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मगन भाई बने थे भारतीयों की आवाज

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– हरिवंश – अब तक आपने पढ़ा मॉरीशस में प्रवासी भारतीय मजदूरों के मेहनत की कहानी, जिन्होंने अपने श्रम से एक निर्जन और पथरीले जंगलों से घिरे द्वीप को स्वर्ग बना दिया. इससे आगे पढ़ें, कैसे मॉरीशस में भारतवंशियों ने लड़ी अपने हक की लड़ाई. 24अप्रैल को मॉरीशस रवाना होते ही राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह […]

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– हरिवंश –
अब तक आपने पढ़ा मॉरीशस में प्रवासी भारतीय मजदूरों के मेहनत की कहानी, जिन्होंने अपने श्रम से एक निर्जन और पथरीले जंगलों से घिरे द्वीप को स्वर्ग बना दिया. इससे आगे पढ़ें, कैसे मॉरीशस में भारतवंशियों ने लड़ी अपने हक की लड़ाई.
24अप्रैल को मॉरीशस रवाना होते ही राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटील ने अपने विशेष विमान में अखबारनवीसों से बात की, अपनी यात्रा के उद्देश्य और मकसद बताये. और बातों के साथ उन्होंने यह भी कहा कि हम दोनों देशों के तटों को न सिर्फ समुद्र पखारता है या जोड़ता है, बल्कि वहां रह रहे लोगों के पुरखों और हमारे बीच के एक अद्भुत रिश्ते को भी रेखांकित करता है.
यह सही है. यहां आकर गांधी का एक और प्रकाशमान चेहरा दिखता है. गांधी सामान्य या परंपरागत अर्थों में महान नहीं थे, उनके एक-एक कदम उनके इतिहास पुरुष (जो हजारों सालों में कभी-कभार आते हैं) होने के उदाहरण यहां (मॉरीशस में) भी हैं. वह डरबन से मुंबई की यात्रा पर थे. 30 अक्तूबर 1901 को उनका जहाज नौसेरवा पोर्ट लुई पहुंचा. किसी कारण या तकनीकी खराबी होने से वह 19 नवंबर तक वहीं लंगर डाले रहा. गांधी समय का महत्व और इस्तेमाल जानते थे. हालातों के नब्ज पर उनके हाथ थे. उन्होंने मॉरीशस द्वीप पर बसे प्रवासी भारतीयों की हालत देखी. 13 नवंबर 1901 को सार्वजनिक सभा की.
कहा मॉरीशस के चीनी उद्योग को भारतीयों ने खड़ा किया है. पर उनके जीवन में दुख और कठिनाइयां हैं. 27 सितंबर को राष्ट्रीय कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन में उन्होंने एक रपट दी. यह प्रतिवेदन दक्षिण अफ्रीका और मॉरीशस में रह रहे भारतीयों की स्थिति से जुड़ा था. गोरे सामंतों के अनाचार की बातें थीं, उनका मानना था कि जिन भारतीयों के श्रम, स्वेद (पसीना) और खून से अफ्रीकी देशों को समृद्धि मिली, वे खुद दुखों से घिरे हैं.
कांग्रेस ने पहल की, पर कुछ हुआ नहीं. फिर महात्मा गांधी ने नया कदम उठाया. अपने एक साथी बैरिस्टर डॉ मणिलाल-मगन लाल को मॉरीशस भेजा. भारतीयों के बीच काम करने के लिए. भाई मगनलाल की कहानी आज के राजनीतिक हालातों में जानना राजनीति के सही और प्रभावी चेहरे को समझने जैसा है. बदलाव की नींव कहां होती है? संघर्ष या क्रांति की शुरुआत कैसे होती है? बिना साधन, संगठन, संसाधन कैसे आंदोलन खड़े होते हैं. महज आत्मविश्वास, सदाचार और प्रतिबद्धता से कैसे हालात बदलते हैं. सात्विक प्रतिकार और नैतिक प्रतिबद्धता कैसे नये माहौल कोजन्म देते हैं.
एक लंगोटीधारी (भारतीयों के बीच गांधी इसे नाम से जाने जाते थे) ने अपने तेज, प्रताप और कौशल से कैसे भारतीयों को एक नयी पहचान दी, देश-दुनिया में. 1901 में ही कैसे गांधी के सरोकार बाहर के भारतीयों से भी जुड़े थे. न जाति की ताकत थी, न समुदाय की. न युवा वर्ग था और न पक्ष में कहीं कोई माहौल था. तब कैसे गांधी ने इतिहास बनाया. यह डॉ मणिलाल-मगन लाल के जीवन प्रयोग से पता चलता है. भाई मगनलाल मॉरीशस पहुंचे.
कोई जाननेवाला नहीं. उन्हें गांधी का सुझाव था. रंगभेद और जातिभेद के विरुद्ध काम करना. प्रवासी भारतीयों के कानून सम्मत अधिकारों के लिए लड़ना.
गांधी का आदेश उनके लिए मिशन था. यानी तब नेता के प्रति कार्यकर्ता की कैसी अटूट आस्था थी. यह आस्था ही संबंधित लोगों के लिए संकल्प और प्रतिबद्धता का स्रोत थी. मॉरीशस में आज भी श्रद्धा से मणिलाल याद किये जाते हैं.
1907 में वे मॉरीशस पहुंचे. चार वर्ष रहे. इसी अवधि में राजनीतिक जागरण का एक नया इतिहास लिखा. लगभग गुलाम भारतीय मजदूरों के मुक्ति आंदोलन की शुरुआत हुई. भाई मणिलाल ने गांधीवादी तौर तरीके अपनाये, सार्वजनिक सभाएं करके, प्रेरक भाषण देते, प्रस्ताव पारित कराते. भारतीयों के दुख और पीड़ा के दस्तावेज शासन को सौंपते.
भारतीयों की पीड़ा को लेकर आवेदन लिखते, वे एकला चले रे के रास्ते पर थे, स्वावलंबी या अकेले कार्यकर्ता. सुख-सुविधा कुछ थी नहीं. भारतीय मजदूरों को परिचय पत्र साथ में लेकर घूमना होता था. अन्यथा वे जेल भेज दिये जाते थे. भारतीय खेतिहर ईंख देते, तो गोरों की चीनी की कोठियों में उनका वजन कम मापा जाता. गोरों की कोठियों में सुबह-सुबह हाजिरी होती, उस वक्त गाली-गलौज, मारपीट, मामूली बात थी. हालांकि इस द्वीप में बसे उन लोगों में से दो तिहाई भारतीय थे. पर किसी संस्था में उनका प्रतिनिधित्व नहीं था. सामंतों के भय और जुल्म अलग थे. उनके प्रति कहीं दया ममता नहीं थी. सहृदय लोग उनकी स्थिति देख पसीज जाते. ऐसे ही एक गोरे सज्जन थे, जर्मनी में जन्मे फ्रांसीसी डॉ आल्दोफ दे प्लेवित्ज. अपने ससुर के घर मॉरीशस आये थे, उनकी कोठी संभालने, भारतीय मजदूरों की हालत देख कर वे पसीजे. विरोध शुरू किया. फिर पोर्ट लुई के चौराहे पर बेंत से उनकी पिटाई हुई.
डॉ आल्दोफ के बारे में सुन कर एक दूसरे मशहूर फ्रांसीसी याद आये. फैनन, द रेचब्ड ऑफ द अर्थ के लेखक. इसी तरह गांधीजी के कई गोरे साथियों की स्मृति उभरी. सेंट एंड्रयूज की भी. मनुष्य का विवेक अद्भुत है, जब उसके अंदर का इंसान जगता है तो वह जाति, धर्म, रंग सब छोड़ कर न्याय के साथ खड़ा होता है.
मगन भाई और गांधी के काम ने विश्व जनमत बनाया. मॉरीशस में भी भारतीयों की दुर्दशा जांचने के लिए एक रॉयल कमीशन बना. इसके अध्यक्ष थे सर फ्रैंक स्वेनेथम. 18 जून 1908 को कमीशन मॉरीशस आया. भारतीयों की ओर से बोलनेवाला कोई नहीं था. न कोई स्थानीय नेता. तब मणिभाई ने कमीशन के सामने भारतीय समुदाय का पक्ष रखा.72 वर्ष पहले शर्त्तबंद भारतीय मजदूर यहां आये थे.
उसके बाद भारतीयों की पहली आवाज कोई बना, तो वे थे मगन भाई. इसके पहले तक भारतीय समझते थे कि यातनाएं और शोषण उनके जीवन का हिस्सा हैं. भाग्य में बदा, ललाट पर लिखा. मणिभाई ने कौशल के साथ भारतीयों का पक्ष रखा. नैतिक सवाल उठाये. फ्रेंच सामंतों ने डराया-धमकाया, उन्हें गवाही नहीं देने दी.
मणिभाई के पास सबूत नहीं थे, फिर भी उन्होंने शिकायत की कि छोटे खेतिहरों के गन्ने गोरों के चीनी कोठियों में कम कर तौला जाता है. गोरे चीनी मालिकों का भय था, कोई गवाह नहीं था. भाई मगन की प्रतिष्ठा दावं पर थी. उन्हें खेतिहरों के पक्ष में सबूत नहीं मिल रहा था. प्रकृति या ईश्वर ने चमत्कार किया. जयपाल मराज नामक एक छोटा खेतिहर उठ खड़ा हुआ. और सारी बातें साफ-साफ रख दी. भूचाल आ गया. मॉरीशस के सबसे प्रभावशाली गोरे घराने से यह शिकायत जुड़ी थी. बाद में मालिक ने एक थानेदार के माध्यम से जयपाल को बुलाया. पर, वहां वह डट गया.
भारतीयों की मुक्ति के लिए लड़नेवाले ऐसे अनेक अनाम योद्धा हुए. कमीशन ने अपनी रिपोर्ट दी. उसने भारतीयों की बदतर हालात को माना.
मणिभाई ने श्री हिंदुस्तानी नाम से साप्ताहिक प्रकाशन भी शुरू किया. इसमें मानव स्वतंत्रता, उसके नैतिक रूप, इन विषयों पर बात होती थी. लोगों को जागरूक बनाने का प्रयास. दासत्व प्रथा की आलोचना, कुली प्रथा की पीड़ा, रंगभेद के दुष्परिणाम. कुछ ही दिनों तक यह पत्रिका चली. फ्रेंच पूंजीपति उन्हें बहुत तंग करते थे. उन पर ईंट-पत्थर, टमाटर वगैरह फेंके जाते थे. अभद्र व्यवहार होता था. पर मणिभाई गांधीवादी थे. उनमें धीरज था. वह कभी झुके नहीं. कुछ वर्षों तक काम करने के बाद चले गये. फिजी में प्रवासी भारतीयों के बीच काम करने, उन्हें सहायता करने.
श्री हिंदुस्तानी प्रेस और उसके स्टाफ को आर्यसभा पोर्ट लुई को सौंप दिया. सामाजिक सुधार के लिए उन्होंने रंगून से एक भारतीय डॉक्टर चिरंजीवी भारद्वाज को मॉरीशस बुलवाया. तीस साल बाद जब मॉरीशस की राजनीति में भारतीय निर्णायक स्थिति में पहुंचे, तब मणिभाई मॉरीशस आये. तत्कालीन प्रधानमंत्री सर शिवसागर रामगुलाम ने उनके स्वागत में कहा- महाभारत के योद्धाओं के समान आप दीर्घकाल के बाद वापस आये हैं. यह संपूर्ण देश आपके चरणों पर है.
1956 में भारत में मगनभाई मरे, तो पूरे मॉरीशस ने उन्हें याद किया. उनकी प्रतिमा वहां है. मणिभाई की कहानी प्रेरक अध्याय है. कैसे एक संकल्पवान राजनीतिक कार्यकर्ता अपने नैतिक बल और प्रतिबद्धता की पूंजी के साथ एक समूह को जगा सकता है. सात्विक और नैतिक तरीके से अकेले वह दुनिया की सबसे ताकतवर सत्ता (ब्रिटिश साम्राज्य) से टकरा सकता है.
आज मॉरीशस के लोग उन्हें प्रकाशपुंज के रूप में याद करते हैं. मगनभाई जैसे लोगों द्वारा रखी नींव पर ही आज भारतीय समाज मॉरीशस में विकास और उपलब्धि का नया अध्याय लिख रहा है.
(यह लेख लिखने में डॉ धर्मेंद्र प्रसाद के लिखे लेख मॉरीशस के भारतीय मजदूरों के संघर्ष से पर्याप्त जानकारी, तथ्य और मदद मिले हैं)
जारी…
दिनांक : 16.09.2011

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