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कांग्रेसियों व समाजवादियों की बिखरी राजनीति में नयी जान फूंकने के लिए क्या संजीवनी साबित होंगे नीतीश कुमार?

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राहुल सिंह एक सहज सवाल हमेशा उठता है और उसका बडी सहजता से बार-बार एक ही जवाब दिया जाता है. सवाल यह कि नेता कैसे बनता है, कैसे तैयार होता है? तो इसका जवाब भी बडी सहजता से यही दिया जाता है धारा के विपरीत तैरने वाला शख्स नेता बनता है-होता है, नेता प्रतिकूल परिस्थितियां […]

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राहुल सिंह
एक सहज सवाल हमेशा उठता है और उसका बडी सहजता से बार-बार एक ही जवाब दिया जाता है. सवाल यह कि नेता कैसे बनता है, कैसे तैयार होता है? तो इसका जवाब भी बडी सहजता से यही दिया जाता है धारा के विपरीत तैरने वाला शख्स नेता बनता है-होता है, नेता प्रतिकूल परिस्थितियां में गढे जाते हैं, परिस्थितियों को अपना भाग्य मान लेने वाला नहीं, बल्कि उनसे जूझने वाला शख्स ही नेता होता है.
इस सार्वभौम मान्यता का संबंध व संदर्भ बिहार के मौजूदा मुख्यमंत्री व भाजपा विरोधी गठजोड के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार नीतीश कुमार से भी है. नीतीश कुमार ने सहज और आसान परिस्थितियों में कभी राजनीति नहीं की. वे राजनीति की प्रवाहमान धारा के हमेशा विपरीत तैरते नजर आये. जब 1990 के दशक में लालू प्रसाद अपने शिखर पर थे, तो कम मशहूर नीतीश कुमार एक कद्दावर राजनीतिक शख्सियत जार्ज फर्नांडीज व अपने साथी दिग्विजय सिंह के साथ उनके खिलाफ उठ खडे हुए और फिर जब 2000 के दशक के उत्तरार्द्ध में और व 2010 के दशक के पूर्वार्द्ध में नरेंद्र मोदी अपने शिखर पर हैं, तब वे उनके खिलाफ उठ खडे हुए.
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1995 के विधानसभा चुनाव लालू के खिलाफ खडे हुए नीतीश ने निराश करने वाला चुनाव परिणाम पाया था, एकीकृत बिहार के महज 324 विधानसभा सीटों में मात्र सात. 2014 लोकसभा चुनाव में भी नरेंद्र मोदी के खिलाफ खडे हुए नीतीश को मात्र दो सीटें मिलीं. ये चुनाव परिणाम मजबूत शख्स को भी निराश कर देने वाले हैं. लालू के खिलाफ सालों के संघर्ष के बाद नीतीश को कामयाबी मिली. अब सवाल यह है कि क्या लालू की तरह मोदी के मामले में भी नीतीश अपना इतिहास दोहरायेंगे?
भारतीय राजनीति में ऐसे उदाहरण विरले ही दिखते हैं. राजनीति की मान्य व स्वीकार्य सच यह है कि उस समय के सबसे मजबूत शख्स के साथ जुड जाओ और तब इसमें कोई नैतिक दिक्कत भी नहीं होती, जब आप सालों या दशकों से उस व्यक्ति व उस व्यक्ति की पार्टी से जुडें हों. नीतीश कुमार ने तो समाजवादी व व्यक्तिवाद विहीन राजनीति का पाठ जेपी-लोहिया की पाठशाला में साथ-साथ ही पढा था. यह बात अलग है कि दोनों राजनीतिक छात्रों के व्यक्तित्व का विकास पृथक ढंग से हुआ, जिसके कारण लालू प्रसाद के खिलाफ नीतीश कुमार उस समय उठ खडे हुए, जब लालू एक क्षत्रप होने के बावजूद पिछडे-दलित चेतना के प्रतीक के रूप में सबसे प्रभावशाली राजनेता की पहचान देश में बना चुके थे. यह बात 1994-1995 की है.
फिर डेढ-दो दशक बाद वे इसी तरह भाजपा के सर्वोच्च नेता बन चुके नरेंद्र मोदी के खिलाफ उठ खडे हुए. वह भी तब जब नरेंद्र मोदी की पहचान विकास पुरुष की व जनता के लिए दिन-रात काम करने वाले शख्स की बन चुकी थी. जैसे लालू के सामाजिक न्याय के प्रति प्रतिबद्धता पर कोई सवाल अब तक नहीं उठाया जा सका है, उसी तरह नरेंद्र मोदी की विकास के प्रति, भ्रष्टाचार के विरुद्ध और आमलोगों के हित की सुरक्षा सुनिश्चित करने के संकल्प के खिलाफ कोई सवाल नहीं उठाया जा सका है. दूसरी चीजों को छोड दिया जाये इन बिंदुओं पर इन दोनों नेताओं के प्रतिद्वंद्वियों का विरोध गोल-मोल और हल्की टिप्पणियों में ही रूपांतरित हो जाता है.
धारा के विरुद्ध चलने की अपनी शैली के कारण ही एक क्षेत्रीय पार्टी के नेता होने के बावजूद नीतीश कुमार ने भारतीय राजनीतिक पत्रकारिता को विशाल भारतीय जनता पार्टी के उभरते नेता नरेंद्र मोदी बनाम स्वयं पर कम से कम आधे दशक तक केंद्रित कर दिया. अखबार में मोदी बनाम नीतीश पर केंद्रित लेख लिखे जाते थे और दोनों में साम्य, अंतर व मतभेद के बिंदुओं का विश्लेषण किया जाता था. यह स्तंभकारों व पत्रकारों के लिए दिलचस्प विषय था. नीतीश की शख्सियत ही थी कि नरेंद्र मोदी के बढते वर्चस्व से परेशान उनके राजनीतिक संरक्षक व गुरु रह चुके लालकृष्ण आडवाणी को अपनी इस समस्या का समाधान नीतीश में ही दिखता था. तभी तो वे अपने राजनीतिक कैरियर की ढलान पर पहुंचने के बाद एक बार फिर उसे गति देने के लिए नीतीश कुमार से हरी झंडी दिखवा कर जेपी की भूमि सिताबदियारा से देश की यात्रा पर निकले थे. भााजपा के अंदर प्रधानमंत्री बनने की मंशा पाले दूसरी पीढी के कद्दावर नेता भी नीतीश कुमार में ही अपना मौन भविष्य देखते थे कि यही शख्स नरेंद्र मोदी का रोक सकता है और उनके भारतीय राजनीति के शिखर पर पहुंचने के मंसूबे को पूरा कर सकता है.
ब्रांड नरेंद्र मोदी के विरुद्ध उम्मीद की एक किरण
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नीतीश कुमार बिहार के चुनावी जंग में सिर्फ खंड-खंड हो चुके अपने परिवार यानी जनता परिवार के चेहरा नहीं बने, बल्कि वे भाजपा विरोधी महगठजोड के नेता बने हैं. कांग्रेस ने पहले ही उन्हें अपना नेता स्वीकार किया. भाजपा विरोधी राजनीति करने वाला हर शख्स जानता है या मानता है कि ब्रांड नीतीश कुमार का कोई विकल्प उनके खेमे में नहीं है. और, यही एक शख्स है जो भाजपा के ब्रांड नरेंद्र मोदी के खिलाफ खडा हो सकता है. नरेंद्र मोदी ने जिस तरह खुद को राष्ट्रीय स्तर पर एक राजनीतिक ब्रांड के रूप में पेश किया है, कामकाज, गवर्नेंस, जनहित के प्रति समर्पण जैसे बिंदुओं पर उनका मुकाबला ब्रांड नीतीश कुमार ही कर सकता है.
हालांकि यह भविष्य के गर्भ में है कि बिहार में जीत भाजपा के नेतृत्व वाले महगठजोड की होगी या नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले भाजपा विरोधी महगठजोड की, लेकिन इतना तय है कि अगर नीतीश कुमार के नेतृत्व वाला महागठजोड जीत दर्ज कराता है, तो इससे भारतीय राजनीति की दिशा भी बदलेगी. ब्रांड नरेंद्र मोदी के सामने धराशयी पडे विपक्ष में एक नयी जान आयेगी और उसका दूरगामी असर भविष्य की राजनीति पर पडेगा. इससे नीतीश कुमार का कद कुछ इस माफिक बढेगा, जैसे ज्योति बसु का या बीजू पटनायक का राजनीतिक कद था. ज्योति बाबू व बीजू पटनायक राज्य के मुख्यमंत्री ही रहे, लेकिन उनका राजनीतिक कद प्रधानमंत्री के बराबर का रहा व उन्हें पीएम मैटेरियल माना गया.
भाजपा के नेता के राजनीतिक बयान के संकेत
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नीतीश कुमार को भाजपा विरोधी महागठजोड का नेता चुने जाने के बाद भाजपा के नेताओं के बयान घिसे-पीटे रहे. यह भाजपा के रणनीतिकारों के लिए चिंता की बात होनी चाहिए. एक भी बयान ऐसा नहीं था, जो नीतीश कुमार की संभावनाओं व कार्यशैली पर सवाल उठा सके. बल्कि उनके बयान मोटे तौर पर यही संकेत थे व हैं कि उन्होंने भ्रष्टाचार के आरोपों में जेल जाने वाले शख्स लालू प्रसाद से गठजोड कर लिया, जो उन जैसे शख्स को नहीं करना चाहिए. यानी यह बयान यह स्पष्ट करता है कि नीतीश कुमार राजनीतिक रूप से नैतिक व ईमानदार शख्स हैं. भाजपा का एक दूसरा बयान यह संकेत देता है कि नीतीश कुमार ने जंगल राज के खिलाफ अभियान चलाया और अब वे लालू से मिल कर जंगल राज – 2 लायेंगे. यानी यह बयान भी यह संकेत देता है कि नीतीश कुमार ने बिहार से कथित जंगल राज को खत्म किया.
भाजपा के प्रदेश के शिखर नेता ही नहीं, बल्कि केंद्र के शिखर नेता भी जानते हैं कि नीतीश अपनी शर्तों पर और अपनी शैली में काम करते हैं. नरेंद्र मोदी को छोड भाजपा के सारे शिखर नेता नीतीश कुमार के साथ केंद्र में वाजपेयी सरकार में काम कर चुके हैं. जबकि भाजपा के प्रदेश के सारे शिखर नेता नीतीश कुमार के नेतृत्व में काम कर चुके हैं. ऐसे में यह भय निर्मूल है कि अगर नीतीश कुमार के नेतृत्व में राजद व कांग्रेस की सहभागिता वाली सरकार बनती है, तो उसमें कानून व्यवस्था, सुशासन व पारदर्शिता से कोई समझौता होगा.
दरअसल, भाजपा की एक दुविधा यह भी है कि उसके राष्ट्रीय स्तर के सारे शिखर नेता नीतीश की निष्ठा व गवर्नेंस पर कोई निशाना अब तक न साध सके हैं और न ही उनके लिए साधने के मौके होंगे. शुरुआती संकेत यही है कि भाजपा का सारा चुनाव अभियान नीतीश ने लालू से दोस्ती क्यों की इसी सवाल पर केंद्रित होगा. हालांकि नरेंद्र मोदी एक बेहतरीन राजनीतिक रणनीतिकार हैं और नीतीश की तरह ही राजनीतिक को नया मुहावरा व नयी दिशा देने वाले शख्स हैं. ऐसे में नरेंद्र मोदी विधानसभा चुनाव में दो-तीन बडी कोशिश करते दिख सकते हैं : इसमें एक कोशिश बिहार का गवर्नेंस व डेवलपमेंट बनाम गुजरात का गवर्नेंस व डेवलपमेंट हो सकता है और उनके चुनावी अभियान यह बारीक संकेत देते हो सकते हैं कि वे बिहार को गुजरात जैसा विकसित बना देंगे. दूसरी कोशिश यह हो सकती है कि वे केंद्र वाजपेयी सरकार से लेकर मोदी सरकार के एक साल के कार्यकाल में किये गये कार्यों का उल्लेख कर वोट मांग सकते हैं. तीसरी कोशिश यह हो सकती है कि वह यह संकेत देंगे कि बिहार में उनकी पार्टी का मुख्यमंत्री जो कोई भी हो वह तो महज छाया होगा और शासन उनके व उनके सिपहसलार अमित शाह की सोच, योजना व एजेंडे के अनुरूप ही चलेगा. संभव है कि चौथी कोई ऐसी कार्ययोजना उनके पास हो, जिसका भान अभी किसी को नहीं हो.
बहरहाल, बिहार की राजनीति अब बराबरी की और रोचक हो चुकी है और कुला मिला कर भाजपा व नीतीश कुमार दोनों के लिए सुशासन इसका मूल तत्व हो चुका है. यह सुखद है. कुछ महीनों का इंतजार कीजिए परिणाम जो भी हों, वे होंगे तो दिलचस्प ही!

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