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#METOO : चलो मान लिया मैं नारीवादी नहीं हूं…

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-पंकज कुमार पाठक- देश में इन दिनों #METOO कैंपेन चल रहा है, जिसके जरिये महिलाएं अपने साथ हुए यौन उत्पीड़न की घटनाओं का जिक्र कर रही हैं. महिलाओं के इस कैंपेन के कारण कई बड़े-बड़े नाम सवालों के घेरे में हैं. एमजे अकबर जैसे वरिष्ठ संपादक पर आरोप लगा है, तो आलोकनाथ जैसे स्वच्छ और […]

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-पंकज कुमार पाठक-

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देश में इन दिनों #METOO कैंपेन चल रहा है, जिसके जरिये महिलाएं अपने साथ हुए यौन उत्पीड़न की घटनाओं का जिक्र कर रही हैं. महिलाओं के इस कैंपेन के कारण कई बड़े-बड़े नाम सवालों के घेरे में हैं. एमजे अकबर जैसे वरिष्ठ संपादक पर आरोप लगा है, तो आलोकनाथ जैसे स्वच्छ और आदर्श छवि वाले अभिनेता भी आरोपों के घेरे में हैं. ऐसे में कई लोग इनके साथ खड़े हैं और कह रहे हैं कि आरोप लगाने वाली महिलाओं की बातें अंतिम सत्य नहीं हो सकती है, इस मुद्दे पर आरोपी पुरुषों की बातें भी सुनी जानी चाहिए. कई बार आपसी सहमति से बने संबंध भी परिस्थितियों के कारण विवादों में आ जाते हैं, ऐसे में प्रस्तुत है #METOO कैंपेन पर एक नजरिया-

टीवी पर चल रहा है ‘संस्कारी बापू का घिनौना चेहरा’. बात किसी के समर्थन की नहीं है लेकिन जो मैं कहने वाला हूं, हो सकता है आप उसे एकतरफा देखें. ऐसा तभी होगा जब आप पहले से एकतरफा देखते होंगे या खुद को भयंकर नारीवादी मानते होंगे. अगर नारीवादी होने का मतलब किसी भी महिला की कोई भी बात आंख बंद कर मान लेना है, तो चलो मैंने मान लिया कि मैं नारीवादी नहीं हूं.

खासकर तब जब उनके शब्द किसी के जीवन भर की कमाई से ज्यादा ताकतवर हों. #METOO अच्छी कोशिश है, जहां महिलाएं अपने बुरे अनुभवों को साझा कर रही हैं, लेकिन क्या हम हर बात को सच मान लें? मैं उनके इरादों पर सवाल नहीं खड़ा कर रहा. बस इतना जानना चाहता हूं कि क्या किसी की कही बात में इतनी ताकत है कि बगैर जांच के या दूसरा पक्ष सुने बिना हम उसे सजा दे दें.

आप सोच रहे होंगे, लड़का महिला विरोधी है, पुरुषवादी सोच का है. आपके सारे आरोप उसी तरह हैं, जिस तरह सोशल मीडिया पर कैरेक्टर सर्टिफिकेट बांटे जा रहे हैं. आपको सोचना है तो सोचिए, लेकिन फर्क समझिए. जैसे कोई राजनीतिक पार्टी मुझे देशभक्त होने का प्रमाण पत्र नहीं दे सकती, वैसे ही कोई सिर्फ अपनी बात सबके सामने रखकर मेरी जिंदगी भर की कमाई, मेरी प्रतिष्ठा, सम्मान नहीं छीन सकता.

जिस तरह किसी महिला को अधिकार है कि वह खुलकर अपनी बात रखे, वैसे ही हर पुरुष को अधिकार है कि वह भी अपनी बात रखे. तकलीफ तब है जब आप महिला को महिला होने का लाभ देकर उसकी बात सच मानते हैं, जरा भी शक नहीं करते और करना भी नहीं चाहिए. आखिर एक महिला इतने लोगों के सामने झूठ क्यों बोलेगी? उसने इतने साल जो मानसिक, शारीरिक तकलीफ झेली है, यही सोच हमें भावनात्मक तौर पर कमजोर कर देती है. महिला को अगर महिला होने का लाभ मिल रहा है, तो मिले, बढ़िया है… लेकिन पुरुष को पुरुष होने का नुकसान होना भी तो गलत है ना.

#MeToo के तूफान में घिरे वरिष्ठ पत्रकार एमजे अकबर, जानें क्या है आरोप…

दिल्ली के रहने वाले सरबजीत सिंह याद हैं, नहीं… चलिए याद दिलाता हूं, तीन साल पहले सोशल मीडिया पर एक फोटो वायरल हुई. आरोप लगा, महिला के साथ छेड़छाड़ और दुर्व्यवहार का, महिला ने उसकी फोटो सोशल साइट पर शेयर कर दी. थाने में शिकायत भी दर्ज करा दी. सोशल साइट पर आरोपी को दोषी मानते हुए सजा दे दी गयी.

उसकी नौकरी गयी, जगह – जगह अपमान सहना पड़ा. यह असर सिर्फ फेसबुक पोस्ट का था. अब कानूनी कार्रवाई का हाल जानिए. 3 साल में 13 सुनवाई हुई. पीड़ित लड़की एक बार भी कोर्ट नहीं पहुंची. लड़की के घरवाले पहुंचे. उन्होंने कोर्ट में बताया, बेटी देश के बाहर पढ़ाई कर रही है. क्या सरबजीत का करियर नहीं है, परिवार नहीं है? सरबजीत के मां-बाप उसकी शादी करना चाहते थे, लेकिन इन आरोपों के कारण उसकी शादी नहीं हुई. पीड़िता ने सिर्फ एक पोस्ट करके उसे सजा दे दी.

जिस ट्रैफिक सिग्नल पर उसने छेड़छाड़ का आरोप लगाया था, वहां कई लोग थे लेकिन कोई पीड़िता के पक्ष में बयान देने नहीं आया. हां, एक व्यक्ति आये जिन्होंने यह कहा कि ऐसा कुछ नहीं हुआ था जैसा पीड़िता ने बताया. मामला अब भी कोर्ट में है और जो हाल है उसे देखकर लगता है फैसला आने में वक्त लगेगा.

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अब #METOO कैंपन के जरिये ऐसे कई पोस्ट किये जा रहे हैं. मीडिया को मसाला मिल गया है. इनमें से कई आरोपी ऐसे होंगे, जो दोषी होंगे लेकिन उनका क्या, जिन्हें दोष साबित होने से पहले ही मीडिया ट्रायल और सोशल मीडिया के जरिये सजा मिल रही है? क्या यह सही है? नाना पाटेकर, आलोक नाथ, एमजे अकबर, विकास बहल, वरुण ग्रोवर, गुरसिमरन खंबा, तन्मय भट्ट, मलयाली एक्टर मुकेश समेत कई नाम है. जाहिर है, इनमें से कई दोषी भी होंगे. तनुश्री दत्ता ने नाना पाटेकर पर आरोप लगाये, मामला दस साल पुराना है, आलोक नाथ पर जो आरोप लगे वह 1994 का है. मामला कितना भी नया या पुराना हो, लेकिन इन आरोपों का असर देखिए. कई को सजा मिलनी शुरू हो गयी है. ऋृतिक ने विकास के साथ काम करने को लेकर सवाल खड़ा कर दिया, तो किसी को छुट्टी पर भेज दिया गया.

दहेज के लालच में कितनी बहन-बेटियां जला दी जाती है. इसके लिए सख्त कानून है. पर क्या आप नहीं मानते कि इसी कानून का लाभ लेकर कितनी महिलाएं अपने ससुराल वालों को बेवजह जेल भिजवा देती हैं? महिला को तलाक के बाद कई अधिकार मिले हैं, लेकिन क्या आप नहीं मानते कि इसी अधिकार की धौंस दिखाकर महिलाएं अपने पति को भी मानसिक तौर पर परेशान करती हैं. आप (महिलाओं को ) जो अधिकार मिले हैं, उसके इस्तेमाल से पहले सोचिए. आरोप लगाने से पहले सोचिये. आप सिर्फ अपने बुरे अनुभव साझा नहीं कर रहे आप उसे बुरे अनुभव की सजा भी दे रहीं हैं.

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आप सिर्फ एक पोस्ट साझा नहीं कर रही हैं, आपका पोस्ट उस पुलिस चार्जशीट की तरह है, जो कोर्ट में आरोपी को सजा दिलाने के पक्ष में दायर किया जाता है. आपके शब्द इतने दमदार हैं कि कोर्ट में तो चार्जशीट पर बहस भी होती है, आपके शब्दों पर कोई बहस नहीं होती. हम लोग जो इस तरह की चार्जशीट से होकर गुजरते हैं और हमारी आंखों पर पट्टी भी नहीं बंधी है. अब आप चाहें तो अपने विवेक से काम लें या सिर्फ यह कहकर सारे तर्क को बेकार कर दें कि मैं महिला विरोधी हूं ….

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