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राजनीतिक इतिहास का दोहराव!

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नवीन जोशी वरिष्ठ पत्रकार naveengjoshi@gmail.com सामान्य चुनावी रणनीति यह कहती है कि यदि प्रतिद्वंद्वी लोकप्रिय है, तो सीधा हमला करने की बजाय उसे इधर-उधर से घेरा जाये, ताकि आपके तीर उसकी लोकप्रियता के कवच से टकराकर आपकी ओर न मुड़ आयें. सत्ता-विरोधी रुझानों के बावजूद लोकप्रियता के पैमाने पर प्रधानमंत्री आज भी आगे हैं. जनता […]

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नवीन जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
naveengjoshi@gmail.com
सामान्य चुनावी रणनीति यह कहती है कि यदि प्रतिद्वंद्वी लोकप्रिय है, तो सीधा हमला करने की बजाय उसे इधर-उधर से घेरा जाये, ताकि आपके तीर उसकी लोकप्रियता के कवच से टकराकर आपकी ओर न मुड़ आयें. सत्ता-विरोधी रुझानों के बावजूद लोकप्रियता के पैमाने पर प्रधानमंत्री आज भी आगे हैं. जनता के बड़े वर्ग में मोदी से अब भी काफी उम्मीदें हैं. कम-से-कम उन्हें भ्रष्ट मानने को कोई तैयार नहीं है. तब क्या कारण है कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी सीधे नरेंद्र मोदी पर लगातार भ्रष्टाचार और पक्षपात के आरोप लगा रहे हैं?
हाल के दिनों में उनके आरोप बहुत तीखे, अशालीन और अवमानना की सीमा तक पहुंच रहे हैं. फ्रांस के साथ राफेल विमान सौदे के बारे में वे ‘चौकीदार चोर है’ चीख रहे हैं. यह ठीक नहीं है. ऐसा दिख रहा है कि राहुल ने 2019 के मुकाबले में मोदी के विरुद्ध इसे ही अपना बड़ा हथियार बना लिया है. राहुल को कोई चिंता नहीं दिखती कि साफ छवि वाले नरेंद्र मोदी पर उनके आरोप उनको ही भारी न पड़ जायें.
इस प्रसंग में साल 1989 की याद आना स्वाभाविक है, जब विश्वनाथ प्रताप सिंह बोफोर्स-दलाली के संगीन आरोप लगाकर तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी पर लगातार हमले कर रहे थे. यह उनकी आक्रामक रणनीति ही थी कि ‘मिस्टर क्लीन’ राजीव गांधी के दामन पर धब्बे लगे और वे लोकप्रियता के शिखर से लुढ़क गये थे. प्रश्न है कि क्या राहुल गांधी कभी अपने पिता के विश्वस्त सहयोगी रहे और बाद में कट्टर शत्रु बन गये वीपी सिंह की उसी रणनीति पर चल रहे हैं?
राजीव गांधी और नरेंद्र मोदी के हालात में कई साम्य हैं. सरकारी तंत्र और राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार से मुक्ति, पारदर्शिता, परिवर्तन और आशा की नयी किरण दिखाने के लिए राजीव गांधी जाने गये, तो नरेंद्र मोदी ने भी जनता में ऐसी ही उम्मीदें जगायीं. दोनों को ही जनता ने अपार बहुमत के साथ सत्ता में बिठाया. हालांकि, बड़ी उम्मीदों के कारण दोनों से कुछ निराशाएं भी घिरने लगीं. दोनों में कुछ असमानताएं भी हैं.
राजीव सलाहकारों और दोस्तों पर पूरी तरह निर्भर थे, तो नरेंद्र मोदी सलाहकारों से ज्यादा अपनी राह चलते हैं. राजीव को बरगलाना आसान था, लेकिन मोदी के बारे में ऐसी कल्पना भी नहीं की जा सकती.
बोफोर्स में दलाली की सच्ची-झूठी कहानियों से राजीव आसानी से घिर गये थे, क्योंकि उन्हें चुनौती देनेवाला पहले उनका विश्वस्त सहयोगी हुआ करता था. राजीव गांधी की सरकार से बगावत करके वीपी सिंह ने जब बोफोर्स सौदे में दलाली के आरोप लगाये, तो जनता ने आसानी से उन पर विश्वास कर लिया था.
वीपी सिंह राजनीति के चतुर खिलाड़ी भी थे. वे जनसभाओं में अपनी जेब से एक पर्ची निकालकर लहराया करते थे कि इसमें दलाली खानेवालों के नाम हैं और जैसे ही हमारी सरकार बनेगी, वे सभी जेल के भीतर होंगे. विपक्ष के लिए वीपी सिंह शानदार अवसर बनकर आये थे. इसलिए वे उनके समर्थन में खड़े हो गये थे. इस तरह साल 1984 में चार सौ से ज्यादा लोकसभा सीटें जीतनेवाले राजीव गांधी साल 1989 में 200 के आंकड़े से नीचे रह गये और फिर कई दलों के समर्थन से वीपी सिंह की सरकार बन गयी थी.
राफेल सौदे में भ्रष्टाचार और पक्षपात का आरोप लगाकर 2019 में नरेंद्र मोदी को परास्त करने की रणनीति पर चल रहे राहुल गांधी क्या वीपी सिंह की स्थिति में हैं? शायद नहीं. वीपी सिंह चूंकि सरकार से बगावत करके आये थे, इसलिए उन पर ईमानदारी का ठप्पा लग गया था.
इसके ठीक उलट राहुल जिस कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष हैं, उसकी पूर्व सरकारों पर भ्रष्टाचार के बहुत सारे आरोप हैं. वीपी सिंह को झूठा साबित करने के लिए राजीव गांधी के पास कुछ नहीं था. राहुल पर जवाबी हमला करने के लिए मोदी की टीम के पास ढेरों मुद्दे हैं. उनके पिता पर लगे बोफोर्स दलाली के आरोप भले साबित न हुए हों, लेकिन भाजपा ने गांधी परिवार के खिलाफ बोफोर्स-दलाली को आज तक अपना बड़ा हथियार बनाये हुए है.
साल 1989 में विरोधी दलों का साथ आना वीपी सिंह की बड़ी ताकत बना था. देवीलाल, चंद्रशेखर, मुलायम सिंह जैसे कई धुरंधर तब वीपी सिंह को अपना नेता मानने को मजबूर हो गये थे. लेकिन, साल 2019 की लड़ाई के लिए विरोधी दल राहुल की कांग्रेस का साथ देने में कई शंकाओं से घिरे हुए हैं. स्वयं राहुल की छवि भी अब तक ऐसी नहीं बन पायी है कि अन्य दल उन्हें गठबंधन का नेता मानने के लिए आसानी से तैयार हो जाएं.
आज की भाजपा बहुत ताकतवर है और राहुल की कांग्रेस प्रचार के मोर्चे पर कमजोर है. तब भी राहुल राफेल सौदे को प्रमुख मुद्दा बनाने के लिए पूरी क्षमता से जूझ रहे हैं. महंगाई, बेरोजगारी, खेती एवं अर्थव्यवस्था जैसे मुद्दे भी उन्होंने पीछे छोड़ दिये हैं.
दरअसल, राहुल की रणनीति है कि यदि मोदी के साफ दामन पर वे राफेल के दाग दिखा सकें, तो बाजी पलट जायेगी. लेकिन, मोदी के खिलाफ राहुल की कोशिश जनता में असर डालती नहीं दिख रही है. मगर राहुल ने मुद्दा जोरों से पकड़ रखा है. राफेल सौदे में बरती जा रही कतिपय गोपनीयता उनका तरकश है. वैसे भी राजनीति में सबूतों से ज्यादा आरोपों की बारंबारता काम करती है. राहुल इसी भरोसे तीर छोड़े जा रहे हैं.
अब यह तो वक्त ही बतायेगा कि इतिहास अपने को दोहराता है या नया प्रहसन रचता है. फिलहाल नरेंद्र मोदी कोई राजीव गांधी नहीं हैं. और न ही राहुल का नाम भी कोई वीपी सिंह है.

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