हर साल सिर्फ दो मदों में. शिक्षा और स्वास्थ्य. बारहवीं कक्षा के बाद बेहतर पढ़ाई के लिए हमारे राज्य के नौजवानों को दूसरे राज्यों में जाना होता है. उच्च शिक्षा पाने. उन पर होनेवाले खर्च जोड़ें. अगर यह पैसा यहां रहता, या ऐसे संस्थान यहां होते, तो इससे कितने स्थानीय लोगों को रोजगार मिलता, वह अलग प्रसंग है. अच्छे अस्पताल नहीं होने के कारण चिकित्सा के लिए बीमार झारखंडी दूसरे राज्यों के बड़े-बड़े अस्पतालों में जाकर अपमानित होते घूमते हैं. उन पर होनेवाले खर्च जोड़िए.
अगर बड़े अस्पतालों की श्रृंखलाएं यहां होती, तो हजारों-लाखों रोजगार अलग ढंग से पनपते-मिलते. अगर पूरे राज्य में बढ़ती शिक्षण संस्थाएं और अच्छे अस्पताल हों, तो हजारों करोड़ रुपये, जो इन दो मदों में राज्य से बाहर चले जाते हैं, वे झारखंड में ही रहते. इसका लाभ, लाखों झारखंडी युवा-युवतियों को मिलता, जो आज मामूली नौकरी के लिए महानगरों में दर-दर भटकते हैं.
शिक्षा और स्वास्थ्य में विकास करने से झारखंडी नेताओं को किसने रोका? यह उद्योग लगाने या खनन जैसे काम या क्षेत्र तो है नहीं कि यहां विस्थापन हो रहा है? देश भर को स्तब्ध करनेवाले एक उदाहरण से इस प्रसंग को समझिए. रांची सदर अस्पताल 141 करोड़ की लागत से बना है. 2011 में. अगर सरकार का यह पैसा (जो हमारे-आपके कर से आता है) बैंकों में फिक्सड डिपोजिट में रहता, तो तीन वर्षो में लगभग 40 करोड़ ब्याज से आमद होती. पर सदर अस्पताल का यह भव्य भवन बन कर तीन वर्षो से भुतहा भवन में बदल रहा है.
वेदांता से लेकर देश के कई नामी अस्पताल यहां काम करने का प्रस्ताव लेकर आये, पर कमीशन मांगे गये, यह अस्पताल नहीं खुल सका. याद रखिए, एक तरफ बेहतर इलाज के लिए वेदांता-अपोलो-वेल्लोर वगैरह में झारखंडी मारे-मारे फिरते हैं, दूसरी तरफ ये बड़े अस्पताल स्वत: यहां काम करने का प्रस्ताव लेकर आते हैं. आपने (झारखंड ने) 141 करोड़ में, जनता के पैसे से भव्य अस्पताल प्रांगण बनवा कर तीन वर्षो से खाली रख छोड़ा है? क्या यह अस्पताल, इन बड़े अस्पतालों को देकर झारखंड के बीमार लोगों का भला नहीं किया जा सकता था? पर नहीं हुआ.
क्योंकि अफसरों-नेताओं को फेवर, सीधे कहें तो पैसा चाहिए. एक पूर्व मुख्य सचिव की टिप्पणियां इस फाइल पर पढ़ लें. वे चाहते थे, तुरंत काम हो. पर चोर अफसर, डकैत नेता गंठजोड़ सफल रहा. यह आपराधिक काम है, झारखंड के प्रति. झारखंड की जनता के प्रति. इसके दोषी लोग चीन में होते, तो सरेआम फांसी पर लटकाये जाते. पंडित नेहरू की भाषा में कहें, तो चौराहे के लैंपपोस्ट पर लटकाने जैसा काम. खून खौलानेवाला एक और प्रसंग.
प्रतीक के तौर पर. सिमडेगा के तोरपा में 2.50 करोड़ की लागत से एक सरकारी अस्पताल बना. 50 बिस्तरों वाला. वर्ष 2010 में. आज तक यहां एक भी मरीज का इलाज नहीं हुआ. पास में ही एंथ्रेक्स बीमारी से गांव के आठ लोग मर गये. यह अस्पताल चलता, तो यह स्थिति नहीं होती. सड़क, सिंचाई योजनाएं, बिल्डिंग, अस्पताल, खेल गांव जैसे अनेक संस्थान अरबों लगा कर बनाये गये, पर वे खंडहर हो रहे हैं या अधूरे हैं. क्या यही राज चलाने का तौर-तरीका है?
सिंचाई में, सड़क में, पुल-पुलिया में, सब जगह ऐसा ही आलम. अनेक सड़कें या पुल, 14 वर्षो पहले बने और पानी में बह गये. तुरंत टूट गये. इस पर आज तक जांच चल रही है. ऐसा झारखंड कैसे बदलेगा? झारखंड के युवकों को समझना होगा कि झारखंड के नेताओं का कर्म, सोच और षडयंत्र, राज्य व युवाओं के भविष्य के प्रतिकूल है. एक और उदाहरण. झारखंड के विश्वविद्यालयों में योग्य कुलपति बने, यह सवाल उठा. उठते ही बाहरी-भीतरी का खेल शुरू हो गया. याद रखिए, अगर आप में योग्यता नहीं है.
हुनर, कौशल और दक्षता नहीं है, तो आप पढ़ कर भी मौजूदा बाजार में कोई जगह नहीं बना सकते. चीन अपनी शिक्षण संस्थाओं में अमेरिका के सर्वश्रेष्ठ प्रोफेसरों को न्योतता है. साम्यवादी होते हुए भी चीन को पूंजीवादी देशों के शिक्षकों से शिक्षा लेने में परहेज नहीं. क्योंकि उसे पता है कि दुनिया की अर्थव्यवस्था ग्लोबल हो गयी है. इस नॉलेज सोसाइटी में सिर्फ प्रतिभा के बल ही जगह बनायी जा सकती है. अगली पीढ़ी को दुनिया के सर्वश्रेष्ठ योग्य लोगों से शिक्षा दिला कर वे दुनिया को ज्ञान में फतह करना चाहते हैं. इसलिए चीन ऐसा कर रहा है. चीन को भूल जाइए. पड़ोस में बिहार ने अपने यहां विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की नियुक्ति की. पूरे देश से चुन कर श्रेष्ठ प्रतिभाएं बुलायी गयी.
बहुत पहले की घटना है. बीजू पटनायक जब ओड़िशा के मुख्यमंत्री थे, तब अपने राज्य में एक गणित का संस्थान खुलवाया. एक सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति को विदेश से इस संस्थान का पहला निदेशक बना कर लाये. उस निदेशक की शर्त थी कि आप हमें कभी संस्था के काम के बारे में फोन नहीं करेंगे. बीजू पटनायक ने उनकी शर्त मानी. इतना बड़ा नेता. फिर भी शर्त मानी. क्योंकि राज्य का भविष्य, नेता के निजी अहं से बड़ा होता है. ऐसा करनेवाले भी नेता रहे हैं. पर एक फर्क है, राजनेता और नेता में? राजनेता, अगली पीढ़ी के बारे में भी सोचता है. उसके पास दूर दृष्टि होती है. वह राजनीति और देश का भविष्य दूर तक देखता है. ऐसी श्रेणी में थे, बीजू बाबू जैसे लोग. नेता, सीमित दृष्टि का व्यक्ति होता है. उसे अपना तात्कालिक लाभ और हित दिखता है. झारखंड को आज नेता नहीं, राजनेता चाहिए. दुर्भाग्य है कि झारखंड में नेताओं की ही भरमार-भीड़ है.
छात्रों को भी इन बातों के पीछे का असल तथ्य समझ लेना चाहिए. बड़ा आसान होता है, बाहरी-भीतरी के नारे में बह जाना. क्योंकि ये भावात्मक मुद्दे हैं. आज रोजगार के बाजार में या जिंदगी में प्रतिभा, कौशल और क्षमता का महत्व है, तो हम ऐसे संस्थान क्यों नहीं बनाते, जहां हमारे छात्रों को शुरू से ही वह माहौल मिले, जिससे उनमें प्रतिभा, कौशल और क्षमता का विकास हो.
अंतत: पढ़नेवाले तो स्थानीय लोग ही होते हैं. स्थानीय लोग अगर योग्य, निपुण बनेंगे, तो वे देश-समाज में हर जगह अपनी पहचान बनायेंगे. अगर झारखंडी युवा, शिक्षा के इस मर्म को समझेंगे, तो बाहरी-भीतरी के भावात्मक नारे लगा कर ठगनेवाले नेताओं को स्वत: खारिज कर देंगे. झारखंडी नेता चाहते हैं कि झारखंडी लोगों में चेतना न फैले. वे शिक्षित न हों. ताकि जनता को बरगलाने-ठगने का काम नेता करते रहें. इसलिए झारखंडी नेता, झारखंड को पिछड़ा रखना चाहते हैं. इसी डर के कारण नेता बाहरी-भीतरी का नारा लगाते हैं और झारखंड को आगे नहीं बढ़ने देते.
झारखंड में सरकारी नौकरियों का क्या हाल है? याद रखिए, झारखंड बनने के बाद सबसे बड़े घोटाले, सरकारी नियुक्तियों को लेकर हुए हैं. विधानसभा जो लोकतंत्र का मंदिर है, संविधान का प्रहरी है, वहीं से गलत नियुक्तियों की शुरूआत हुई. हमारे माननीय विधायकों ने इसकी जांच आगे नहीं बढ़ने दी. 81 लोगों की विधानसभा में हजारों कर्मचारी हैं. देश के दूसरे राज्यों की विधानसभा के सदस्यों की संख्या और वहां कार्यरत कर्मचारियों के अनुपात का अध्ययन कीजिए, स्तब्ध रह जायेंगे.
दिन-दहाड़े डाका. जहां 10 लोग चाहिए, वहां सौ लोग. इससे भी बड़ा जुर्म. विधानसभा, जहां बननेवाले कानून या नीतियां समाज-व्यवस्था को चलाती हैं, में अयोग्य लोगों की भरती हुई. लोकतंत्र में शायद ही कहीं दूसरी जगह ऐसे घोर, आपत्तिजनक काम हुए हों. कहीं भी, किसी पद पर नियुक्ति होती है, तो उसके लिए जो मान्य प्रक्रिया या नियम-कानून हैं, उनका सरेआम उल्लंघन नहीं होता, वह भी संवैधानिक संस्थाओं द्वारा. विधानसभा तो संविधान की प्रहरी है. वहीं गलत काम? फिर लोकतंत्र में आस्था कैसे जगेगी? क्यों नेताओं के स्वजन, सीधे रोजगार पायेंगे? क्या ये विशिष्ट ग्रह के प्राणी हैं? क्या यह राजतंत्र है और ये नये राजाओं, सामंतों, जागीरदारों, जमींदारों की नयी पीढ़ी के वंशज, स्वजन या शागिर्द हैं? क्या नेताओं के चाटुकार, झोला ढोनेवाले, स्वजन या परिवार के लोगों के लिए ही झारखंड बना था? अगर नियुक्ति की यह प्रक्रिया विधानसभा में रही, तो उन हजारों-लाखों बेरोजगार झारखंडी युवकों को कहां और कैसे अवसर मिलेगा, जो रोजगार की तलाश में भटक रहे हैं?
जिनका कोई आका राजनीति में नहीं है. जिनके पास धन नहीं है. जिनके पास कोई सोर्स-पैरवी नहीं है. आप सोचिए, निजी क्षेत्रों में आप नौकरी नहीं बढ़ने देंगे और सरकारी क्षेत्रों की नौकरियों में नेताओं के खास लोगों के लिए ही बैक डोर इंट्री मिलेगी, तो यह व्यवस्था चलेगी कैसे? कहां जायेंगे, करोड़ों झारखंडी युवा? आज जो झारखंड है, उस झारखंड के आईने में यहां के युवा अपने भविष्य की तसवीर देख सकते हैं. यह तसवीर अगर कुरूप, धुंधली या अस्पष्ट हो, तो सफाई तो युवकों को ही करनी होगी.
याद रखिए, लगभग 8-10 वर्ष पहले एक महतो युवक ने बुंडू से एक पत्र लिखा. मैं क्यों न नक्सली बनूं? काफी पढ़ा-लिखा. दो बार जेपीएससी की लिखित परीक्षा में अच्छे अंकों से सफल हुआ युवक. इंटरव्यू में कम नंबर आये, इसलिए उसका चयन नहीं हुआ. उसने एक-एक उम्मीदवार का नाम गिनाया, जो बिना योग्यता के इतनी महत्वपूर्ण सरकारी नौकरी पा गये थे. क्योंकि वे शासक वर्ग के परिवार से थे या उनके नाते-रिश्तेदार या सगे-संबंधी थे. इसके बाद का इतिहास सबको पता है. जेपीएससी में हुए घोटाले, फिर राज्य सरकार ने कैसे गलत नियुक्त हुए लोगों को बचाया, वगैरह-वगैरह.
अगर सरकारी नौकरियों में यह भेदभाव या पक्षधरता होगी, तो झारखंड के सामान्य युवकों के लिए क्या भविष्य है? झारखंड के युवकों को खुद से यह पूछना चाहिए. अपने नेताओं से पूछना चाहिए. क्योंकि चुनाव में ही यह मुद्दे उठ सकते हैं. नेताओं से सवाल-जवाब हो सकता है. अगर यह अवसर चूके, तो फिर पांच वर्ष बाद आनेवाली युवा पीढ़ी का वही हश्र होगा, जो रोजगार की तलाश में भटक रहे झारखंड के युवकों का आज हो रहा है.
झारखंड के नौजवानों को यह सवाल पूछना चाहिए कि झारखंड के अलावा देश में कौन सा दूसरा राज्य है, जहां 14 सालों में आठ बार विधायकों-मंत्रियों के वेतन-भत्ते बढ़े हैं? क्या जनता की प्रति व्यक्ति आय में भी, राज्य बनने के बाद आठ गुना वृद्धि हुई है? यह भी पता किया जाना चाहिए कि झारखंड के विधायकों के लिए विधायक फंड तीन करोड़ रुपये है. क्या किसी अन्य राज्य में भी विधायक फंड इतना अधिक है?
क्यों नहीं कोई राजनीतिक दल यह पहल करता है, और कहता है कि 14 सालों में विधायक फंड में तकरीबन हजारों करोड़ से अधिक खर्च किये होंगे, उसकी निष्पक्ष जांच करायी जायेगी. उससे देश या झारखंड की परिसंपत्ति में क्या बढ़ोतरी हुई है, यह पता किया जायेगा? बिहार में नीतीश कुमार ने विधायक फंड खत्म किया. इस विधानसभा चुनावों के दौरान 15 विधायकों ने इधर से उधर पाला बदला. एक विधायक तो पहले भाजपा में गये.
टिकट नहीं मिला, तो झामुमो की शरण ली. क्या जिन नेताओं में चरित्र नहीं, वे झारखंड की तकदीर बदल पायेंगे? 14 वर्षो में विधानसभा की 41 विशेष कमेटियां बनी. इन कमिटियों के कामकाज पर सैकड़ों करोड़ रुपये खर्च हुए होंगे. पर सिर्फ 10 कमिटियों ने अपनी रिपोर्ट सौंपी. यह वैसा ही है कि काम करने के बदले सारी सुविधाएं ली, पर एक रत्ती काम नहीं किया. यह देश व झारखंड के साथ धोखा है. अपराध है. जो अपनी संस्था के प्रति अपना फर्ज नहीं समझते, वे राज्य की जनता के साथ क्या न्याय करेंगे? बेशुमार अपढ़ लोग झारखंड विधानसभा की नौकरियों में कैसे भरे गये? कैसे पैसे लेकर नियुक्ति के आरोप लगे?
यह पूरा राज्य जानता है. क्या झारखंड इस रास्ते बनेगा. जब शासकों का चरित्र साफ नहीं होगा, तो क्या हालात होंगे. हाल की कुछ सूचनाएं जानें. झारखंड में रोजाना 5.84 करोड़ की कोयला चोरी होती है (देखें, प्रभात खबर 04.05.2014). हर माह पुलिस की कमाई कोयला चोरी से तकरीबन 19.48 करोड़ है (देखें, प्रभात खबर 05.05.2014). यह काम कौन करता है? नेता-अफसर के हैं, अपने-अपने कारोबार एवं वसूली करनेवाले लोग (देखें, प्रभात खबर 06.05.2014). नेताओं-मंत्रियों के पुत्र चोरी कराते हैं (देखें, प्रभात खबर 07.05.2014). स्थानीय उद्योग को बढ़ावा देने के लिए केंद्र सरकार सस्ती दर पर कंपनियों को कोयला देती है. यह सब्सिडी वाला कोयला बनारस और डिहरी की मंडी में बिकता है.
(देखें, प्रभात खबर 07.05.2014). ऐसे चरित्र के शासक होंगे, तो झारखंड में कहां से गरीबों के हालात सुधरेंगे? कुछ और तथ्यपरक सूचनाएं आप युवा जानें. झारखंड में प्रति व्यक्ति खाद्यान उपलब्धता 250 ग्राम है, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह औसत 583 ग्राम है. झारखंड की खेती में खाद की खपत प्रति हेक्टेयर 26 किलोग्राम है, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह 140 किलोग्राम है. दूध की उपलब्धता झारखंड में प्रति व्यक्ति, प्रतिदिन 171 ग्राम है, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह 291 ग्राम है.
झारखंड में प्रति एक हजार वर्ग किलोमीटर पर 86.26 किलोमीटर सड़क है, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह 185.40 किलोमीटर है. झारखंड में प्रति व्यक्ति बिजली खपत 515 यूनिट है, और राष्ट्रीय स्तर पर यह 818 यूनिट है. यह दुर्दशा है, झारखंड की. यहां दो सरकारी इंजीनियरिंग कॉलेज हैं. तीन सरकारी मेडिकल कॉलेज. यहां पिछले 14 सालों में 5100 नक्सली घटनाएं हुइर्ं, और इसमें 1500 लोग मारे गये. इस राज्य के 67 थाने लिबरेटेड जोन हैं. 39 थाने ऐसे हैं, जहां दिन में भी लोग जाने से डरते हैं. अपराधियों ने 14 वर्षो में 18752 लोगों को मारा है. 8149 लूट की घटनाएं हुई हैं. 5054 डकैती की घटनाएं हुईं और 9588 रेप की घटनांए हुई. इस तरह के आंकड़े दें, तो इसका अंत नहीं है. ये आंकड़े इस तथ्य को प्रामणित करते हैं कि झारखंड का शासन कैसे लोगों के हाथ रहा है?
युवकों को यह भी याद रखना चाहिए कि जब झारखंड बना, तो यह सरप्लस बजटवाला राज्य था. इसके बारे में झारखंड के नेता, लगातार रोते रहते हैं कि झारखंड को केंद्र से विशेष मदद चाहिए. इसे विशेष राज्य का दरजा मिलना चाहिए. विशेष राज्य का यह दरजा क्यों चाहिए, इसके बारे में कोई अध्ययन या कारण इन्हें पता नहीं है. इन नेताओं से पूछा जाना चाहिए कि आप जो विशेष दरजा या केंद्र से अधिक मदद मांग रहे हैं, तो आप झारखंड की सरकार चलाने में अगुवा रहे हैं. 2013 तक योजना मद में 10961.6 करोड़ रुपये वापस क्यों हुए? एक तरफ गरीबी की बात कर रहे हैं, दूसरी तरफ केंद्र से जो पैसा आ रहा है, उसे आप खर्च नहीं कर पा रहे हैं.
लगभग 11 हजार करोड़ रुपये बिना खर्च किये, 14 वर्षो में लौट गये. क्या यही कामकाज का तरीका है? झारखंड की जनता को यह सवाल करना चाहिए कि 31.03.2013 तक झारखंड ने 34868.99 करोड़ कर्ज क्यों लिया? क्या नेताओं की रईसी के लिए या उनकी महंगी गाड़ियों के लिए? यह कर्ज की राशि कहां खर्च हुई? यह जानना झारखंड के लोगों के लिए जरूरी है. इससे झारखंड के नेताओं का चरित्र, संकल्प और संपदा का रिश्ता स्पष्ट होगा. झारखंड चलानेवाले लोगों को (जो 14 वर्षो तक सत्ता में रहे हैं) बताना चाहिए कि आज तक स्थानीय नीति क्यों नहीं बनी?
जल नीति और कृषि नीति क्यों नहीं बनी? इसी तरह सिंगल विंडो सिस्टम, ऊर्जा नीति एवं उद्योग पॉलिसी वगैरह के बारे में भी जवाब देना चाहिए. बिजली के क्षेत्र में कुल 33 एमओयू हुए. इसमें से 21 रद्द हुए और सिर्फ एक चालू हुआ. यह है, झारखंड के नेताओं की इफिशियेंसी. झारखंड के नेता कहते हैं, नौकरी नहीं है. सरकारी क्षेत्र में जो नौकरियां हैं, उनमें भरती कर पाने की इनमें क्षमता नहीं है.
ये घोर अयोग्य लोग हैं. इनसे पूछा जाना चाहिए कि राज्य में प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षकों के 13000 पद कैसे रिक्त हैं? मध्य विद्यालयों में 7000 शिक्षकों की नियुक्ति होनी है, यह कब होगी. 4401 उर्दू सहायक शिक्षक भरती होनी हैं. राजकीयकृत उच्च विद्यालयों में 1739 शिक्षकों के पद रिक्त हैं. अपग्रेड उच्च विद्यालयों में 13552 शिक्षकों के पद रिक्त हैं. +2 उच्च विद्यालयों में 513 शिक्षकों के पद खाली हैं. इसी तरह डॉक्टरों की कमी है. नर्सो की जरूरत है (4701). 14176 एएनएम की जरूरत है.
राज्य में 7088 स्वास्थ्य उपकेंद्र और चाहिए. 1126 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की जरूरत है. 240 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों की जरूरत है. राज्य में अस्पताल बने नहीं, लेकिन करोड़ों के मेडिकल उपकरण खरीद लिये गये. क्योंकि इस खरीद में कमीशन मिलता है. इस अपराध का कौन दोषी है? राज्य के 38 लाख बच्चों को दो वर्षो से विटामिन-ए की गोलियां नहीं मिली है. यह है राज्य की असली स्थिति.
राज्य में 14 वर्षो में घोषणा हुई कि नौ मेडिकल कॉलेज खुलेंगे. फिर याद कर लीजिए कि ये नौ कौन हैं?
1. मेडिकल कॉलेज, इसीएल 6. मेडिकल कॉलेज, दुमका
2. मेडिकल कॉलेज, बीसीसीएल 7. मेडिकल कॉलेज, मेदिनीनगर
3. मेडिकल कॉलेज, सीसीएल 8. मेडिकल कॉलेज, हजारीबाग
4. मेडिकल कॉलेज, एचइसी 9. कार्डिनल द्वारा मेडिकल कॉलेज
5. मेडिकल कॉलेज, सेल बोकारो
इसी तरह अनेक संस्थान खुलने के प्रस्ताव लंबित हैं. इन संस्थानों के खुलने से झारखंड में महज लाखों लोगों को रोजगार ही नहीं मिलेंगे, बल्कि झारखंड में प्रशासन, शिक्षा वगैरह में गुणात्मक फर्क आयेगा. झारखंड ‘नॉलेज सोसाइटी’ बनने की ओर बढ़ेगा. पर शैक्षणिक संस्थानों के लिए समय पर झारखंड में जमीन नहीं मिल रही है. इसमें भारतीय प्रबंधन संस्थान, ट्रिपल आइटी, राष्ट्रीय गवर्नेस अकादमी समेत 30 परियोजनाएं शामिल हैं. इन परियोजनाओं को अमली जामा पहनाने के लिए कुल 700 एकड़ जमीन की आवश्यकता है.
प्रोजेक्ट का नाम प्रस्तावित जमीन
आइआइएम 105 एकड़
ट्रिपल आइटी 53 एकड़
सोलर पार्क 500 एकड़ (राजाउलातू)
श्री कृष्ण प्रशासनिक संस्थान 100 एकड़ (चेरी, कांके)
केंद्रीय भूमि जल बोर्ड तीन एकड़ (रातू)
केंद्रीय औषधि जांच प्रयोगशाला पांच एकड़ (इटकी)
ेकेंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण नगड़ी
रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया पांच एकड़ (नयी राजधानी)
नेशनल इ-गवर्नेस अकादमी 10 एकड़
मल्टी स्कील्ड

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