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क्या अति आत्मविश्वास में भाजपा ने छोड़ा शिवसेना का साथ?

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भाजपा शिवसेना गंठबंधन का अंतत: 25 साल के बाद अंत हो गया. इस गंठबंधन के अंत को निश्चित रूप से इस वर्ष की राजनीति की सबसे बड़ी घटना माना जाना चाहिए. तमाम विरोधों के बावजूद राजनीतिक पंडित इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं थे कि भाजपा और शिवसेना का गंठबंधन टूट जायेगा. महाराष्ट्र […]

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भाजपा शिवसेना गंठबंधन का अंतत: 25 साल के बाद अंत हो गया. इस गंठबंधन के अंत को निश्चित रूप से इस वर्ष की राजनीति की सबसे बड़ी घटना माना जाना चाहिए. तमाम विरोधों के बावजूद राजनीतिक पंडित इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं थे कि भाजपा और शिवसेना का गंठबंधन टूट जायेगा. महाराष्ट्र की वर्तमान राजनीति पर अगर नजर दौड़ायें, तो यह कहा जा सकता है कि कांग्रेस का जाना तय है. ऐसे में आखिर क्यों भाजपा-शिवसेना का गंठबंधन टूट गया, यह सवाल हर किसी को परेशान कर रहा है.

उद्धव की महत्वाकांक्षा बनी तलाक का कारण

क्या मुख्यमंत्री पद को लेकर उद्धव की महत्वाकांक्षा ने भाजपा-शिवसेना के 25 साल पुराने युति की बलि ले ली है? इस सवाल का जवाब हर कोई जानना चाहता है. सूत्रों का कहना है कि मुख्यमंत्री के पद पर जिस प्रकार शिवसेना अपना हक जता रही थी, वह भाजपा को रास नहीं आ रहा था. वहीं इस चुनाव में भाजपा महाराष्ट्र में अपनी पैठ बढ़ाना चाह रही थी, लेकिन शिवसेना उसके लिए ज्यादा सीट छोड़ने को तैयार नहीं थी. भाजपा और शिवसेना समान विचारधारा वाली पार्टी रही है, लेकिन राजनीतिक महत्वाकांक्षा के कारण इनका गंठबंधन अंतत: टूट गया.

युति टूटने के बाद आक्रामक हो गयी है शिवसेना

भाजपा के साथ गंठबंधन टूटने के बाद शिवसेना आक्रामक हो गयी है. उसका कहना है कि गंठबंधन तोड़ने वालों ने महाराष्ट्र की करोड़ों जनता की भावनाओं को आहत किया है. इसलिए उन्हें महाराष्ट्र का दुश्मन ही कहा जाना चाहिए. सामना में प्रकाशित लेख में कहा गया है कि भाजपा पितृपक्ष के कौवों के समान हैं, जो खा-पीकर उड़ जाते हैं. अब जो साथ रह गये हैं, वे अपने हैं.

गंठबंधन टूटने के बाद किसे होगा नुकसान

भाजपा शिवसेना का गंठबंधन टूटने के बाद नुकसान किसे होगा? यह सवाल आज प्रासंगिक है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि गंठबंधन के अगर फायदे थे, तो उसके नुकसान भी होंगे. भाजपा के साथ शिवसेना मजबूत स्थिति में थी जो अब नहीं रहेगी. ऐसे में उसे चुनाव में कितनी सफलता मिलेगी, यह अभी बताना मुश्किल है.

अब बाल ठाकरे नहीं है, इसलिए अब उनका आभामंडल भी नहीं रहा है. उधर मनसे के नेता राज ठाकरे खुद को बाला साहेब ठाकरे का उत्तराधिकारी साबित करने के लिए तेवर भी उसी ढंग से अपनाते हैं, जिसका फायदा उन्हें मिलता है. ऐसे में उद्धव पार्टी की नैया पार कर पायेंगे, इसपर शंका है.

वहीं भाजपा के भविष्य को लेकर भी चिंता है. ऐसा प्रतीत हो रहा है कि भाजपा अति आत्मविश्वास में है. वह मोदी लहर को लेकर इतनी आत्ममुग्ध हो गयी है कि उसे अपने-पराये का फर्क नहीं दिख रहा है. अगर यह स्थिति है, तो भाजपा को नुकसान की संभावना ज्यादा है.

भाजपा-शिवसेना की लड़ाई से कांग्रेस को होगा फायदा

महाराष्ट्र में जिस तरह की राजनीतिक परिस्थिति है, उसे देखकर यह कहा जा सकता है कि भाजपा-शिवसेना की लड़ाई से कांग्रेस को फायदा पहुंच सकता है. फिलवक्त जो हालात हैं, उसमें कांग्रेस अच्छी स्थिति में नहीं है, लेकिन मौके का फायदा उठाकर वह अपनी गोटी लाल करने की कोशिश जरूर करेगी, जिसमें वह माहिर भी है. हालांकि एनसीपी से उसका 15 वर्ष पुराना गंठबंधन अब नहीं रहा है.

क्या टूटे दिल फिर मिल सकते हैं

चुनाव बाद की जो स्थिति होगी, उसे लेकर यह कयास लगाये जा रहे हैं कि संभव है कि भाजपा-शिवसेना का पैचअप हो जाये और दोनों फिर साथ आ जायें. वैसे भी राजनीति में कुछ भी संभव है. तो उम्मीद की जानी चाहिए कि 25 साल पुराना यह गंठबंधन ज्यादा दिनों तक अलग नहीं रह सकता है.

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