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अनिश्चितता के दौर से उबरेगा बिहार?

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उपचुनावों के नतीजों से एक हल्की सी आस मोदी विरोधी खेमे में जरूर दिखाई दे रही है, लेकिन इनसे भविष्य की राजनीतिक दिशा का कोई संकेत नहीं मिलता है. इसलिए बिहार में राजनीतिक अनिश्चितता का दौर विधानसभा चुनाव तक बना रहेगा. आम तौर पर किसी भी राज्य में कुछ सीटों पर हुए उपचुनाव के नतीजों […]

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उपचुनावों के नतीजों से एक हल्की सी आस मोदी विरोधी खेमे में जरूर दिखाई दे रही है, लेकिन इनसे भविष्य की राजनीतिक दिशा का कोई संकेत नहीं मिलता है. इसलिए बिहार में राजनीतिक अनिश्चितता का दौर विधानसभा चुनाव तक बना रहेगा.

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आम तौर पर किसी भी राज्य में कुछ सीटों पर हुए उपचुनाव के नतीजों से पूरे राज्य की राजनीतिक स्थिति या फिर भविष्य में होनेवाले विधानसभा चुनावों की कोई स्पष्ट तसवीर सामने नहीं आती है. कुछ सीटों के नतीजों के आईने में राज्य में राजनीतिक दलों के किसी नये गंठबंधन या पुर्नगठबंधन की सफलता या विफलता का आकलन करना भी उचित नहीं है. कुछ सीटों के उपचुनावों में आम तौर पर स्थानीय समीकरण और मुद्दे अधिक प्रभावी होते हैं. हालांकि इस बार बिहार में दस विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनावों का मामला थोड़ा भिन्न है.

इस उपचुनाव से पहले बिहार में जनता दल यू और राष्ट्रीय जनता दल के बीच हुआ गंठबंधन काफी कुछ 1992 में बाबरी मसजिद विध्वंस के बाद उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के मिलने जैसा है. उस समय उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के समर्थकों का उत्साह चरम पर दिख रहा था, जबकि मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी और काशीराम की बहुजन समाज पार्टी के समर्थकों में निराशा का माहौल था.

ऐसे समय में किसी को यह उम्मीद नहीं थी कि अगले साल यानी 1993 में होनेवाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में मुलायम सिंह अपना जनसमर्थन वापस हासिल कर लेंगे. बसपा तो राज्य की राजनीति में लगभग हाशिये पर पहुंच गयी लग रही थी और कोई भी पार्टी उसके साथ जुड़ना नहीं चाह रही थी.

ऐसे वक्त में मुलायम सिंह ने बसपा को अपने साथ लिया था. मुलायम सिंह ने जनता दल से अलग होकर 1992 में समाजवादी पार्टी का गठन किया था. 1993 के विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी के बसपा के साथ गंठबंधन को लेकर सामाजिक मंचों पर काफी प्रतिक्रियाएं देखने को मिली थीं. ज्यादातर राजनीतिक विश्लेषकों को भी मुलायम सिंह का कदम अचरज में डाल रहा था! राज्य में खास कर अगड़ी जातियों के मतदाता मुलायम सिंह और कांशीराम को नकारात्मक शक्तियों के रूप में देख रहे थे. लेकिन, 1993 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों का नतीजा उम्मीदों के विपरीत आया था.

भाजपा अपना वोट प्रतिशत बढ़ा कर भी पर्याप्ट सीटें नहीं जीत सकी और सपा-बसपा गंठबंधन से पीछे रह गयी थी. आखिर मुलायम सिंह के नेतृत्व में गंठबंधन की सरकार बनी, जिसे कांग्रेस और जनता दल ने समर्थन दिया. माना गया कि यह उत्तर प्रदेश के सामाजिक समीकरणों की जीत है. यह और बात है कि सपा और बसपा का यह गंठबंधन अधिक समय तक जारी नहीं रह सका. लेकिन, यह तथ्य फिर सही साबित हुआ कि जब भी भाजपा विरोधी राजनीतिक शक्तियां एकजुट होकर चुनाव मैदान में उतरती हैं, तो भाजपा को मुश्किलों का सामना करना पड़ता है.

इस समय बिहार में 1992-93 के उत्तर प्रदेश के घटनाक्रम का दोहराव होता दिख रहा है. राज्य में विधानसभा की दस सीटों के उपचुनाव से पहले नीतीश कुमार और लालू प्रसाद का आपसी मतभेद भुलाकर एक मंच पर आना और गंठबंधन कर चुनाव मैदान में उतरना सामान्य तौर पर अचरज में डालनेवाला कदम लग सकता है. लेकिन, इस महागंठबंधन को राजनीतिक अवसरवादिता का नमूना कहना उचित नहीं होगा, जैसा कि उनके विरोधी आरोप लगा रहे हैं.

भारतीय राजनीति का इतिहास गवाह है कि लगभग सभी राजनीतिक दल तात्कालिक परिस्थितियों और अपनी सुविधा के मुताबिक अन्य दलों के साथ गंठबंधन बनाते और तोड़ते रहे हैं. यदि जदयू का राजद के साथ गंठबंधन करना राजनीतिक अवसरवादिता है, तो इस तरह के आरोप देश के लगभग सभी दलों पर लगने चाहिए.

अब जिस महत्वपूर्ण सवाल के जवाब का इंतजार बिहार और देश की जनता को है, वह यह है कि क्या नीतीश कुमार और लालू प्रसाद के गंठबंधन का जोर फिर से राज्य में जातीय और सामाजिक समीकरणों को भुनाने पर होगा, या अब उनका फोकस बिहार को विकास के एक नये दौर में ले जाने पर होगा? 2014 के लोकसभा चुनावों के दौरान नरेंद्र मोदी ने विकास के नये मुहाबरे गढ़े और जनता ने जाति और धर्म की राजनीति से ऊपर उठ कर उनके पक्ष में भरपूर जनादेश दिया.

नरेंद्र मोदी ने सभी आयुवर्ग के लोगों को विकास के सपने दिखाये और देश के साथ-साथ बिहार के मतदाताओं ने भी उन सपनों के प्रति अपनी ललक को प्रदर्शित किया. ऐसे में यह सवाल काफी अहम हो जाता है कि नीतीश कुमार और लालू प्रसाद के गंठबंधन के बाद भी बिहार के मतदाताओं में विकास के प्रति वह ललक बनी रहेगी या राज्य में जातीय समीकरणों की राजनीति फिर से हावी हो जायेगी? दूसरे शब्दों में कहें तो क्या बिहार में अराजकता का वह माहौल फिर से कायम होगा, जो कभी लालू प्रसाद के शासन के दौरान था? लालू प्रसाद को यदि अपनी पिछली राजनीतिक भूलों पर सचमुच पछतावा है, तो यह उनके लिए आत्मावलोकन का एक बेहतरीन अवसर है. लेकिन, क्या लालू प्रसाद इसके लिए तैयार हैं?

इस सवाल के जवाब से ही बिहार के भविष्य की दिशा तय होनी है. यदि नीतीश कुमार और लालू प्रसाद समाज के दबे-पिछड़े तबकों के साथ-साथ अल्पसंख्यकों को गोलबंद कर सकारात्मक राजनीति के जरिये उनके विकास की नयी योजना तैयार करेंगे, तब महागंठबंधन का यह प्रयास राज्य के लिए सार्थक साबित होगा, लेकिन यदि वे फिर से बिहार को जातीय राजनीति के पुराने दौर में ले जाने का प्रयास करेंगे, तब इसके परिणाम काफी भयावह होंगे. बिहार नकारात्मक राजनीति के कुपरिणामों को लंबे समय तक भोग चुका है. इसलिए उम्मीद की जानी चाहिए कि न तो राजनेता राज्य को उस पुराने दौर में ले जाने का प्रयास करेंगे और न ही मतदाता इस तरह के प्रयासों के प्रति दिग्भ्रमित होंगे.

दस विधानसभा सीटों के उपचुनावों के नतीजों से एक हल्की सी आस नरेंद्र मोदी विरोधी खेमे में जरूर दिखाई दे रही है, लेकिन इन नतीजों से भविष्य की राजनीतिक दिशा का कोई संकेत नहीं मिलता है. जिस तरह उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा के मिलन को चुनावी सफलता मिलने के बावजूद उनका गंठबंधन अधिक समय तक नहीं चल पाया और आज वे फिर से एक-दूसरे के सबसे बड़े राजनीतिक शत्रु बने हुए हैं, उसी तरह नजर इस बात पर भी रहेगी कि जदयू और राजद का यह महागंठबंधन अगले साल होनेवाले विधानसभा चुनाव तक और मजबूत होता है या कमजोर. कुल मिलाकर, दस सीटों के उपचुनावों के नतीजों के बाद भी बिहार में राजनीतिक अनिश्चितता तब तक बनी रहेगी, जब तक कि विधानसभा चुनाव नहीं हो जाते.

अजय सिंह

एडिटर, गवर्नेस नाउ

ajay@governancenow.com

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