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बजट की चुनौतियां

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बजट आमदनी और खर्च तथा विभिन्न मदों में आवंटन का सालाना लेखा-जोखा भर नहीं होता, वह सरकार की प्राथमिकताओं का सार्वजनिक दस्तावेज होता है. इसी कारण बजट लोकतंत्र में बहस का विषय बनता है. जाहिरन, बजट से जुड़ी चुनौतियों का रिश्ता इस बात से है कि सरकार की प्राथमिकताएं क्या हैं? अलग-अलग हितों की पैरोकारी […]

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बजट आमदनी और खर्च तथा विभिन्न मदों में आवंटन का सालाना लेखा-जोखा भर नहीं होता, वह सरकार की प्राथमिकताओं का सार्वजनिक दस्तावेज होता है. इसी कारण बजट लोकतंत्र में बहस का विषय बनता है.
जाहिरन, बजट से जुड़ी चुनौतियों का रिश्ता इस बात से है कि सरकार की प्राथमिकताएं क्या हैं? अलग-अलग हितों की पैरोकारी और नुमाइंदगी करनेवाले समूह अपने नजरिये से बजट को देखते-परखते हैं और लोकतांत्रिक रीति से अपनी बेहतरी के लिए दबाव डालते हैं. लेकिन सरकार सबकी होती है, वह एक तबके के हितों के साथ तरजीही बरताव नहीं कर सकती. ऐसे में हमेशा की तरह इस बार भी वित्त मंत्री के सामने बजट में संतुलन बैठाने की चुनौती है और इस क्रम में उन्हें एक-दूसरे से विपरीत जान पड़ती स्थितियों के बीच से राह निकालनी है.
विरोधाभास की एक स्थिति यह है कि इस साल आठ राज्यों में विधानसभा चुनाव हैं. केंद्र सरकार लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ कराने का विचार भी रखती है. चुनावी साल के बजट पर लोक-लुभावन होने का दबाव रहता है और बजट का लोक-लुभावन होना सामाजिक कल्याण के मदों में आवंटन बढ़ाने की मांग करता है. वित्त मंत्री के साथ राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री भी यह जता चुके हैं कि खेती-किसानी सरकार की शीर्ष प्राथमिकताओं में एक है.
हमारे देश में किसानों की संख्या तकरीबन 12 करोड़ है, यह कुल श्रम शक्ति (48 करोड़) का एक चौथाई (लगभग 24 प्रतिशत) हिस्सा है और लगभग 60 प्रतिशत आबादी जीविका के लिए मुख्य रूप से खेती-किसानी पर निर्भर है. इन तथ्यों के आलोक में देश की अधिसंख्य आबादी को साथ लेकर चलने के लिए खेतिहर अर्थव्यवस्था की बढ़वार के उपाय करने ही होंगे. फिलहाल कृषि क्षेत्र की वृद्धि दर दो फीसदी के आसपास है और ग्रामीण क्षेत्रों में वास्तविक मजदूरी कमतर हुई है.
खेतिहर समाज के व्यापक हित को ध्यान में रखकर बजट में ग्रामीण विकास मंत्रालय तथा कृषि मंत्रालय का आवंटन बढ़ाने पर अतिरिक्त राजस्व जुटाने की चुनौती पेश आयेगी, परंतु कच्चे तेल की बढ़ती कीमतों और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ब्याज की दरों में आये बदलाव के कारण यह राजस्व जुटाना आसान न होगा, क्योंकि सरकार के लिए उधार लेना पहले से महंगा होगा और इसका भुगतान-संतुलन पर असर पड़ेगा. भारत में सरकारी खजाने में प्रत्यक्ष करों का हिस्सा महज 35 प्रतिशत (यूरोप में 70 प्रतिशत तक) है. जीएसटी के कारण राजस्व प्राप्ति की स्थितियां पहले की तुलना में जटिल हुई हैं.
सो, इस बार अतिरिक्त कराधान की गुंजाइश वित्त मंत्री के पास कम है. संक्षेप में कहें, तो वित्त मंत्री की बड़ी चुनौती अर्थव्यवस्था के प्राथमिक (कृषि) और द्वितीयक (विनिर्माण) क्षेत्र में बढ़वार को अपेक्षित गति देने की होगी और चुनावों के मद्देनजर सामाजिक कल्याण की योजनाओं पर आवंटन बढ़ाना होगा, लेकिन कुछ इस तरह कि वित्तीय घाटा बेसंभाल न हो.

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