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पहला हक बिहार का है

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II मोहन गुरुस्वामी II वरिष्ठ टिप्पणीकार mohanguru@gmail.com हमारी संसद इस सत्र में भी नहीं चल सकी. इस बार इसकी वजह यह मांग रही कि विभाजन के बाद के शेष बचे आंध्र प्रदेश को विशेष दर्जा दिया जाये. बिहार के लिए भी काफी दिनों से ऐसी ही मांग की जा रही है, जिसकी स्थिति आंध्र प्रदेश […]

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II मोहन गुरुस्वामी II

वरिष्ठ टिप्पणीकार

mohanguru@gmail.com

हमारी संसद इस सत्र में भी नहीं चल सकी. इस बार इसकी वजह यह मांग रही कि विभाजन के बाद के शेष बचे आंध्र प्रदेश को विशेष दर्जा दिया जाये. बिहार के लिए भी काफी दिनों से ऐसी ही मांग की जा रही है, जिसकी स्थिति आंध्र प्रदेश से बहुत भिन्न है.

किसी राज्य को विशेष दर्जा देने की अवधारणा देश के विभिन्न क्षेत्रों के बीच समानता लाने के लिए ही आयी. इसी अवधारणा से साल 1952 की भाड़ा समानीकरण की नीति पैदा हुई, ताकि भारत के सभी हिस्से में स्टील समान लागत पर उपलब्ध हो सके.

लेकिन, इस नीति का नतीजा यह हुआ कि बिहार और भी गरीब होता गया. आज स्थिति यह है कि पंजाब और केरल जैसे समृद्ध राज्यों की प्रति व्यक्ति आय बिहार की 34 हजार रुपये प्रति व्यक्ति वार्षिक आय से छह गुनी अधिक है.

अविभाजित आंध्र प्रदेश के लिए दुधारू गाय के समान लाभप्रद हैदराबाद से वंचित होने के बावजूद प्रति व्यक्ति आय के राष्ट्रीय औसत 1,12,764 रुपये की तुलना में अपनी प्रति व्यक्ति आय 1,42,054 रुपये के साथ वर्तमान आंध्र प्रदेश आर्थिक रूप से देश के संपन्न हिस्सों में एक है. वहीं दूसरी ओर, अविभाजित बिहार के लिए उसके लाभप्रद हिस्से झारखंड से अलगाव के बाद वर्तमान बिहार की प्रति व्यक्ति आय मात्र 34,168 रुपये वार्षिक ही है.

जहां विशेष राज्य के दर्जे के लिए बिहार की मांग अपने पिछड़ेपन पर आधारित है, वहीं आंध्र अपने लिए इस दर्जे की मांग अपने विभाजन के वक्त तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह द्वारा संसद में दिये एक आश्वासन के आधार पर कर रहा है.

अपनी संपन्नता के बल पर हैदराबाद की प्रति व्यक्ति आय 2.99 लाख रुपये वार्षिक है, जबकि इसके पड़ोसी और अधिकतर शहरी रंगारेड्डी जिले में यह 2.88 लाख रुपये है.

इसके बाद वारंगल, निजामाबाद, आदिलाबाद और महबूबनगर जैसे अन्य ग्रामीण जिलों की औसत प्रति व्यक्ति आय दक्षिण या पश्चिम भारत के अन्य ग्रामीण जिलों के ही समान 80 हजार रुपये के आसपास पहुंचती है, जो फिर भी बिहार से ढाई गुनी अधिक है.

बिहार इस स्थिति में कैसे पहुंच गया, इस प्रश्न का उत्तर पाना अधिक कठिन नहीं है. राज्यों के आर्थिक प्रदर्शन और उनकी आबादी की खुशहाली पर केंद्रीय सरकार द्वारा खर्च की जानेवाली धनराशि का सीधा असर होता है.

प्रथम पंचवर्षीय योजना से ही शुरू होकर बिहार तथा यूपी केंद्रीय सरकार द्वारा अल्पनिवेश के शिकार रहे हैं. प्रत्येक योजनावधि में यदि कोई प्रति व्यक्ति विकास व्यय था, तो इसमें बिहार हमेशा सबसे दूरस्थ रहा.

जब मैंने प्रत्येक योजना के अंतर्गत बिहार में हुए निवेश की इस कमी की गणना की, तो उसका योग 1 लाख 80 हजार करोड़ रुपये तक पहुंच गया. आज भी बिहार प्रति व्यक्ति विकास व्यय तथा औद्योगिक और ढांचागत निवेश के हिसाब से अंतिम पायदान पर ही है, जबकि उच्चतम पायदानों पर स्थित राज्यों को प्रति व्यक्ति की दर से बिहार की तुलना में छह गुना ज्यादा तक मिल रहा है.

कारण चाहे जो भी हो, एक अरसे में हम कुछ पिटी-पिटाई बातें स्वीकार कर चुके हैं, जैसे पंजाब की समृद्धि वहां के मेहनती तथा कुछ नया करने को उद्यत किसानों के बल पर आयी है, जबकि बिहार की निर्धनता की वजह इसके समाज के गहरे विभाजन, भ्रष्टाचार एवं कानून-व्यवस्था की खराब स्थिति रही है. सभी सामान्यीकरणों की ही भांति ये सारी मान्यताएं भी गंभीर ढंग से दोषपूर्ण रही हैं.

पंजाब के समृद्ध होने की वजह यही है कि भारत ने उस राज्य में विशाल निवेश किया है, जो प्रायः देश के अन्य क्षेत्रों की कीमत पर हुआ. यदि वर्ष 1955 को लें, तो उस वर्ष सिंचाई के लिए कुल राष्ट्रीय परिव्यय 29,106.30 लाख रुपये था, जिससे पंजाब को 10,952.10 लाख रुपये या 37.62 प्रतिशत मिला.

इसके विपरीत, बिहार ने 1,323.30 लाख रुपये पाये, जो कुल केंद्रीय सिंचाई परिव्यय का 4.54 प्रतिशत था. नेहरू की महत्वाकांक्षी परियोजना भाखरा नंगल बांध के लिए 1,323.30 लाख रुपये का परिव्यय नियोजित था, जिससे अकेले पंजाब के 14.41 लाख हेक्टेयर कृषिभूमि की सिंचाई होती है. इसे छोड़कर भी, सिंचाई के लिए पंजाब का नियोजित परिव्यय बिहार का ढाई गुना था.

नतीजा यह हुआ कि बिहार के पास जहां पंजाब की 3.5 गुनी अधिक कृषियोग्य भूमि थी, वहीं उसकी सिंचित कृषिभूमि का रकबा 36 लाख हेक्टेयर, यानी पंजाब के बराबर ही है.

बिहार को पीछे छोड़कर भारत आगे नहीं जा सकता. पर दुर्भाग्यवश, हम यही करने की कोशिश करते रहे हैं. न केवल हमारे राष्ट्रीय सियासतदानों ने बिहार को निराश किया, बल्कि स्वयं बिहार के राजनेतागण राज्य की पीड़ा और उसके प्रति की गयी नाइंसाफी को उजागर करने में असफल रहे.

पिछले कुछ वर्षों के दौरान बिहार के वर्तमान मुख्यमंत्री द्वारा यह मुद्दा बार-बार उठाया जाता रहा है. उन्होंने तो केवल 60 हजार करोड़ रुपयों की मांग की, जो बिहार के जायज हक का सिर्फ एक तिहाई ही है, पर उसे भी पूरा नहीं किया जा सका है. यह भरपाई कब और कैसे हो सकेगी, यह देखना अभी बाकी है.

(अनुवाद: विजय नंदन)

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