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हिंदी पत्रकारिता के शून्य को भरा है धर्मयुग ने

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-हरिवंश- स्वतंत्रता पूर्व हिंदी पत्रकारिता का इतिहास विकट-विपरीत परिस्थितियों में भी दुनिया बदलने की दृढ़ मानवीय इच्छा का दस्तावेज है. आजादी की लड़ाई में अगले मोरचे से मार्ग-दर्शन, आदर्शों के लिए आत्म बलिदान और अविश्वसनीय त्याग का वह दौर हिंदी पत्रकारिता की मूल पूंजी और गौरवमय अतीत है. आजादी के बाद भोग और पतन का […]

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-हरिवंश-

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स्वतंत्रता पूर्व हिंदी पत्रकारिता का इतिहास विकट-विपरीत परिस्थितियों में भी दुनिया बदलने की दृढ़ मानवीय इच्छा का दस्तावेज है. आजादी की लड़ाई में अगले मोरचे से मार्ग-दर्शन, आदर्शों के लिए आत्म बलिदान और अविश्वसनीय त्याग का वह दौर हिंदी पत्रकारिता की मूल पूंजी और गौरवमय अतीत है. आजादी के बाद भोग और पतन का अंधायुग शुरू होता है. सामाजिक-आर्थिक सांस्कृतिक क्षेत्रों में चौतरफा पतन. जीवन से जुड़े पेशे, यानी तत्कालीन पत्रकारिता में यह पतन ज्यादा प्रतिबिंबित हुआ. विजय के आह्लादकरी क्षणों में हिंदी पत्रकारिता भोंड़ी और फूहड़ प्रदर्शन का पर्याय बन गयी.

देवी-देवताओं के चित्र, फूहड़ कार्टून, कैंलेंडर, अटकलबाजियों, चारण-स्तुति ही हिंदी पत्रिकाओं की पठनीय सामग्री होती थी. गहराते बुनियादी सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक संकट, पश्चिमी संभ्यता-संस्कृति के दबाव से कराहते देश की आंतरिक पीड़ा हिंदी पत्रिकाओं में बिंबित नहीं होती थी. हिंदी पत्रकारिता में इस शून्य को तोड़ने का श्रेय डॉ. धर्मवीर भारती और धर्मयुग को है.

किसी के योगदान का वस्तुपरक मूल्यांकन देश, काल और तत्कालीन परिस्थितियों के अनुरूप ही संभव है. आठ और सत्तर के दशक कई अर्थों में विलक्षण हैं.

द्वितीय विश्वयुद्ध से उबरे विश्व के दूसरे देशों में दर्शन, साहित्य और नये मूल्यों को ले कर मंथन हो रहा था. विचारों की दुनिया में अस्तित्ववाद, सार्त्र, कामू, नीत्शे आदि का बोलबाला था. चीन से शर्मनाक पराज्य के बाद भारत आत्मावलोकन की गहरी पीड़ा से गुजर रहा था. भाषा के सवाल पर देश-तोड़क शक्तियां उत्पात मचा रही थी. ‘लाइसेंस, कोटा, परमिट’ राज अपनी जड़ें जमा रहा था. हाजी मस्तान जैसे तस्करों और अपराधी राजनेताओं-बिचौलियों के पनपने का यह दौर था. राजनीति के अपराधीकरण की शुरुआत इसी दौर में हुई देश और दुनिया में हो रहे इन परिवर्तनों से धर्मयुग ने ही हिंदी पाठकों को जोड़ा.

धर्मयुग ने साहित्य, दर्शन, आर्थिक-सामाजिक संकट आदि गूढ़ विषयों पर हिंदी व दूसरी देसी भाषाओं में लिखनेवाले मौलिक, स्वतंत्रचेता बौद्धिकों को आगे बढ़ाया. मराठी, गुजराती और दूसरी भाषाओं के लेखक लगातार धर्मयुग में छपते रहे हैं. आज हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में अंगरेजी अनुवाद, अंगरेजी लेखक फिर धड़ल्ले से छप रहे हैं. लेकिन हिंदी में कृष्णनाथ जी, जितेंद्र सिंह (पटना), गणेश मंत्री जैसे अनेक दृष्टिवान और मिट्टी से जुड़े चिंतक धर्मयुग के माध्यम से ही आगे ऐसे दृष्टिसंपन्न लोग किसी भाषा के लिए महत्वपूर्ण उपलब्धि हैं.

हिंदी तब अंगरेजी लेखकों-चिंतकों की मोहताज नहीं थी. आज तकनीकी रूप से विकसित और पाठकों का एक समृद्ध संसार लिये हिंदी पत्रकारिता अंगरेजी लेखक की गुलाम हो रही है.विकृत रुचि, हत्या, अपराध की कहानियों से हिंदी पाठकों को दिग्भ्रमित करने का बाजारू दबाव उन्हीं दिनों शुरू हुआ. इस माहौल में हिंदी पाठकों को जागरूक और विवेकशील बनाने का मोरचा धर्मयुग ने संभाला. मराठी या बंगला में पाठकों की रुचियों को परिमार्जित करने, अंधविश्वास से ऊपर उठाने का काम पुनर्जागरण आंदोलन के दौरान हुआ.

इस संदर्भ में हिंदी क्षेत्र पुनर्जागरण से अछूता रहा. स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान हिंदी पत्रकारिता की आक्रमकता, ओज, एकनिष्ठा और हिंदी पत्रकारों द्वारा मूल्यों के लिए आत्मोत्सर्ग और उद्देश्यपूर्ण पत्रकारिता के प्रति प्रतिबद्धता ने हिंदी पाठकों को जीवन के दूसरे मोरचे पर स्वाभिमानी और जागरूक बनाया. लेकिन सामाजिक विषमता, मानसिक गुलामी, सांस्कृतिक पराभव के प्रति हिंदी पाठकों को आंदोलित करने और आधुनिक बनाने में धर्मयुग का उल्लेखनीय योगदान है.


धर्मयुग की बात करने का अर्थ कल्पना, ज्ञानोदय, जन, नवनीत (भारतीय विद्या भवन के हाथ में जाने से पूर्व) को कम करके आंकना नहीं है. ये पत्रिकाएं हिंदी की गौरव रही हैं, जहां सीमित दायरे में ये पत्रिकाएं हिंदी पाठकों को समृद्ध करती रहीं, वहीं अपने व्यापक प्रसार के बल पर आम हिंदी पाठकों की रुचियों को स्वस्थ व अधुनातन बनाने का काम धर्मयुग ने किया.

इस पत्रिका को प्रगतिविरोधी और दकियानूस करार देनेवाले मुखैटाधारी प्रगतिशील यह भूल जाते हैं कि देश के ‘हृदय प्रदेशों’ की आम समस्याओं को धर्मयुग ने ही राष्ट्रीय स्वर दिया. 1965-66 के भयंकर अकाल, देश के विभिन्न हिस्सों के आदिवासियों-गरीबों की समस्याओं, साथ ही उनकी सांस्कृतिक विरासत, गौरवमय अतीत को उजगार करने एवं लोक तक पहुंचाने का श्रेय धर्मयुग को ही है.

पश्चिमी देशों द्वारा तीसरी दुनिया के देशों पर सांस्कृतिक आक्रमण और बांगलादेश में होनेवाले अमानुषिक अत्याचार के खिलाफ हिंदी पाठकों को उद्वेलित करने-सजग बनाने के काम में धर्मयुग पीछे नहीं रहा. कभी पांच लाख तक बिकनेवाली हिंदी की इस सर्वाधिक प्रसारित साप्ताहिक पत्रिका में देश के राजनेता जगह पा कर इतराते थे. हिंदी राज्यों में इस पत्रिका का कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं था. इस अभूतपूर्व स्थिति के कारण मर्यादित और संयमित दायरे में काम करनेवाले डॉ. भारती आसानी से सत्ता से जुड़ सकते थे. पत्रकारिता तब तक ग्लैमर और चकाचौंध की दुनिया बन चुकी थी. राज्यसत्ता का आकर्षण मामूली नहीं, इससे बच निकलना भी दुरुह है. जिला स्तर पर हिंदी अखबार निकाल कर संपादक आज उसके बल पर सत्ता के गलियारे में शीर्ष तक पहुंच जाते हैं. फिर भी हिंदी की सर्वाधिक लोकप्रिय पत्रिका के संपादक डॉ. भारती इस आकर्षक घेरे से बचे रहे.
धर्मयुग की सबसे बड़ी पूंजी उसकी विश्वसनीयता है. किसी पत्रिका की विश्वसनीयता अचानक या एकाएक नहीं बनती. इसके पीछे अनवरत साधना, सतर्कता और परिश्रम का अनलिखा लंबा इतिहास होता है. धर्मयुग पर अंधविश्वास, सतही मनोरंजन और हिंदी पाठकों को भ्रमित करने के आरोप लगानेवाले फैशनपरस्त और आजीवन आलोचक की भूमिका का संकल्प लिये लोग भूल जाते हैं कि विज्ञान, स्वास्थ्य, तकनीकी, विभिन्न विचारधाराओं पर धर्मयुग में ही बड़े पैमाने पर गंभीर चीजें छपीं. नुक्ताचीनी और खुर्दबीन ले कर बुराई ढूंढ़ना हमारे स्वभाव का अंग हो गया है, लेकिन कोई भी समाज अच्छाई और स्वस्थ पहलुओं को ही उजागर करने से टिक सकता है. धर्मयुग के योगदान का आकलन भी इसी दृष्टि से होना चाहिए.

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