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भारत में बड़े आर्थिक सुधारक ही नहीं, ‘लाइसेंस राज’ के संहारक भी थे पीवी नरसिंह राव

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विदेश मंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान पीवी राव ने अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के क्षेत्र में अपनी शैक्षिक पृष्ठभूमि, राजनीतिक तथा प्रशासनिक अनुभव का भरपूर इस्तेमाल किया. प्रभार संभालने के बाद उन्होंने जनवरी 1980 में दिल्ली में संयुक्त राष्ट्र औद्योगिक विकास संगठन के तीसरे सम्मेलन की अध्यक्षता की.

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नई दिल्ली: पीवी नरसिंह राव. पूरा नाम पामुलापति वेंकट नरसिंह राव. भला, देश के पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव को कौन नहीं जानता. राजनेताओं के अलावा अर्थशास्त्र की पढ़ाई करने वाला और भारत की आर्थिक गतिविधियों का शोध करने वाला हर आम-ओ-खास पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव को एक आर्थिक सुधारक के तौर पर जानता है. लेकिन, बहुत कम लोग ही जानते होंगे कि पीवी नरसिंह राव एक राजनेता और आर्थिक सुधारक ही नहीं, बल्कि एक कृषि विशेषज्ञ और वकील भी थे. वकालत उनका पेशा थी और कृषि पर विशेषज्ञता उनका शोध. 9 फरवरी 2024 को देश की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की सरकार ने पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव को ‘भारत रत्न‘ देने का ऐलान किया है. आइए, देश के इस महान सपूत और करीब 16 से अधिक भाषाओं के ज्ञाता विद्वान राजनेता के कुछ अनछुए पहलुओं से रू-ब-रू होते हैं.

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28 जून 1921 को जन्मे थे पीवी नरसिंह राव

पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव का जन्म 28 जून 1921 को तेलंगाना (पूर्व के आंध्र प्रदेश) के करीमनगर में हुआ था. उनके पिता का नाम पी रंगा राव था. उन्होंने हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय, मुंबई विश्वविद्यालय एवं नागपुर विश्वविद्यालय से पढ़ाई की. उनके तीन बेटे और पांच बेटियां हैं. पीवी नरसिंह राव संगीत, सिनेमा एवं नाट्यकला में भी रुचि रखते थे. भारतीय दर्शन एवं संस्कृति, कथा साहित्य एवं राजनीतिक टिप्पणी लिखने, भाषाएं सीखने, तेलुगू एवं हिंदी में कविताएं लिखने एवं साहित्य में वे विशेष दिलचस्पी रखते थे. उन्होंने विश्वनाथ सत्यनारायण के प्रसिद्ध तेलुगु उपन्यास ‘वेई पदागालू’ के हिंदी अनुवाद ‘सहस्रफन’ एवं केंद्रीय साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित हरि नारायण आप्टे के प्रसिद्ध मराठी उपन्यास ‘पान लक्षत कोन घेटो’ के तेलुगू अनुवाद ‘अंबाला जीवितम’ प्रकाशित किया. उन्होंने कई प्रमुख पुस्तकों का मराठी से तेलुगू एवं तेलुगु से हिंदी में अनुवाद किया एवं विभिन्न पत्रिकाओं में कई लेख एक उपनाम के अंदर प्रकाशित किया. उन्होंने राजनीतिक मामलों एवं संबद्ध विषयों पर संयुक्त राज्य अमेरिका और पश्चिम जर्मनी के विश्वविद्यालयों में व्याख्यान दिया. विदेश मंत्री के रूप में उन्होंने 1974 में ब्रिटेन, पश्चिम जर्मनी, स्विट्जरलैंड, इटली और मिस्र इत्यादि देशों की यात्रा की.

प्रखर कूटनीतिज्ञ थे नरसिंह राव

विदेश मंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान पीवी राव ने अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के क्षेत्र में अपनी शैक्षिक पृष्ठभूमि एवं राजनीतिक तथा प्रशासनिक अनुभव का सफलतापूर्वक इस्तेमाल किया. प्रभार संभालने के कुछ ही दिनों बाद उन्होंने जनवरी 1980 में नई दिल्ली में संयुक्त राष्ट्र औद्योगिक विकास संगठन के तीसरे सम्मेलन की अध्यक्षता की. मार्च 1980 में उन्होंने न्यूयॉर्क में जी-77 की बैठक की भी अध्यक्षता की. फरवरी 1981 में गुट निरपेक्ष देशों के विदेश मंत्रियों के सम्मेलन में अहम भूमिका के लिए उनकी काफी प्रशंसा की गई थी. उन्होंने अंतरराष्ट्रीय आर्थिक मुद्दों में व्यक्तिगत रूप से गहरी रुचि दिखाई. व्यक्तिगत रूप से मई 1981 में कराकास में ईसीडीसी पर जी-77 के सम्मेलन में भारतीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व किया.

विशेष गुट निरपेक्ष मिशन का किया नेतृत्व

वर्ष 1982 और 1983 भारत की विदेश नीति के लिए काफी महत्त्वपूर्ण था. खाड़ी युद्ध के दौरान गुट निरपेक्ष आंदोलन का सातवां सम्मलेन भारत में हुआ, जिसकी अध्यक्षता पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने की थी. वर्ष 1982 में जब भारत को इसकी मेजबानी करने के लिए कहा गया और उसके अगले वर्ष जब विभिन्न देशों के राज्य और शासनाध्यक्षों के बीच आंदोलन से संबंधित अनौपचारिक विचार के लिए न्यूयॉर्क में बैठक की गई, तब पीवी नरसिंह राव ने गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों के विदेश मंत्रियों के साथ नई दिल्ली और संयुक्त राष्ट्र संघ में होने वाली बैठकों की अध्यक्षता की थी. इतना ही नहीं, वे विशेष गुट निरपेक्ष मिशन के भी नेता रहे, जिसने फिलीस्तीनी मुक्ति आंदोलन को सुलझाने के लिए नवंबर 1983 में पश्चिम एशियाई देशों का दौरा किया. वे भारत सरकार के राष्ट्रमंडल प्रमुखों एवं सायप्रस संबंधी मामले पर हुई बैठक द्वारा गठित कार्य दल के साथ सक्रिय रूप से जुड़े हुए थे.

भाग्य से बने प्रधानमंत्री?

कहा जाता है कि पीवी नरसिंह राव का भारत के प्रधानमंत्री बनने में उनके भाग्य की बहुत बड़ी भूमिका रही. 21 मई 1991 को राजीव गांधी की बम धमाके में हत्या हो गई थी. सहानुभूति की लहर के कारण कांग्रेस को आम चुनाव में जीत मिली. 1991 के आम चुनाव दो चरणों में हुए थे. इसका पहला चरण के चुनाव राजीव गांधी की हत्या से पहले हुआ था और दूसरे चरण का चुनाव उनकी हत्या के बाद संपन्न कराया गया. पहले चरण की तुलना में दूसरे चरण के चुनावों में कांग्रेस का प्रदर्शन बेहतर रहा. इसका प्रमुख कारण राजीव गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति की लहर थी. इस चुनाव में कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत नहीं प्राप्त हुआ, लेकिन वह सबसे बड़े दल के रूप में उभरी. कांग्रेस ने 232 सीटों पर जीत हासिल की थी. फिर नरसिम्हा राव को कांग्रेस संसदीय दल का नेता बनाया गया. ऐसे में उन्होंने सरकार बनाने का दावा पेश किया. सरकार अल्पमत में थी, लेकिन कांग्रेस ने बहुमत साबित करने के लायक सांसद जुटा लिये और कांग्रेस सरकार ने पांच साल का अपना कार्यकाल पूरा किया.

आर्थिक सुधार के साथ लाइसेंस राज का किया खात्मा

पीवी नरसिंह राव ने भारत के प्रधानमंत्री की कमान काफी मुश्किल समय में संभाली थी. उस समय भारत का विदेशी मुद्रा भंडार चिंताजनक स्तर तक कम हो गया था. देश का सोना तक गिरवी रखना पड़ा था. प्रधानमंत्री बनने के साथ ही उन्होंने देश की आर्थिक दिशा-दशा सुधारने के लिए काम करना शुरू कर दिया. इसी के तहत उन्होंने भारतीय रिजर्व बैंक आरबीआई के अनुभवी गवर्नर डॉ मनमोहन सिंह को वित्तमंत्री बनाकर देश में आर्थिक सुधार पर अमल करना शुरू कर दिया और आधुनिक भारत की नींव रखी. इतना ही नहीं, भारत से लाइसेंस राज के खात्मे का श्रेय भी पीवी नरसिंह राव को ही जाता है.

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पीवी नरसिंह राव से जुड़े महत्वपूर्ण बिंदु

  • पेशे से कृषि विशेषज्ञ एवं वकील पीवी नरसिंह राव राजनीति में आए एवं कुछ महत्वपूर्ण विभागों का कार्यभार संभाला.

  • वे आंध्र प्रदेश सरकार में 1962 से 64 तक कानून एवं सूचना मंत्री के तौर पर सेवाएं दीं

  • वर्ष 1964 से 67 तक कानून एवं विधि मंत्री रहे.

  • वर्ष 1967 में स्वास्थ्य एवं चिकित्सा मंत्री एवं 1968 से 1971 तक शिक्षा मंत्री रहे.

  • वर्ष 1971 से 73 तक आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री बने.

  • वर्ष 1975 से 76 तक अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के महासचिव का कार्यभार संभाला.

  • वर्ष 1968 से 74 तक आंध्र प्रदेश के तेलुगू अकादमी के अध्यक्ष एवं 1972 से मद्रास के दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के उपाध्यक्ष रहे.

  • वर्ष 1957 से 1977 तक आंध्र प्रदेश विधान सभा के सदस्य रहे.

  • वर्ष 1977 से 84 तक लोकसभा के सदस्य रहे और दिसंबर 1984 में रामटेक से आठवीं लोकसभा के लिए चुने गए.

  • लोक लेखा समिति के अध्यक्ष के तौर पर 1978-79 में उन्होंने लंदन विश्वविद्यालय के एशियाई एवं अफ्रीकी अध्ययन स्कूल द्वारा आयोजित दक्षिण एशिया पर हुए एक सम्मेलन में भाग लिया.

  • पीवी नरसिंह राव भारतीय विद्या भवन के आंध्र केंद्र के भी अध्यक्ष रहे.

  • वे 14 जनवरी 1980 से 18 जुलाई 1984 तक विदेश मंत्री रहे.

  • 19 जुलाई 1984 से 31 दिसंबर 1984 तक गृह मंत्री रहे.

  • 31 दिसंबर 1984 से 25 सितम्बर 1985 तक रक्षा मंत्री रहे.

  • 5 नवंबर 1984 से योजना मंत्रालय का अतिरिक्त प्रभार भी संभाला.

  • 25 सितम्बर 1985 से उन्होंने मानव संसाधन विकास मंत्री के रूप में पदभार संभाला.

  • 1991 में वे देश के प्रधानमंत्री बने.

  • 23 दिसंबर 2004 को नई दिल्ली में दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया.

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आर्थिक सुधार के लिए उठाए गए कदम

  • 1992 में पूंजी निर्गम नियंत्रक को समाप्त कर दिया गया, जो कंपनियों द्वारा जारी किए जाने वाले शेयरों की कीमतें और संख्या तय करता था.

  • 1992 के सेबी अधिनियम और सुरक्षा कानून में संशोधन किया गया, जिसने सेबी को सभी सुरक्षा बाजार मध्यस्थों को पंजीकृत करने और विनियमित करने का कानूनी अधिकार दिया.

  • 1992 में भारत के इक्विटी बाजारों को विदेशी संस्थागत निवेशकों द्वारा निवेश के लिए दरवाजे खोले गए और भारतीय कंपनियों को ग्लोबल डिपॉजिटरी रसीदें (जीडीआर) जारी करके अंतरराष्ट्रीय बाजारों से पूंजी जुटाने की अनुमति दी गई.

  • नेशनल स्टॉक एक्सचेंज की शुरुआत 1994 में एक कंप्यूटर-आधारित व्यापार प्रणाली के रूप में हुई, जो भारत के अन्य स्टॉक एक्सचेंजों के सुधारों का लाभ उठाने के लिए एक साधन के रूप में कार्य करती थी. 1996 तक एनएसई भारत का सबसे बड़ा एक्सचेंज बनकर उभरा.

  • टैरिफ को औसतन 85 प्रतिशत से घटाकर 25 प्रतिशत किया गया और मात्रात्मक नियंत्रण वापस लिया गया.

  • प्राथमिकता वाले क्षेत्रों में 100 फीसदी विदेशी इक्विटी की अनुमति के साथ संयुक्त उद्यमों में विदेशी पूंजी की हिस्सेदारी की अधिकतम सीमा 40 से बढ़ाकर 51 फीसदी करके प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को प्रोत्साहित किया गया.

  • एफडीआई अनुमोदन के लिए प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित किया गया और कम से कम 35 उद्योगों में विदेशी भागीदारी की सीमा के भीतर स्वचालित रूप से परियोजनाओं को मंजूरी दी गई.

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