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न्यायाधीशों की नियुक्ति का अधिकार न्यायिक आजादी का हिस्सा है

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नयी दिल्ली: उच्चतम न्यायालय में आज दलील दी गयी कि न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिये जोर देने का न्यायपालिका का अधिकार उसकी स्वतंत्रता और संविधान के बुनियादी ढांचे का महत्वपूर्ण अंग है जिसे राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के माध्यम से छीन लिया गया है. न्यायमूर्ति जे एस खेहड की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ […]

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नयी दिल्ली: उच्चतम न्यायालय में आज दलील दी गयी कि न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिये जोर देने का न्यायपालिका का अधिकार उसकी स्वतंत्रता और संविधान के बुनियादी ढांचे का महत्वपूर्ण अंग है जिसे राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के माध्यम से छीन लिया गया है.

न्यायमूर्ति जे एस खेहड की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ के समक्ष उच्चतम न्यायालय एडवोकेट ऑन रिकार्ड एसोसिएशन की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता फली नरीमन ने यह दलील दी. उन्होंने कहा कि नियुक्तियों के मामले में न्यायपालिका का दखल उसकी स्वतंत्रता का मूल तत्व है.

संविधान पीठ के अन्य सदस्यों में न्यामयूर्ति जे चेलामेश्वर, न्यायमूर्ति मदन बी लोकूर, न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ और न्यायमूर्ति आदर्श कुमार गोयल शामिल हैं. संविधान पीठ न्यायधीशों की नियुक्ति के संबंध में 99वें संविधान संशोधन कानून और राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग कानून की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई कर रही है.

नरीमन ने अटार्नी जनरल मुकुल रोहतगी की दलीलों का जवाब देते हुये कहा, जोर देने का अधिकार ही अधिकार का मूल तत्व है. यह नियुक्ति का अधिकार है. यह सिर्फ न्यायपालिका की स्वतंत्रता का अंग नहीं है बल्कि यह महत्वपूर्ण अंग है.

अटार्नी जनरल ने कहा था कि छह सदस्यीय नियुक्ति आयोग में न्यायाधीशों की प्रमुखता रहेगी और वे किसी भी खराब नियुक्ति को रोक सकते हैं. रोहतगी ने यह भी कहा था कि सिर्फ नियुक्ति का अधिकार ही लिया गया है और इससे संविधान के बुनियादी ढांचे का अतिक्रमण नहीं होता है.

नरीमन ने दलीलों का जवाब देने का सिलसिला शुरु करते हुये न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिये कालेजियम प्रणाली की परिकल्पना करने वाले 1993 के फैसले के समर्थन में प्रकाशित अनेक लेखों का हवाला दिया.

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