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भारत की मुख्य सुरक्षा चुनौती चीन

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प्रो सतीश कुमार अंतरराष्ट्रीय मामले विशेषज्ञ singhsatis@gmail.com पुलवामा में आतंकी हमले के बाद से देश के भीतर रोष है. अवाम अब बदला मांग रही है. भारत ने 1996 में पाकिस्तान को दिये मोस्ट फेवर्ड नेशंस का दर्जा छीन लिया है. यह सबसे पहला कूटनीतिक कदम है. लेकिन इसका प्रभाव ज्यादा नहीं पड़ेगा, क्योंकि दोनों देशों […]

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प्रो सतीश कुमार

अंतरराष्ट्रीय मामले विशेषज्ञ

singhsatis@gmail.com

पुलवामा में आतंकी हमले के बाद से देश के भीतर रोष है. अवाम अब बदला मांग रही है. भारत ने 1996 में पाकिस्तान को दिये मोस्ट फेवर्ड नेशंस का दर्जा छीन लिया है. यह सबसे पहला कूटनीतिक कदम है. लेकिन इसका प्रभाव ज्यादा नहीं पड़ेगा, क्योंकि दोनों देशों के बीच व्यापार का आकार छोटा है.

दूसरा प्रयास भारत को नदी जल बटवारे को खत्म करना चाहिए, इसका जख्म ज्यादा गंभीर होगा. चूंकि चीन पूरी तरह पाकिस्तान के साथ खड़ा है, इसलिए इस हमले के बाद भी चीन मसूद अजहर को अंतरराष्ट्रीय आतंकी घोषित करने से मुकर गया. चीन की सामरिक सोच और व्यूह-रचना भारत के लिए ज्यादा गंभीर है. चीन के जेहन को समझना ज्यादा जरूरी है.

दरअसल, मोदी ने पिछले दिनों अरुणाचल प्रदेश में चार हजार करोड़ से ज्यादा की परियोजनाओं का शिलान्यास और लोकार्पण किया. मोदी ने होल्लोंगी में ग्रीनफील्ड हवाई अड्डे की नींव रखी और लोहित जिले के तेजू में रेस्टोफिटेड हवाई अड्डे का उद्घाटन किया.

ईटानगर में पीएम मोदी ने कहा कि हमारी सरकार ने अरुणाचल प्रदेश के लिए 44 हजार करोड़ का फंड जारी किया है. यह पिछली सरकारों द्वारा दिये गये फंड से दोगुना है. पिछले दो साल में करीब एक हजार गांव सड़कों से जुड़े हैं. ट्रांस अरुणाचल हाइवे का काम भी प्रगति पर है. चीनी विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता हुआ चुनिइंग ने कहा- ‘भारत-चीन सीमा को लेकर चीन का रुख बिल्कुल स्पष्ट है.’

अरुणाचल प्रदेश में जब-जब भारतीय नेता गये, तब-तब उस पर चीन ने कड़ा विरोध जताया. इस मसले पर चीन कहता है कि भारतीय नेता चीनी चिंताओं को समझें. दोनों देशों के हितों को ध्यान में रखते हुए फायदे और चिंता का सम्मान करें. चीन उत्तर-पूर्वी भारतीय राज्य अरुणाचल प्रदेश को दक्षिणी तिब्बत का हिस्सा होने का दावा करता रहा है. सीमा विवाद को लेकर दोनों देशों के बीच अब तक 21 दौर की वार्ता हो चुकी है.

प्रधानमंत्री मोदी की अरुणाचल यात्रा से चीन बौखला क्यों गया है? ऐसा नहीं है कि चीन ने ऐसा बर्ताव पहली बार किया है. साल 2006 में जब चीन के राष्ट्रपति भारत की यात्रा पर आनेवाले थे, तब भारत में चीन के राजदूत ने पूरे अरुणाचल को चीन का हिस्सा बताकर दोनों देशों के संबंधों में किरकिरी पैदा कर दी थी.

भारत के सेना प्रमुख विपिन रावत ने पिछले महीने यह बात कही थी कि चीन का अतिक्रमण तेज हुआ है. चीन दलाई लामा के तवांग जाने पर भी आग बबूला हुआ था. इसलिए इस बात की जांच जरूरी है कि चीन की बेचैनी का कारण क्या है? अरुणाचल दोनों देशों के बीच में संघर्ष का कारण क्यों बना हुआ है?

चीन के नेता माओत्से तुंग ने कहा था, तिब्बत चीन की दंत शृंखला है और चीन जिह्वा, जब तक दांत मजबूत है तब तक कोई चिंता नहीं. लेकिन यह कमजोर पड़ता है, तो चीन के लिए मुश्किलें बढ़ जायेंगी.चीन की सामरिक सोच आज भी वही है.

अरुणाचल प्रदेश तिब्बत से सबसे नजदीक है, जहां से भारत की सेना या अन्य विदेशी सेना की घुसपैठ आसानी से हो सकती है. दूसरे विश्व युद्ध के दौरान अंग्रेजो ने चीन के भीतर रास्ता बनाने के लिए अरुणाचल प्रदेश का ही क्षेत्र चुना था, इसलिए चीन के युन्नान प्रांत, जो अरुणाचल से बिल्कुल सटा हुआ, आसानी से पहुंचा जा सकता है.

वर्ष 1962 में भारत की हार का कारण भी यही क्षेत्र बना था. मैक्सवेल ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि भारत की तैयारी इस क्षेत्र में बिल्कुल कमजोर थी. भारत सरकार ने सामरिक रूप से अत्यंत संवेदनशील अरुणाचल प्रदेश को कोई तरजीह ही नहीं दी. यह बात सभी को मालूम है. नेहरू के बाद की कांग्रेस की सरकारों ने अरुणाचल प्रदेश को भाग्य के भरोसे छोड़ दिया है.

चीन की बेचैनी के कई कारण हैं. डोकलाम के बाद चीन को पहली बार ऐसा लगा कि भारत चीन से दो हाथ करने के लिए तैयार है. इसके पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था. सीमा विवाद को लेकर चीन रूस, वियतनाम और भारत से लड़ चुका है.

भारत और वियतनाम युद्ध को चीन एक दंडात्मक कार्रवाई मानता है. चीन की सोच यही रही है कि भारत के साथ ‘सलामी स्लिकिंग’ की नीति ही ठीक है. यह जुमला हंगरी के रकसोई ने 1940 में दी थी. इसका अर्थ यह है कि चीन सहजता और धूर्तता के साथ अपनी सीमा का विस्तार निरंतर युद्ध के बिना करता रहता है और साथ में आपसी संबंध को भी बिगड़ने नहीं देता.

चीन के विरुद्ध अमेरिकी घेराबंदी ताइवान और साउथ चाइना-सी में हो चुकी है. भारत भी उस चतर्भुज खेमे का अभिन्न सदस्य है. तिब्बत में चीन के विरुद्ध जान आक्रोश तेज होता जा रहा है.

साल 1950 के दशक में अमेरिका ने प्रशिक्षित तिब्बतियों के जरिये तिब्बत को चीन से आजाद करने की पहल की थी. अगर नेहरू अमेरिका के साथ होते, तो शायद तिब्बत चीन के चंगुल से बाहर निकल चुका होता. चीन की सोच है कि अमेरिका भारत से मिल कर चीन के दांत खट्टे कर सकता है.

इसलिए चीन परेशान है. सत्तर वर्षो बाद चीन को एक बदला हुआ भारत दिखायी दे रहा है, जो चीन से डरनेवाला नहीं है. प्रधानमंत्री मोदी की नीति महज शब्दों तक ही नहीं सीमित है.

भारत की सुरक्षा को मजबूत करने के लिए केवल पाकिस्तान पर दबाव से बात नहीं बनेगी. कूटनीतिक समीकरण के जरिये भी चीन के साथ भारत को आक्रामक नीति अपनानी होगी. यह प्रयास तब तक जारी रहे, जब तक चीन पाकिस्तान को आतंकी देश घोषित न कर दे.

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