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शुरू से अंत तक जानिए, सिखों के 10वें गुरु ”गुरु गोबिंद सिंह” की पूरी कहानी

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नयी दिल्ली: आज सिखों के दसवें आध्यात्मिक गुरु, दार्शनिक, योद्धा और कवि, गुरु गोबिंद सिंह की जयंती है. बिहार के पटना साहिब गुरुद्वारा सहित दुनिया के देश और दुनिया के ऐसे हिस्सों में जहां सिख समुदाय के लोग रहते हैं, गुरु गोबिंद सिंह की जयंती बड़े धूमधाम से मनाई जाती है. आज उनकी जयंती के […]

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नयी दिल्ली: आज सिखों के दसवें आध्यात्मिक गुरु, दार्शनिक, योद्धा और कवि, गुरु गोबिंद सिंह की जयंती है. बिहार के पटना साहिब गुरुद्वारा सहित दुनिया के देश और दुनिया के ऐसे हिस्सों में जहां सिख समुदाय के लोग रहते हैं, गुरु गोबिंद सिंह की जयंती बड़े धूमधाम से मनाई जाती है. आज उनकी जयंती के मौके पर राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद, उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनको श्रद्धांजलि भी दी. आईए एक नजर डाल लेते हैं गुरु गोबिंद सिंह की जीवनयात्रा पर……..

बिहार के पटना साहिब में हुआ था जन्म

उस समय मुगलों का शासन था. दिल्ली की तख्त पर मुगल बादशाह औरंगजेब बैठा था. वो समय ऐसा था जब बहुतायात में लोगों का धर्म परिवर्तित करवाया जाता था. इस समय सिखों के मुखिया थे उनके नवें गुरु, गुरु तेगबहादुर. वो 1666 इस्वी का समय था. 22 दिसंबर 1666 को गुरु तेगबहादुर और माता गुजरी के यहां एक बालक का जन्म हुआ. नाम रखा गया गोबिंद राय. गोबिंद राय का बचपन शरारतों भरा था, हालांकि ऐसा नहीं कि, किसी का दिल दुखे.

बालक गोबिंद जब कुछ बड़े हुए तो माता-पिता को ये देख हैरानी हुई कि उनका पुत्र खिलौने छोड़, तलवार, बरछी, कटार से खेलता है. तीरंदाजी का अभ्यास करता रहता है. स्पष्ट था, गोबिंद सिंह में योद्धाओं वाले लक्षण थे. गोबिंद को जब शिक्षा दी जाती तो वो ध्यानपूर्वक गुरूओं की बात सुनते और उन्हें आत्मसात करते थे. गोबिंद राय को साहित्य में रूचि थी.

पिता की शहीदी के बाद बने सिखों के गुरु

एक दिन गुरु तेगबहादुर को औरंगजेब का बुलावा आया. नन्हें गोबिंद राय ने पिता को मुस्कुराते हुए विदा किया और धर्म के रक्षार्थ शहीद होने को भी कहा. गुरु तेगबहादुर अपने तीन अनुयायियों के साथ मुगल दरबार पहुंचे. बादशाह ने कहा, इस्लमा कबूल करना होगा. तीनों नहीं माने. औरंगजेब ने चारों को निर्मम और बर्बर सजा देने का हुक्म दिया. सबसे पहले तीनों अनुनायियों को सजा दी गयी. एक को खौलते तेल के कड़ाह में डूबोकर मार दिया गया. दूसरे के शरीर में रूई लपेटी गयी और आग के हवाले कर दिया गया. तीसरे को बीचों-बीच आरी से काट देने की सजा दी गयी.

मुगल बादशाह को लगा था कि इससे गुरु तेगबहादुर का दिल कांप जाएगा और वो उनकी बात मान लेंगे. लेकिन ना तो उनके शिष्यों और ना ही गुरु तेगबहादुर के चेहरे में कोई शिकन आई. खुशी-खुशी चारों धर्म के रक्षार्थ शहीद हो गए. जब ये खबर गुरु गोबिंद सिंह को मिली तो उनका चेहरा गर्व से भर उठा.

गोबिंद राय से बन गए गुरु गोबिंद सिंह

सन् 1675 में महज 12 साल की उम्र में गोबिंद राय को सिखों का दसवां गुरु नामित किया गया. अब उनका नाम हो गया गुरु गोबिंद सिंह. उन्होंने सिखों को निर्देशित करना शुरू कर दिया. फारसी, अरबी, संस्कृत और पंजाबी भाषा के जानकार गुरु गोबिंद सिंह को साहित्य में काफी रूचि थी. वो खुद भी कविताएं लिखा करते हैं. हर दिन हजारों की संख्या में सिख, बुजुर्ग, महिला, युवा और बच्चे उनको सुनने आया करते थे.

गुरु गोबिंद सिंह ने रखी खालसा पंथ की नींव

इसी तरह एक दिन जब सब लोग इकट्ठा हुए, गुरु गोबिंद सिंह ने कुछ ऐसा मांग लिया कि सभा में सन्नाटा छा गया. दरअसल, सभा में मौजूद लोगों से गुरु गोबिंद सिंह ने उनका सिर मांग लिया था. गुरु गोबिंद सिंह ने रौबदार आवाज में कहा, मुझे सिर चाहिए. आखिरकार एक-एक कर पांच लोग उठे और कहा, हमारा सिर प्रस्तुत है आपके लिए. गुरु गोबिंद सिंह पांचों को एक-एक कर अंदर ले गए. वो जैसे ही उन्हें तंबू के अंदर ले जाते कुछ देर बाद वहां से रक्त की धार बह निकलती और भीड़ की बैचेनी भी बढ़ती जाती. पांचों के साथ ऐसा ही हुआ.

और आखिर में गुरु गोबिंद सिंह अकेले तंबू में गए और साथ लौटे तो भीड़ भी आश्चर्यचकित हो गयी. पांचो युवक गुरु गोबिंद सिंह के साथ थे, नए कपड़े पहने, पगड़ी धारण किए हुए. गोबिंद सिंह तो उनकी परीक्षा ले रहे थे. गोबिंद सिंह ने सेवकों से एक कड़ाह में पानी मंगवाया, उसमें थोड़ी शक्कर डाली और तलवार से उसे घोला. उन्होंने ये पांचो युवकों को बारी-बारी से पिलाया. कहा कि अब तुम पंच प्यारे हो. उन्होंने एलान किया कि अब से हर सिख युवक कड़ा, कृपाण, केश, कच्छा और कंघा धारण करेगा. यहीं हुई थी खालसा पंथ की स्थापना. खालसा यानी शुद्ध.

गुरु गोबिंद सिंह ने सैन्य दल का गठन किया, हथियारों का निर्माण करवाया और युवकों को युद्धकला का प्रशिक्षण भी दिया, क्योंकि उनको लगता था कि केवल संगठन से काम नहीं बनेगा, सैन्य संगठन बनाना होगा ताकि समुदाय और धर्म की रक्षा की जा सके.

त्याग-बलिदान का प्रतीक हैं गुरु गोबिंद सिंह

गुरु गोबिंद सिंह ने सिख युवकों की सेना तैयार की और मुगलों के खिलाफ एक लंबी लड़ाई लड़ी. कई लड़ाईयां जीतीं तो कुछ में पराजय का सामना करना पड़ा. लेकिन उन्होंने कभी भी हथियार नहीं डाले और ना ही समझौता किया. चमकौर की लड़ाई में उनके दो बेटों ने अपने प्राणों का बलिदान कर दिया. वहीं दो छोटे बेटों को मुगल सैनिकों ने इस्लाम कबूल नहीं करने पर जिंदा ही दीवार में चुनवा दिया. लेकिन घुटना नहीं टेका. तो ऐसे त्यागी और बलिदानी थे गुरु गोबिंद सिंह और उनके बेटे. उनका बड़ा बेटा अजित सिंह तो चमकौर में वीरता से लड़ते हुए शहीद हुए.

बंदा बहादुर को बना दिया अपना प्रतिनिधि

जीवन के आखिरी दिनों में गुरु गोबिंद सिंह ने मुगलों के खिलाफ गुरिल्ला लड़ाई छेड़ दी थी. वो छुपकर रहते और अचानक मुगलों पर हमला बोल देते. इसी समय उनकी मुलाकात बंदा बहादुर से हुई थी. गुरु गोबिंद सिंह को शायद ये आभास हो गया था कि इस लड़ाई में उनको अपने प्राणों का बलिदान करना पड़ेगा. उन्होंने बंदा बहादुर से सिखों को मार्गदर्शन करने को कहा.

एक दिन जब गुरु गोबिंद सिंह अपने शिविर में आराम कर रहे थे, अचानक दो मुगल सैनिकों ने हमला बोल दिया. गोबिंद सिंह ने दोनों को मार गिराया लेकिन उनके पेट में गहरा घाव लग गया. टांके लगाए गए. गुरु गोबिंद सिंह का जख्म भर रहा था. लेकिन इसी समय उन्होंने तीरंदाजी का अभ्यास करना शुरू कर दिया. जोर पड़ने से टांके खुल गए और जख्म जानलेवा हो गया.

जब गोबिंद सिंह को लगा कि उनका अंतिम समय निकट है तो उन्होंने शिष्यों को इकट्ठा किया. उन्होंने कहा कि अब से सिखों का मार्गदर्शन पवित्र ग्रंथ, गुरु ग्रंथ साहिब में लिखी गुरुवाणी करेगी. आखिरकार 16 अक्टूबर साल 1708 को गुरु गोबिंद सिंह का निधन हो गया.

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