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आंकड़ों की हवस के मायने

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डॉ गोपाल कृष्ण, सामाजिक कार्यकर्ता1715krishna@gmail.com गार्जियन और न्यूयॉर्क टाइम्स के मार्च 17 के फेसबुक घोटाले के खुलासे के बाद अमेरिकी कंपनी फेसबुक के मालिक मार्क जुकरबर्ग को पिछले दो दिनों में 58,500 करोड़ रुपये के नुकसान, ब्रिटिश कंपनी स्ट्रेटेजिक कम्यूनिकेशन लेबोरेटरीज की इकाई कैंब्रिज एनालिटिका की मानवीय आकड़ों की हवस, कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के मनोविज्ञान के […]

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डॉ गोपाल कृष्ण, सामाजिक कार्यकर्ता
1715krishna@gmail.com

गार्जियन और न्यूयॉर्क टाइम्स के मार्च 17 के फेसबुक घोटाले के खुलासे के बाद अमेरिकी कंपनी फेसबुक के मालिक मार्क जुकरबर्ग को पिछले दो दिनों में 58,500 करोड़ रुपये के नुकसान, ब्रिटिश कंपनी स्ट्रेटेजिक कम्यूनिकेशन लेबोरेटरीज की इकाई कैंब्रिज एनालिटिका की मानवीय आकड़ों की हवस, कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के मनोविज्ञान के प्राध्यापक एलेक्जेंडर कोगन की अनैतिकता की पराकाष्ठा और चुनावी लोकतंत्र में किसी भी हद तक जाकर सफलता पाने की लालसा में एक रिश्ता है.

सच यह नहीं कि जुकरबर्ग ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं. सच तो यह है कि फेसबुक कंपनी हैरान होने का स्वांग कर रही है. डोनाल्ड ट्रंप को जिताने में कंपनी की मदद दुनियाभर में 16 मार्च से ही चर्चा में है.

कैंब्रिज एनालिटिका का दावा है कि वह फेसबुकवासियों का ऐसा ‘साइकोग्रफिक प्रोफाइल’ दे सकती है, जो मतदाता के व्यक्तित्व को उनके मित्रों से बेहतर आंक सकती है. कोगन ने इस कंपनी के लिए ‘दिस इज योर डिजिटल लाइफ’ (यह आपका डिजिटल जीवन है) नामक एप बनाया, जो मनोवैज्ञानिकों के लिए एक अनुसंधान उपकरण है. यह एप उपयोगकर्ता से फेसबुक एकाउंट के जरिये लाॅगइन करने के लिए कहता है और उपयोगकर्ता का फेसबुक प्रोफाइल, स्थान, मित्रों के आंकड़े आदि मांग लेता है. कोगन ने कहा है कि ‘कंपनी ने उन्हें आश्वस्त किया था कि उसके द्वारा एकत्रित आंकड़े कानून के तहत लिये गये हैं और वे करारनामे की शर्तों की सीमा के अंदर आते हैं.’ इसका कानूनी अध्ययन जरूरी है.

भारत सरकार ने भी फेसबुक को चेतावनी दे डाली है, मगर सरकार का फेसबुक से भविष्य में कैसा रिश्ता रहेगा, इसके बारे में अभी कुछ साफ नहीं है. अदालत में फेसबुक को भारतीय कानूनों के तहत काम करवाने के लिए मामले लंबित हैं, जिसमें यह चिंता जाहिर कि गयी है कि फेसबुक के जरिये 10 करोड़ भारतीयों की अहम जानकारी के लीक होने का खतरा है. सरकार को लिखित करार करना चाहिए कि जुकरबर्ग ये जानकारियां अमेरिकी सरकार को पेट्रियट एक्ट के तहत न दे. भारत से कमाई के बावजूद वह सरकार को सर्विस और इनकम टैक्स नहीं देता है.

चुनावी लोकतांत्रिक दुनिया में ऐसे आंकड़ों की मांग है, जो मतदाता के मन को येन-केन-प्रकारेण हर ले, किसी के प्रति भयभीत कर दे या या किसी के प्रति आशावादी बना दे. धन की परिभाषा में ‘देश के आंकड़े’, ‘निजी संवेदनशील सूचना’ और ‘डिजिटल सूचना’ शामिल है. भारत सरकार की बॉयोमेट्रिक्स समिति की रिपोर्ट ‘बॉयोमेट्रिक्स डिजाइन स्टैंडर्ड फॉर यूआईडी एप्लिकेशंस की अनुशंसा में कहा है कि ‘बॉयोमेट्रिक्स आंकड़े राष्ट्रीय संपत्ति हैं और उन्हें अपने मूल विशिष्ट लक्षण में संरक्षित रखना चाहिए.’ इलेक्ट्रॉनिक आंकड़े भी राष्ट्रीय संपत्ति हैं अन्यथा अमेरिका और उसके सहयोगी देश अंतरराष्ट्रीय व्यापार संगठन की वार्ता में मुफ्त में ऐसी सूचना पर अधिकार क्यों मांगते? कोई राष्ट्र या कंपनी या इन दोनों का कोई समूह अपनी राजनीतिक शक्ति का विस्तार ‘आंकड़े’ को अपने वश में करके अन्य राष्ट्रों पर नियंत्रण कर सकता है. एक देश या एक कंपनी किसी अन्य देश के संसाधनों को अपने हित में शोषण कर सकता है.

‘आंकड़ों के गणितीय मॉडल’ और डिजिटल तकनीक के गठजोड़ से गैरबराबरी और गरीबी बढ़ सकती है और लोकतंत्र खतरे में पड़ सकता है. ‘संवेदनशील सूचना’ के साइबर बादल (कंप्यूटिंग क्लाउड) क्षेत्र में उपलब्ध होने से देशवासियों, देश की संप्रभुता व सुरक्षा पर खतरा बढ़ गया है. किसी भी डिजिटल पहल के द्वारा अपने भौगोलिक क्षेत्र के लोगों के ऊपर किसी दूसरे भौगोलिक क्षेत्र के तत्वों के द्वारा उपनिवेश स्थापित करने देना और यह कहना कि यह अच्छा काम है, देश हित में नहीं हो सकता है. उपनिवेशवाद के प्रवर्तकों की तरह ही साइबरवाद व डिजिटल इंडिया के पैरोकार खुद को मसीहा के तौर पर पेश कर रहे हैं और बराबरी, लोकतंत्र एवं मूलभूत अधिकार के जुमलों का मंत्रोचारण कर रहे हैं. ऐसा कर वे अपने मुनाफे के मूल मकसद को छुपा रहे हैं. वेब आधारित डिजिटल उपनिवेशवाद कोरी कल्पना नहीं है. यह उसका नया संस्करण है.

भारत के उपनिवेश बनने में सूचना-संचार माध्यम के योगदान पर आम तौर पर निगाह नहीं जाती. काफी समय से साम्राज्यों का अध्ययन उनके सूचना-संचार का अध्ययन के रूप में प्रकट हुआ है. अब तो यह निष्कर्ष सामने आ गया है कि संचार का माध्यम ही साम्राज्य था. सूचना के अर्जन, प्रस्तुतीकरण, वर्गीकरण, प्रसुचीकरण और एकत्रीकरण और एकत्रित सूचना को पढ़ने और उसके आधार पर लिखने के अधिकार से ही साम्राज्य का निर्माण होता रहा है. ऐसे में भारत सरकार द्वारा बहुराष्ट्रीय डिजिटल कंपनियों के माध्यम को अपने संचार के लिए प्रयोग करने और ‘निजी संवेदनशील सूचना’ आधारित बाॅयोमेट्रिक यूआईडी/आधार संख्या योजना के खिलाफ लंबित मामलों की सुनवाई देश और देशवासियों के लिए अति महत्वपूर्ण है. एक सोचे-समझे ब्लू प्रिंट के हिसाब से ब्रिटेन, अमेरिका और उनके सहयोगी देशों की आंकड़ा खनन कंपनियां लोकतंत्र को अनजाने-असाध्य रोग के जंजाल में कैद करती जा रही हैं.

इन खुलासों से यह स्पष्ट हो गया है कि आंकड़ों वाली कंपनियों और उनके विशेषज्ञों में और अपराध जगत के माफिया तंत्र के बीच मीडिया में परिष्कृत प्रस्तुतिकरण का ही फर्क है. चुनावी भ्रष्टाचार और निजी संवेदनशील सूचना की नींव पर गढ़े गये मनोवैज्ञानिक ग्राफ में कोई अंतर नहीं है. इस पर नकेल कसने के लिए कानून बनाने में देर हो चुकी है.

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