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छत्रपति शिवाजी के वाघ नख को वापस लाने की क्यों हो रही तैयारी, जानें इस अमूल्य धरोहर की खासियत

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छत्रपति शिवाजी महाराज ने वर्ष 1659 में इसी वाघ नख से बीजापुर सल्तनत के सेनापति अफजल खान को मौत के घाट उतारा था. यह वाघ नख भारत की अमूल्य धरोहर है और छत्रपति शिवाजी के शौर्य की याद दिलाती है.

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देश से लूटी गयी या जबरन ले जायी गयी बेशकीमती धरोहरों, कलाकृतियों व अन्य पुरावशेषों को एक-एक कर वापस स्वदेश लाने के प्रयास बीते वर्षों में काफी तेजी से हुए हैं. मई, 2023 तक ऐसे 250 से ज्यादा धरोहरों को स्वदेश वापस लाया जा चुका है. इसी क्रम में महाराष्ट्र सरकार की पहल पर लंदन स्थित विक्टोरिया एंड अल्बर्ट म्यूजियम से छत्रपति शिवाजी के ‘वाघ नख’ को लाने की तैयारी है. दरअसल, 2024 में शिवाजी के राज्याभिषेक की 350वीं वर्षगांठ है. उम्मीद की जा रही है कि इस वर्ष के अंत तक ‘वाघ नख’ को भारत ले आया जायेगा. ऐसे ही कई अन्य धरोहरों को भी वापस लाने की कोशिशें जारी हैं. इसी विषय पर पेश है प्रभात खबर का विशेष पन्ना.

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अपने देश का इतिहास काफी गौरवशाली रहा है. यही वजह रही कि विदेशी आक्रांताओं की नजर हमेशा भारत व यहां के वैभव पर रही. देश की स्वतंत्रता से पहले अंग्रेजों द्वारा भारत की बहुमूल्य वस्तुओं (पेंटिंग, कलाकृतियां, मूर्तियां, स्वर्ण सिंहासन, हीरे-जवाहरात) को लूटा, जबरन लिया या उपहार स्वरूप हासिल किया गया. वे देश के ऐतिहासिक महत्व व शान की प्रतीक वाले इन धरोहरों को भी अपने साथ लेकर ब्रिटेन चले गये थे, जिसे आजादी के बाद से ही वापस लाने के प्रयास किये जा रहे हैं.

इनमें से ज्यादातर कलाकृतियों को ब्रिटेन में विभिन्न संग्रहालयों में रखा गया है. छत्रपति शिवाजी के वाघ नख को भी इसी कड़ी में स्वदेश लाने की तैयारी है. महाराष्ट्र के संस्कृति मंत्री सुधीर मुनगंटीवार ने वाघ नख वापस लाने की पहल की है. इसके लिए वह लंदन जाकर वाघ नख को वापस लाने के लिए एक समझौता पत्र पर हस्ताक्षर करेंगे. यह समझौता लंदन स्थित विक्टोरिया एंड अल्बर्ट म्यूजियम के साथ होगा.

क्यों महत्वपूर्ण है वाघ नख

छत्रपति शिवाजी महाराज ने वर्ष 1659 में इसी वाघ नख से बीजापुर सल्तनत के सेनापति अफजल खान को मौत के घाट उतारा था. यह वाघ नख भारत की अमूल्य धरोहर है और छत्रपति शिवाजी के शौर्य की याद दिलाती है. इतिहासकार जदुनाथ सरकार की पुस्तक ‘शिवाजी एंड हिज टाइम्स’ के अनुसार, बीजापुर सल्तनत के बादशाह आदिल शाह ने अफजल खान को शिवाजी से मिलने भेजा था. उसका इरादा शिवाजी को गुलाम बनाने का था. मुलाकात के दौरान अफजल खान ने गले मिलते हुए धोखे से शिवाजी के पीठ पर खंजर से वार कर दिया. शिवाजी भी तैयारी के साथ आये थे. उन्हें ऐसे धोखे की उम्मीद थी. जवाबी कार्रवाई करते हुए शिवाजी ने ‘वाघ नख’ की मदद से अफजल खान का सीना चीर उसे मौत के घाट उतार दिया. दरअसल, वर्ष 2024 में छत्रपति शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक की 350वीं वर्षगांठ के रूप में मनाये जाने की तैयारी है. ऐसे में इस वाघ नख का महत्व और भी बढ़ जाता है.

बाघ के पंजों की प्रेरणा से बना

‘वाघ नख’ हथेली में छिपाकर पहना जाने वाले लोहे का हथियार/खंजर है, जिसे बाघ के पंजों से प्रेरणा लेकर बनाया गया था. इसके दोनों तरफ दो रिंग होती हैं, जिससे हाथ की पहली व चौथी उंगली में पहनकर इसे ठीक तरह से मुट्ठी में फिट किया जा सके. इसमें लोहे के चार नुकीले कांटे होते हैं, जो कि लोहे के आधार से फिक्स होते हैं. इन कांटों से दुश्मन के सीने को निशाना बनाया जा सकता है. वाघ नख इतना घातक होता है कि इसके एक वार से किसी को भी मौत के घाट उतारा जा सकता है.

शिवाजी की जगदंबा तलवार

छत्रपति शिवाजी की तीन लोकप्रिय तलवारों के नाम ‘भवानी’, ‘जगदंबा’ और ‘तुलजा’ थे. ये तलवार वर्तमान में ब्रिटिश शाही परिवार की मिल्कियत में लंदन के सेंट जेम्स पैलेस में हैं. इनमें से शिवाजी महाराज की सबसे पसंदीदा तलवार थी जगदंबा. महाराष्ट्र की सरकार इस तलवार को भी वापस लाने की कोशिश में जुटी है. कीमती पत्थरों से जड़ी यह 400 साल पुरानी तलवार है.

यह महाराष्ट्र से इंग्लैंड कैसे पहुंचा

बाघ के पंजों की तरह दिखने वाला यह वाघ नख खासतौर से पहली बार छत्रपति शिवाजी महराज के लिए ही तैयार कराया गया था. शिवाजी महाराज का यह वाघ नख मराठा साम्राज्य की राजधानी सतारा में ही था. अंग्रेजों के भारत आने के बाद मराठा पेशवा के प्रधानमंत्री ने वर्ष 1818 में ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी जेम्स ग्रांट डफ को इसे भेंट किया था. वर्ष 1824 में डफ इंग्लैंड लौटे तो इसे अपने साथ ले गये. उन्होंने इसे लंदन की विक्टोरिया व अल्बर्ट म्यूजियम को दान कर दिया था. यह तब से वहीं रखा है.

कलाकृतियों की वापसी की क्या है प्रक्रिया

भारत से बाहर ले जायी गयी इन कलाकृतियों को वापस लाने की दो प्रक्रियाएं हैं- कानूनी और कूटनीतिक. इसमें से कानूनी प्रक्रिया के जरिये वापसी न केवल जटिल है, बल्कि इसमें समय भी ज्यादा लगने का अंदेशा होता है. कानूनी प्रक्रिया को पूरा करना और अपनी कलाकृतियों को वापस लाने में किसी भी देश को सालों तक इंतजार करना पड़ता है. ऐसे में कूटनीतिक प्रक्रिया यानी आपसी बातचीत के जरिये इन कलाकृतियों को वापस लाया जा सकता है. खास बात है कि भारत के कितनी ऐतिहासिक-पुरातात्विक महत्व की वस्तुएं विदेश गयी हैं, इसकी निश्चित संख्या का अंदाजा लगाना मुश्किल है. अनुमान के अनुसार, यह संख्या कई हजार तक हो सकती हैं.

क्या कहता है यूनेस्को सम्मेलन 1970

वर्ष 1970 में यूनेस्को के एक सम्मेलन के बाद संग्रहालयों के लिए विश्व स्तर पर जारी दिशा-निर्देशों में कहा गया है कि यदि कोई संग्रहालय किसी वस्तु का अधिग्रहण कर रहा है, तो संग्रहालय को यह सत्यापित करना होगा कि वस्तु को कानूनी रूप से प्राप्त किया गया था. कानूनी रूप से निर्यात या आयात किया गया था. सम्मेलन के अनुसार, पुरावशेषों का अवैध आयात, निर्यात व हस्तानांतरण, मूल देशों की सांस्कृतिक क्षति का प्रमुख कारण हैं. ऐसे में सम्मेलन के हस्ताक्षरकर्ता पक्ष इसका पालन करने के लिए बाध्य हैं.

स्वतंत्रता से पहले भारत से बाहर ले जाये गये पुरावशेषों की पुनर्प्राप्ति हेतु अनुरोध द्विपक्षीय रूप से या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर किये जाने की जरूरत होती है. वहीं, दूसरी व तीसरी श्रेणियों में पुरावशेषों को स्वामित्व के प्रमाण के साथ आसानी से पुनर्प्राप्त किया जा सकता है.

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