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सबसे कठिन काम के लिए क्यों फिट माने जाते थे सरदार पटेल

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आजाद भारत के शुरुआती साल बेहद नाजुक थे. देश स्वतंत्र तो हो चुका था लेकिन वह अब भी 562 रियासतों मेंबंटा था. इनमें से कई रियासत बहुत बड़ी थी और उनकी आबादी और क्षेत्रफल देश के कई राज्यों से बड़ी थी. लिहाजा ऐसे राज्य भारत में विलय नहीं होना चाहते थे. देश के पहले गृहमंत्री […]

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आजाद भारत के शुरुआती साल बेहद नाजुक थे. देश स्वतंत्र तो हो चुका था लेकिन वह अब भी 562 रियासतों मेंबंटा था. इनमें से कई रियासत बहुत बड़ी थी और उनकी आबादी और क्षेत्रफल देश के कई राज्यों से बड़ी थी. लिहाजा ऐसे राज्य भारत में विलय नहीं होना चाहते थे. देश के पहले गृहमंत्री के रूप में सरदार वल्लभ भाई पटेल के सामने सबसे कठिन काम इन 562 रियासतों को मिलाकर एक देश का निर्माण करना था. उन्होंनेप्राथमिकता के तौर पर इस सबसे कठिन काम को चुना और उसे एक मुकाम तक पहुंचाया. सांप्रदायिक दंगों की आग में झुलस रहे देश में राष्ट्रनिर्माण की बड़ी चुनौतियां थी. विभाजन के बाद पटेल देश के गृहमंत्री बने. वह कौन-सी परिस्थितियां थी, जिसने सरदार पटेल को लौह पुरुष बनाया. उनके इस असाधारण प्रतिभा को समझने के लिए स्वतंत्रता आंदोलन पर एक नजर डालना जरूरी है.

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पटेल गांधीजी के आंदोलन से प्रभावित थे. अपने समकालीन नेताओं की तरह वह भारत को स्वतंत्र देखना चाहते थे. क्रांतिकारीके साथ-साथ एक बेहतरीन प्रशासक के गुणउनमें शुरू से ही दिखने लगे थे. 1922, 1924 और 1927 में उन्होंने अहमदाबाद के मेयर का पद संभाला. उनके कार्यकाल के दौरान बिजली की आपूर्ति में बढ़ोतरी दर्ज की गयी. शहर में स्वच्छता व जल निकासी पर विशेष ध्यान दिया गया. उन दिनों अहमदाबाद में अंगरेजों द्वारा स्थापित स्कूलों के शिक्षकों को ज्यादा वेतन मिला करता था लेकिन उन्होंने आम भारतीयों द्वारा संचालित स्कूल के शिक्षकों को उचित वेतन की मांग की और उसकी मान्यता और वेतन वृद्धि के लिए लड़ीं.

मेयर की कुर्सी संभालने के बाद उन्होंने एक बार फिर देश के स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ना सही समझा. मुंबई में रहते हुए उन्होंने पार्टी के लिए फंड विकसित करने का काम किया और केंद्रीय संसदीय समिति के अध्यक्ष चुने गये. अकसर पटेल और नेहरू में मतभेद की बात कही जाती है. पटेल और नेहरू कई मायनों में भिन्न थे. दोनों साथ मिलकर काम करते थे.गांधीजी के प्रिय थे. ये मतभेद सैद्धांतिक हुआ करते थे. पटेल किसी भी बिन्दु के व्यवहारिक पक्ष पर ध्यान देते थे. वहीं नेहरू जी आदर्शवादी किस्म के शख्स थे.

1936 के सत्र में जब नेहरू ने समाजवादकेसिद्धांतपर जोर दिया तोपटेलने इस बात का तीखा विरोध किया. पटेल का तर्क था कि इस तरह किसी खास किस्म केप्रस्तावोंसे स्वतंत्रता आंदोलनकेउद्देश्य में भटकाव मिल सकता है. कहा तो यह भी जाता है कि सरदार पटेल के सुभाष चंद्र बोस से भी मतभेद थे. उन्होंने सुभाष चंद्र बोस पर एक बार अंहिसा के मार्ग से हटने का आरोप लगाया था. इन मतभेदों के बावजूद तमाम बड़े नेताओं का साझा लक्ष्य देश को स्वतंत्र देखना था.

एक कुशल प्रशासक और शानदार रणनीतिकार

देश आजाद होने के बाद भय का माहौल था. बड़े नेताओं को इस बात का डर था कि भारत फिर टुकड़ों में विखंडित न हो जाये.ऐसेमाहौलमें तमाम बड़े आंदोलनकारी नेता व अंग्रेज अफसरों का मानना था कि पटेल ही एकमात्र शख्सहैं जो भारत को जोड़ने का काम कर सकते हैं. सरदार पटेल एक कुशल प्रशासक थे और उससे भी बड़े रणनीतिकार. उन्होंने जिन्ना के अलग देश के आंदोलन का जबर्दस्त विरोध किया लेकिन तत्कालीन परिस्थितियां ऐसी बन चुकी थी बिना देश विभाजन की संप्रदायिक हिंसा थम नहीं सकती थी.

भारत के बिस्मार्क के नाम से चर्चित पटेल ने वह काम कर दिखाया जो 1860 में बिस्मार्क ने पूर्वी जर्मनी और पश्चिमी जर्मनी का एकीकरण कर किया था. छोटे रियासतों की बात छोड़ दी जाये तो जिन दो बड़े रियासतों को मिलाना भारत के लिए सबसे कठिन चुनौती थी वह जूनागढ़ और हैदराबाद था. जूनागढ़ सरदार पटेल के लिए बेहद अहम था क्योंकि यह पटेल का गृह राज्य था. बताया जाता है कि जूनागढ़ के नवाब पाकिस्तान में शामिल होने का इरादा रखते थे. जूनागढ़ की 90 प्रतिशत आबादी हिंदू थी. इस लिहाज से यह धर्म अधारित द्विराष्ट्र के हिसाब सेपाकिस्तानमेंयह फिट नहीं बैठता था. कमोबेश उसी तरह की स्थिति हैदराबाद की थी.

हैदराबाद रियासत के अंदर तेलांगना, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र राज्य आते थे. इस लिहाज से यह बहुत बड़ा भूभाग था. यहां की 80 प्रतिशत जनता हिंदू थी.वहींनवाब मुसलिम,तमाम तरह के वार्ता के बाद हैदराबादभारतसे निकलता दिख रहा था. सरदार पटेल बातचीत से लेकर सेना के विकल्प खुले रखते थे. उनका पक्ष व्यवाहरिक था. जब उन्हें इस बात का अहसास हो गया कि दंगों की वजह से निर्दोष लोगों की जान जा रही है और जिन इलाकों से पाकिस्तान के अलग होने की मांग उठ रही है, अगर विभाजन न हो तो स्थितियां और बिगड़ सकती है,तो उन्होंने कांग्रेस के नेताओं की तरह उन्हें भी इस सच्चाई को मानना पड़ा.

इसका कतई मतलब नहीं कि सरदार पटेल की सोच संप्रदायिक थी. वह व्यवहारिक पक्ष को हमेशा ध्यान में लेकर चलते थे. अगले पक्ष से बातचीत करते थे और शांत और समृद्ध राष्ट्र की परिकल्पना रखते थे. भारत में आइएएस और आइपीएस के गठन में उनका अहम योगदान था. सरदार पटेल का मानना था कि प्रशासनिक अधिकारियों को राजनीतिक हस्तक्षेप से दूर रखना चाहिए.

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