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संसाधनों के आवंटन में हो पारदर्शिता

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पवन के वर्मा सांसद एवं पूर्व प्रशासक जहां तक कोयला आवंटन का मामला है, सच्चाई तो यह है कि इस देश में कोयला-खनन एक बड़ा घोटाला है. पांच वर्ष पहले हमारे देश में कोयले की कमी 43 मिलियन टन थी. आज यह कमी बढ़ कर 140 मिलियन टन से अधिक हो गयी है. यह एक […]

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पवन के वर्मा
सांसद एवं पूर्व प्रशासक
जहां तक कोयला आवंटन का मामला है, सच्चाई तो यह है कि इस देश में कोयला-खनन एक बड़ा घोटाला है. पांच वर्ष पहले हमारे देश में कोयले की कमी 43 मिलियन टन थी. आज यह कमी बढ़ कर 140 मिलियन टन से अधिक हो गयी है. यह एक ऐसे देश के लिए अविश्वसनीय स्थिति है, जहां दुनिया का चौथा सबसे बड़ा कोयला भंडार है. इस कृत्रिम कमी का कारण, जो कि
सांठ-गांठ वाले पूंजीवाद की जड़ है, सरकार को वर्षो से स्पष्ट रूप से पता है.
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा हाल में 1993 से हुए कोयला ब्लॉकों के 218 आवंटनों में से 214 को रद्द किये जाने के निर्णय के बाद निवेश के गंतव्य के रूप में भारत की छवि पर इसके असर को लेकर एक दिलचस्प बहस छिड़ गयी है. एक सोच यह मानती है कि ऐसे न्यायिक निर्णयों से, जो पहले से तय नीतियों पर लागू होती हैं, आर्थिक व्यवस्था का पूर्वानुमान प्रभावित होता है. जाने-माने अर्थशास्त्री और कॉरपोरेट व्यक्तित्व गुरचरण दास ने एक टेलीविजन कार्यक्रम में, जिसमें मैं भी शामिल था, यहां तक कह दिया कि ऐसे निर्णय हमें ‘बनाना रिपब्लिक’ के स्तर तक पहुंचा देते हैं.
उनका तर्क था कि आधिकारिक रूप से दी गयीं आर्थिक मंजूरियां अगर वर्षो बाद खारिज की जा सकती हैं, तो फिर कोई निवेशक भारत में पूंजी क्यों लगायेगा.
मैं ऐसे विचारों से असहमत हूं. यह सही है कि पहले तय की गयीं नीतियों पर लागू होनेवाले न्यायिक निर्णय आर्थिक परिदृश्य पर असर डालते हैं और यह प्रक्रिया रोजमर्रा की बात नहीं बननी चाहिए. लेकिन दीर्घकालीन दृष्टि से, इस तथ्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि हमें एक पारदर्शी और पूर्वानुमान लगाने लायक वैधानिक और आर्थिक ढांचा तैयार करना चाहिए, तथा सांठगांठ वाले पूंजीवाद और भ्रष्टाचार को समाप्त करना चाहिए, ताकि निवेश के लिए एक भरोसेमंद स्थान के रूप में भारत की छवि को सुनिश्चित किया जा सके.
राजकीय संसाधनों के मामलों में तो ऐसा करना विशेष रूप से प्रासंगिक है. इस क्षेत्र में वर्षो से भारी भ्रष्टाचार व्याप्त है. जमीन, खनिज, वन, डिजिटल स्पेक्ट्रम आदि के लाइसेंस सरकारी संस्थाएं कम कीमत पर या पक्षपात से बेचती रही हैं. 2जी आवंटन और कोयला घोटाले ऐसे लेन-देन के बड़े उदाहरण हैं, जबकि ऐसे बहुत-सारे मामले हैं, जिन पर लोगों और मीडिया का ध्यान कम गया है.
अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश लुइस ब्रांडिस ने एक बार कहा था कि सूरज की रोशनी ऐसे मामलों का बेहतरीन उपचार है. हमें सरकारी निर्णय-प्रक्रिया के परदा पड़े गलियारों में प्रवेश के लिए सूरज की रोशनी चाहिए. इसके लिए, सबसे पहला कदम सभी सरकारी लेन-देन को पूरी तरह पारदर्शी बनाना है. कोयला आवंटन के मामले में हमारे सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय इस दिशा में एक ठोस कदम है.
इस निर्णय की अगली कड़ी के रूप में सरकार को ऐसे मामलों के लिए स्पष्ट नियम और प्रक्रिया तैयार करना चाहिए. इसके लिए जरूरी है कि संसद सभी सार्वजनिक संसाधन के बंटवारे के लिए विस्तृत नियमन के साथ एक व्यापक कानून पारित करे. स्पष्ट नियमों के साथ इस नये कानून में आम लोगों के लिए जानकारी लेने की व्यवस्था हो, तथा निम्नलिखित प्रावधान शामिल किये जायें : (1) लेन-देन के लिए नीतिगत ढांचा (2) लागू होनेवाले नियम और प्रावधान (3) निविदा के लिए वांछित योग्यताएं (4) चुनाव-प्रक्रिया के तरीके, इस संबंध में कोई सामाजिक नीति की बाध्यता न हो, तो प्रतिस्पर्धात्मक ऑनलाइन निविदा की प्रक्रिया सबसे पारदर्शी तरीका है, जिससे स्वस्थ प्रतियोगिता होगी और सरकार को अधिक आय होगी (5) ऐसी शर्ते, जिनके तहत कुछ विशेष आवंटनों के लिए स्वतंत्र नियामक संस्था की जरूरत हो (6) इ-तकनीक का प्रयोग ताकि सार्वजनिक निगरानी सुनिश्चित हो सके. (7) समयबद्ध रूप से विवरणों को पूरी तरह से सार्वजनिक करना, और (8) अनैतिक गतिविधियों के लिए दंड.
राजकीय संसाधनों से संबंधित बड़े लेन-देन की निगरानी के लिए एक स्वतंत्र राष्ट्रीय पारदर्शिता आयोग का गठन भी अच्छा उपाय हो सकता है. जरूरत पड़ने पर यह आयोग एक निश्चित राशि से अधिक के कारोबार की निगरानी के लिए एक अस्थायी नियामक प्राधिकरण की स्थापना की संस्तुति कर सकता है. किसी पीड़ित पक्ष के लिए न्यायालय की शरण में जाने का विकल्प तो हमेशा उपलब्ध है, लेकिन ऐसी कार्रवाइयां सूचना के अधिकार के तहत आनी चाहिए, और सभी लेन-देन के लेखा-जोखा का अधिकार नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक के पास बना रहना चाहिए.
ऐसे ढांचे के बनने के बाद ही आर्थिक निर्णयों में पारदर्शिता और पूर्वानुमान की क्षमता आ सकेगी. विदेशी और देशी निवेशकों के लिए पूर्वानुमान लगा पाने की स्थिति को नैतिकता और संस्थानिक वैधानिकता से ऊपर रखने का तर्क स्वार्थी और तिकड़मी है. समुचित नियामक और प्रक्रियात्मक ढांचे की स्थापना के क्रम में कुछ व्यवस्थाओं को पहले के फैसलों पर भी लागू करने आवश्यकता होगी. इसे एक युवा गणराज्य द्वारा अपने तंत्र को दुरुस्त करने की प्रक्रिया के रूप में देखा जाना चाहिए, जिसमें उसके लोगों का हित है और जो भविष्य की बेहतरी के लिए है. अल्पकालीन अवरोधों को सरकार और निवेशक- दोनों के दीर्घकालीन लाभों के बरक्स रख कर देखा जाना चाहिए.
जहां तक कोयला आवंटन का मामला है, सच्चाई तो यह है कि इस देश में कोयला-खनन एक बड़ा घोटाला है. पांच वर्ष पहले हमारे देश में कोयले की कमी 43 मिलियन टन थी. आज यह कमी बढ़ कर 140 मिलियन टन से अधिक हो गयी है. यह एक ऐसे देश के लिए अविश्वसनीय स्थिति है, जहां दुनिया का चौथा सबसे बड़ा कोयला भंडार है.
इस कृत्रिम कमी का कारण, जो कि सांठ-गांठ वाले पूंजीवाद की जड़ है, सरकार को वर्षो से स्पष्ट रूप से पता है. सार्वजनिक उपक्रम कोल इंडिया लिमिटेड का एकाधिकार समाप्त होना चाहिए. सरकार यह स्वीकार करती है कि यह कंपनी अपने खनन का 25 फीसदी बरबाद कर देती है. इस स्थिति में जरूरी है कि कोयला नियामक बने, मूल्य-निर्धारण प्रक्रिया में सुधार हो और कोयला क्षेत्र में निजी क्षेत्र के प्रवेश की अनुमति हो. दूसरा, हालांकि पर्यावरण से जुड़े मुद्दे महत्वपूर्ण हैं, खनन प्रस्तावों की मंजूरी की अनिश्चित और मनमानी नीति के कारण 203 खनन ब्लॉकों में 600 मिलियन टन कोयला लंबित पड़ा है.
न्यायालय के निर्णय से मोदी सरकार को नये सिरे से शुरुआत और तंत्र को साफ करने का मौका मिला है और उसे इस बात साबित करने में समय बरबाद नहीं करना चाहिए कि यूपीए के आवंटन उनके आवंटनों से अधिक भ्रष्ट थे. निर्णय ने 1993 के बाद के सभी आवंटन रद्द किया है. इसमें यूपीए और एनडीए समान रूप से दोषी हैं. इस निर्णय में सभी सरकारों के लिए सीख है, और उन अर्थशास्त्रियों के लिए भी सीख है, जिनकी नजर में देश के नुकसान की कीमत पर बड़े उद्योगों के अल्पकालिक फायदे अधिक महत्वपूर्ण हैं.

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