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महात्मा गांधी राष्ट्रपिता अन्य देशों के बारे में कुछ भी सही हो, कम-से-कम भारत में तो-जहां अस्सी फीसदी आबादी खेती करनेवाली है और दूसरी दस फीसदी उद्योगों में काम करनेवाली है- शिक्षा को निरी साहित्यिक बना देने तथा लड़कों और लड़कियों को उत्तर-जीवन में हाथ के काम के लिए अयोग्य बना देना गुनाह है. मेरी […]

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महात्मा गांधी
राष्ट्रपिता
अन्य देशों के बारे में कुछ भी सही हो, कम-से-कम भारत में तो-जहां अस्सी फीसदी आबादी खेती करनेवाली है और दूसरी दस फीसदी उद्योगों में काम करनेवाली है- शिक्षा को निरी साहित्यिक बना देने तथा लड़कों और लड़कियों को उत्तर-जीवन में हाथ के काम के लिए अयोग्य बना देना गुनाह है. मेरी तो राय है कि चूंकि हमारा अधिकांश समय अपनी रोजी कमाने में लगता है, इसलिए हमारे बच्चों को बचपन से ही इस प्रकार के परिश्रम का गौरव सिखाना चाहिए.
हमारे बालकों की पढ़ाई ऐसी नहीं होनी चाहिए, जिससे वे मेहनत का तिरस्कार करने लगें. कोई कारण नहीं कि क्यों एक किसान का बेटा किसी स्कूल में जाने के बाद खेती के मजदूर के रूप में आजकल की तरह निकम्मा बन जाये. यह अफसोस की बात है कि हमारी पाठशालाओं के लड़के शारीरिक श्रम को तिरस्कार की दृष्टि से चाहे न देखते हों, पर नापसंदगी की नजर से तो जरूर देखते हैं.
मेरी राय में तो इस देश में, जहां लाखों आदमी भूखों मरते हैं, बुद्धिपूर्वक किया जानेवाला श्रम ही सच्ची प्राथमिक शिक्षा या प्रौढ़ शिक्षा है.
अक्षर-ज्ञान हाथ की शिक्षा के बाद आना चाहिए. हाथ से काम करने की क्षमता- हस्त-कौशल ही तो वह चीज है, जो मनुष्य को पशु से अलग करती है. लिखना-पढ़ना जाने बिना मनुष्य का संपूर्ण विकास नहीं हो सकता, ऐसा मानना एक वहम ही है. इसमें कोई शक नहीं कि अक्षर-ज्ञान से जीवन का सौंदर्य बढ़ जाता है, लेकिन यह बात गलत है कि उसके बिना मनुष्य का नैतिक, शारीरिक और आर्थिक विकास हो ही नहीं सकता.
मेरा मत है कि बुद्धि की सच्ची शिक्षा हाथ, पैर, आंख, कान, नाक आदि शरीर के अंगों के ठीक अभ्यास और शिक्षण से ही हो सकती है. दूसरे शब्दों में, इंद्रियों के बद्धिपूर्वक उपयोग से बालक की बुद्धि के विकास का उत्तम और शीघ्रतम मार्ग मिलता है. परंतु जब तक मस्तिष्क और शरीर का विकास साथ-साथ न हो और उसी प्रमाण में आत्मा की जागृति न होती रहे, तब तक केवल बुद्धि के एकांगी विकास से कुछ विशेष लाभ नहीं होगा. आध्यात्मिक शिक्षा से मेरा आशय हृदय की तालीम से है.
इसलिए मस्तिष्क का ठीक और चतुर्मुखी विकास तभी हो सकता है जब वह बच्चे की शारीरिक और आध्यात्मिक शक्तियों की तालीम के साथ-साथ होता हो. ये सब बातें एक और अविभाज्य हैं. इसलिए इस सिद्धांत के अनुसार यह मान बैठना बिलकुल गलत होगा कि उनका विकास टुकड़े-टुकड़े करे या एक-दूसरे से स्वतंत्र रूप में किया जा सकता है.
शरीर, मन और आत्मा की विविध शक्तियों में ठीक-ठीक सहकार और सुमेल न होने के दुष्परिणाम स्पष्ट हैं. वे हमारे चारों ओर विद्यमान हैं; इतना ही है कि वर्तमान विकृत संस्कारों के कारण वे हमें दिखायी नहीं देते.
मनुष्य न तो कोरी बुद्धि है, न स्थूल शरीर है और न केवल हृदय या आत्मा ही है. संपूर्ण मनुष्य के निर्माण के लिए तीनों के उचित और एकरस मेल की जरूरत होती है और यही शिक्षा की सच्ची व्यवस्था है.
शिक्षा से मेरा अभिप्राय यह है कि बालक की या प्रौढ़ के शरीर, मन तथा आत्मा की उत्तम क्षमताओं को उद्घाटित किया जाये और बाहर प्रकाश में लाया जाये. अक्षर-ज्ञान तो शिक्षा का अंतिम लक्ष्य है, न कि उसका आरंभ. वह तो मनुष्य की शिक्षा के कई साधनों में से केवल एक साधन है.
अक्षर-ज्ञान अपने-आप में शिक्षा नहीं है. इसलिए मैं बच्चे की शिक्षा का श्रीगणेश उसे कोई उपयोगी दस्तकारी सिखाकर और जिस क्षण से वह अपनी शिक्षा का आरंभ करे, उसी क्षण से उसे उत्पादन के योग्य बनाकर करूंगा. मेरा मत है कि इस प्रकार की शिक्षा-प्रणाली में मस्तिष्क और आत्मा का उच्चतम विकास संभव है. अलबत्ता, प्रत्येक दस्तकारी आजकल की तरह निरे यांत्रिक ढंग से न सिखाकर वैज्ञानिक तरीके पर सिखानी पड़ेगी, अर्थात बालक को प्रत्येक क्रिया का क्यों और कैसे बताना होगा.
शिक्षा की मेरी योजना में हाथ अक्षर लिखना सीखने के पहले औजार चलाना सीखेंगे. आंखें जिस तरह दूसरी चीजों को तस्वीरों के रूप में देखती और उन्हें पहचानना सीखती हैं, उसी तरह वे अक्षरों और शब्दों को तस्वीरों की तरह देखकर उन्हें पढ़ना सीखेंगी और कान चीजों के नाम और वाक्यों का आाशय पकड़ना सीखेंगे.
गरज यह कि सारी तालीम स्वाभाविक होगी. बालकों पर वह लादी नहीं जायेगी, बल्कि वे उसमें स्वत: दिलचस्पी लेंगे. और इसलिए यह तालीम दुनिया की दूसरी तमाम शिक्षा-पद्धतियों से जल्दी फल देनेवाली और सस्ती होगी.
हाथ का काम इस सारी योजना का केंद्र बिंदु होगा. हाथ की तालीम का मतलब यह नहीं होगा कि विद्यार्थी पाठशाला के संग्रहालय में रखने लायक वस्तुएं या ऐसे खिलौने बनायें, जिनका कोई मूल्य नहीं. उन्हें ऐसी वस्तुएं बनाना चाहिए, जो बाजार में बेेची जा सकें. कारखानों के प्रारंभिक काल में जिस तरह बच्चे मार के भय से काम करते थे, उस तरह हमारे बच्चे यह काम नहीं करेंगे. वे उसे इसलिए करेंगे कि इससे उन्हें आनंद मिलता है और उनकी बुद्धि को स्फूर्ति मिलती है.
भारत के लिए नि:शुल्क और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा के सिद्धांत मैं दृढ़तापूर्वक मानता हूं. मैं यह भी मानता हूं कि इस लक्ष्य को पाने का सिर्फ यही एक रास्ता है कि हम बच्चों को कोई उपयोगी उद्योग सिखायें और उसके द्वारा उनकी शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक शक्तियों का विकास सिद्ध करें.
ऐसा किया जाये, तो हमारे गांवों के लगातार बढ़ रहे नाश की प्रक्रिया रुकेगी और ऐसी न्यायपूर्ण समाज-व्यवस्था की नींव पड़ेगी, जिसमें अमीरों और गरीबों के अस्वाभाविक विभेद की गुंजाइश नहीं होगी और हर एक को जीवन-मजदूरी और स्वतंत्रता के अधिकारों का आश्वासन दिया जा सकेगा.
ओटाई और कताई आदि गांवों में चलने योग्य हाथ-उद्योगों के द्वारा प्राथमिक शिक्षण की मेरी योजना की कल्पना चुपचाप चलनेवाली ऐसी सामाजिक क्रांति के रूप में की गयी है, जिसके अत्यंत दूरगामी परिणाम होंगे. वह शहरों और गांवों मे स्वस्थ और नैतिक संबंधों की स्थापना के लिए सुदृढ़ आधार पेश करेगी और इस तरह मौजूदा सामाजिक अरक्षितता और वर्गों के पारस्परिक संबंधों की मौजूदा कटुता की बुराइयां बड़ी हद तक दूर होंगी.
(22-23 अक्तूबर, 1937 को वर्धा में अखिल भारतीय शैक्षिक सम्मेलन में दिये गये भाषण का अंश.)

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