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कई सवालों का चाहते हैं जवाब

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कैबिनेट विस्तार में कई समीकरणों का रखा गया ध्यान विजय विद्रोही कार्यकारी संपादक एबीपी न्यूज मोदी सरकार के मंत्रिमंडल के विस्तार का सब को इंतजार था. अब विस्तार हो चुका है और लोगों की नजरें इस पर हैं कि क्या नयी टीम मोदी के सपनों को पूरा कर पायेगी. मोदी सरकार के मंत्री और बीजेपी […]

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कैबिनेट विस्तार में कई समीकरणों का रखा गया ध्यान
विजय विद्रोही कार्यकारी संपादक
एबीपी न्यूज
मोदी सरकार के मंत्रिमंडल के विस्तार का सब को इंतजार था. अब विस्तार हो चुका है और लोगों की नजरें इस पर हैं कि क्या नयी टीम मोदी के सपनों को पूरा कर पायेगी. मोदी सरकार के मंत्री और बीजेपी के नेता कह रहे हैं कि यह मंत्रिमंडल होनहार नेताओं का है जिनमें क्षमता है, जो हुनरमंद हैं, जो कुछ नया करना चाहते हैं, जो रिश्वत नहीं लेते हैं, जो सिर्फ काम करने में यकीन रखते हैं और जो मोदी के काम करने के तौर-तरीकों को अच्छी तरह समझते हैं.
हो सकता है कि ऐसा ही हो. अगर ऐसा ही है तो फिर देश को चमत्कार की उम्मीद करनी चाहिए. लेकिन मोदी के काम करने के तरीके में यह भी जोड़ा जाना चाहिए कि वह नौकरशाहों पर ज्यादा यकीन करते हैं. मंत्रियों को काम करने की आजादी देने से ज्यादा उन्हें अपना पीए रखने में कई शर्ते लगाने में ज्यादा यकीन करते हैं. लेकिन मोदी जिस तरह से हर महीने, हर पखवाड़े कामों की समीक्षा करते हैं, उससे साफ है कि नये मंत्रियों पर समय पर डिलीवर करने का भार पड़ने वाला है.
नये मंत्रियों के साथ-साथ पुराने मंत्री भी, रेल मंत्रालय संभाल रहे सदानंद गौड़ा पर चले चाबुक से सदमे में जरूर होंगे. कहा जा रहा है कि जो काम उन्हें सौंपा गया था, उसे पूरा करने में वह खरे नहीं उतरे इसलिए उन्हें नाप दिया गया. मोदी जानते हैं कि बुलेट ट्रेन से लेकर हाई स्पीड रेलगाड़ियों को लेकर जितने वायदे उन्होंने किये हैं, उन पर हर पखवाड़े देश की जनता को पता लगते रहना चाहिए कि कुछ काम हो रहा है. रेलवे में सौ फीसदी तक एफडीआइ के बाद तो काम में तेजी भी आनी चाहिए और पैसा लगाने वालों के इच्छुक लोगों के बारे में भी पता लगना चाहिए. ऐसा सदानंद नहीं कर पाये और कानून मंत्रालय भेज दिये गये.
अगर मीडिया में छप रही इन खबरों में दम है तो यकीन जान लीजिए कि मोदी एक भारी टास्क मास्टर हैं. लेकिन यहां सवाल यह भी उठता है कि आखिर एक टास्क मास्टर को फिर मंत्रियों की जाति, क्षेत्र और उनके राज्य में होने वाले विधान सभा चुनाव की तारीख क्यों याद करनी पड़ी और उसी के हिसाब से लाल बत्ती की गाड़ी क्यों बांटी गयी? मंत्रिमंडल विस्तार में हमें चुनावी राजनीति क्यों दिख रही है?
मंत्रिमंडल के विस्तार के बाद मंत्रियों की संख्या 66 हो गयी है. पांच महीने पहले प्रधानमंत्री को मिला कर 45 मंत्री थे और तब कहा गया था कि ‘न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन’. लेकिन अब जातीय, क्षेत्रीय व चुनावी समीकरणों को बकायदा ध्यान में रखा गया. जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं और जिन राज्यों में बीजेपी अपने लिए संभावनाएं देख रही है, वहां से मंत्री बनाये गये हैं. व्यक्तिगत कौशल या नेतृत्व क्षमता के बजाए जाति को ही सबसे ऊपर रखा गया है.
चूंकि मोदी ने 75 साल की अधिकतम उम्र सीमा तय कर रखी है, लिहाजा ऐसे राज्यों में 70 पार के उन नेताओं पर मार पड़ी है, जो पार्टी का काम तो इस उम्र में कर सकते हैं, लेकिन शासन नहीं कर सकते. बहुत से राज्यों में 50-60 की आयु के नेताओं को लाल बत्ती मिल गयी है और 70 पार के नेता ठंड रखने को मजबूर हैं.
प्रधानमंत्री मोदी ने देश की कमान संभालते हुए संकेत दिये थे कि वो अलग तरह से देश चलाना चाहते हैं. ऐसे भी संकेत मिले थे कि वो कुछ मंत्रालयों को आपस में मिला देना चाहते हैं. मसलन, कोयला और ऊर्जा विभाग क्यों अलग होना चाहिए, इस्पात मंत्रालय की अलग से क्यों जरूरत है, विदेश मंत्रालय और वाणिज्य मंत्रालय को एक क्यों नहीं किया जा सकता, छोटे, मंझले व भारी उद्योग के लिए अलग अलग मंत्रालय क्यों होने चाहिए. कहा तो यहां तक गया था कि सूचना प्रसारण मंत्रालय क्या अप्रासंगिक नहीं हो गया है आदि आदि.
स्वयं प्रधानमंत्री ने 15 अगस्त को लाल किले से अपने संबोधन में योजना आयोग को भंग करने की घोषणा की, उससे साफ संकेत मिले कि वो मंत्रालयों को आपस में मिलाने और कुछ मंत्रालयों को खत्म करने के पक्ष में हैं. मोदी का काम करने का जो स्टाइल है उसके हिसाब से यह मुफीद बैठता था. वो वैसे भी मंत्रियों के साथ-साथ सचिवों यानी अफसरशाही पर भी यकीन करते हैं और कई बार तो लगता है कि सचिवों पर ज्यादा विश्वास करते है.
इन सब कारणों के चलते उम्मीद यही की जाती थी कि मोदी छोटा मंत्रिमंडल रखेंगे, पैसा बचायेंगे और काम में भी तेजी लायेंगे लेकिन 66 मंत्रियों के मंत्रिमंडल को क्या कहा जाये? बीजेपी के नेता कह रहे हैं कि मनमोहन सिंह के मंत्रिमंडल से तो यह छोटा ही है जिसमें 78 मंत्री थे. यहां हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मनमोहन सिंह सरकार वास्तव में गंठबंधन सरकार थी. उनके पास अपने घटक दलों के सांसदों की संख्या में अनुपात में मंत्री पद दिये जाने की मजबूरी थी. लेकिन ऐसी कोई मजबूरी मोदी के पास नहीं थी. शिवसेना जरूर दबाव डाल रही थी, लेकिन उनके साथ तो बात ही नहीं बन सकी. कुल मिला कर इस नजरिए से देखा जाए तो हैरानी होती है कि मोदी को उसी पुराने कांग्रेसी ढर्रे की तरफ लौटने के लिए क्यों मजबूर होना पड़ा?
इसकी दो वजहें हैं. पहली वजह है कि मोदी और अमित शाह चुनाव के मोड में हैं. वो कांग्रेस-मुक्त भारत के अपने अभियान को भी उतना ही भाव दे रहे हैं, जितना कि सरकार चलाने को. यही कारण है कि बंगाल से चुनाव जीतने वाले गायक बाबुल सुप्रियो को भी राज्य मंत्री बना दिया गया है. यह वही बाबुल सुप्रियो हैं जिन्होंने आसनसोल में ऐतिहासिक सफलता बीजेपी को दिलायी थी, लेकिन हाल ही में उनके चुनाव क्षेत्र में उनके गुमशुदा होने के पोस्टर भी लगाये गये थे. बंगाल में दो साल बाद होने वाले विधान सभा चुनावों पर अमित शाह की नजर है और इसलिए ही बाबुल को मंत्री नहीं बनाया गया तो फिर किस वजह से मंत्री बनाया गया?
इसी तरह के कई नाम लिए जा सकते हैं. बिहार में गिरिराज सिंह के विवादास्पद बयानों से मोदी भी सहमत नहीं थे, जिसमें उन्होंने मोदी विरोधियों को पाकिस्तान भेज देने की बात की थी. लेकिन अगले साल चुनाव हैं और भूमिहार वोटों पर बीजेपी की नजर है. हो सकता है कि यह बात बीजेपी नेताओं को बुरी लगे, लेकिन सवाल तो उठता ही है कि क्या मुख्तार अब्बास नकवी को सिर्फ इसलिए राज्य मंत्री ही बनाया गया क्योंकि मुसलिम वोटों से बीजेपी का ज्यादा वास्ता नहीं है. उनके मुकाबले नोयडा के पहली बार बने सांसद महेश शर्मा को स्वतंत्र प्रभार का मंत्री बनाना भी यही संकेत देता है कि जाति के साथ-साथ मजहब को भी तरजीह दी गयी है.
दूसरी वजह है कि मोदी शायद 75 साल की उम्र सीमा को बहुत गंभीरता से लेने वाले हैं. यही कारण है कि 14 राज्य मंत्री बनाये गये हैं, पहली बार लोकसभा चुनाव जीतने वालों को भी मंत्री बनाया गया है और दूसरे दलों से आने वालों को भी मंत्रालय थमाया गया है.
ऐसा लगता है कि मोदी आगे की टीम तैयार कर रहे हैं. उनके पास बहुत ज्यादा विकल्प वैसे भी नहीं हैं. लगता यही है कि वो ट्रेनी मंत्री तैयार कर रहे हैं जिन्हे अनुभव दिलाया जाए और आगे जाकर बड़ी जिम्मेदारी दी जा सके. अगर ऐसा है तो इसे मोदी की दूरदृष्टि ही कहा जायेगा.

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