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एमफिल व पीएचडी सीटों में कटौती के बाद ध्यान क्यों नहीं खींच पा रहा है जेएनयू ?

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प्रतिरोध व आंदोलन के प्रतीक के रूप में पहचान बनाने वाली यूनिवर्सिटी जेएनयू एक बार फिर चर्चा में है. जेएनयू में एमफिल/ पीएचडी की कुल 970 सीटों को घटाकर 102 कर दिया गया है. सरकार के इस फैसले के खिलाफ जेएनयू में विरोध के स्वर उठे लेकिन कभी यह राष्ट्रीय मुद्दा नहीं बन सका. मीडिया […]

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प्रतिरोध व आंदोलन के प्रतीक के रूप में पहचान बनाने वाली यूनिवर्सिटी जेएनयू एक बार फिर चर्चा में है. जेएनयू में एमफिल/ पीएचडी की कुल 970 सीटों को घटाकर 102 कर दिया गया है. सरकार के इस फैसले के खिलाफ जेएनयू में विरोध के स्वर उठे लेकिन कभी यह राष्ट्रीय मुद्दा नहीं बन सका. मीडिया में भी इसे उतनी जगह नहीं मिली, जिसकी उम्मीद की जा रही थी. कल राज्यसभा सांसद शरद यादव सीट कटौती मुद्दे पर विरोध के लिए जेएनयू पहुंचे लेकिन यहां भी उनके समर्थन में ज्यादा लोग उपस्थित नहीं थे. कभी ओबीसी व दलित राजनीति की जमीन तैयार करने वाला जेएनयू में सीट कटौती का मुद्दे को लेकर खामोशी के कई राजनीतिक मायने है.

भाजपा ने दलितों और ओबीसी के बीच फैलाया आधार
भारतीय जनता पार्टी ने यूपी चुनाव के दौरान बड़े पैमाने पर दलितों ओर ओबीसी को टिकट दिया. जानकारों की माने तो यूपी चुनाव के दौरान बीजेपी ब्राह्मणवादी पार्टी की छवि को तोड़ने में कामयाब रही. दलित और ओबीसी के वैसे युवा, जो अपने मन में राजनेता बनने का हसरत पाले रखते हैं ,उन्हें सपा, बसपा, राजद और कांग्रेस में कोई भविष्य नहीं दिखायी पड़ रही है. सपा और राजद ने तो शुरुआत पिछड़ों की पार्टी के रूप में की लेकिन सत्ता में आते ही घोर परिवारिक पार्टियां बन गयी. उधर बदलते वक्त के साथ बसपा में युवाओं को आकर्षित करने की क्षमता नहीं रही.
बेशक लंबे समय से चल रहे इस आंदोलन ने दलितों और पिछड़ों की समाजिक हैसियत में बड़ा बदलाव लाया लेकिन हर पीढ़ी के साथ लोगों की जरूरत बदलती रहती है. जब समाज में जाति की पकड़ ढीली पड़ने लगी तब भी पार्टियों ने पुराना राग अलापना ही सही समझा. आज की पीढ़ी की युवा आर्थिकी और रोजगार के विषय को लेकर सजग रहती है, लेकिन इन पार्टियों ने अर्थव्यवस्था के मुद्दे पर बोलने से परहेज किया. कही न कही यह बात उनके खिलाफ गयी और उनकी नीतियां आम लोगों को कनेक्ट नहीं कर पायी.
पंजाब में कांग्रेस की जीत में दिखी विपक्षी पार्टियों को उम्मीद की किरण
जेएनयू में देशविरोधी नारे को लेकर पैदा विवाद ने यूनिवर्सिटी की छवि नकरात्मक कर दी. लोगों के बीच गलत संदेश गया और आम जनमानस के बीच जेएनयू के प्रति सहानुभूति कम हो गयी. ऐसा नहीं कि जनता को विपक्षी विचारधारा पसंद नहीं है. दिल्ली में केजरीवाल, बिहार में नीतीश व हालिया पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह की जीत में विपक्षी पार्टियों के लिए एक संदेश छिपा हुआ है. पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह की वापसी ने साफ संकेत दे दिये कि जनता किसी भी कीमत पर वंशवाद व भ्रष्टाचार को बर्दाश्त नहीं कर सकती है.
कैप्टन के नेतृत्व में लड़ा गया यह चुनाव कांग्रेस के सबसे खराब दौर में लड़े गये चुनावों में शामिल था.चुनाव के काफी पहले तैयारियां की. नतीजा सबके सामने था. चुनाव नतीजों में कांग्रेस पार्टी की जीत हुई. अमरिंदर के रूप में पंजाब के लोगों को मजबूत मुख्यमंत्री का उम्मीदवार पसंद था. जो आगे बढ़कर जिम्मा संभाले.
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