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किशोरों की जिज्ञासा शांत करना आपका कर्तव्य

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आप यह मान कर चलिए कि अब आपका नहीं, आपके बच्चे का समय है. छोटे बच्चों को समझाना बड़ी बात नहीं, लेकिन किशोरों को समझाना और उनकी जिज्ञासा शांत करना आपका कर्तव्य है. उनका सपनों में खोना तय है. विपरीत लिंग के प्रति यौनाकर्षण स्वाभाविक है, जिसे वे खुद ही नहीं समझ पाते कि उनके […]

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आप यह मान कर चलिए कि अब आपका नहीं, आपके बच्चे का समय है. छोटे बच्चों को समझाना बड़ी बात नहीं, लेकिन किशोरों को समझाना और उनकी जिज्ञासा शांत करना आपका कर्तव्य है. उनका सपनों में खोना तय है. विपरीत लिंग के प्रति यौनाकर्षण स्वाभाविक है, जिसे वे खुद ही नहीं समझ पाते कि उनके साथ क्या हो रहा है. इस परिवर्तन को सहज भाव से ही लीजिए.

पिछले अंक में सास-बहू के माध्यम से हम बात कर रहे थे बच्चों के बारे में. अब आगे की कड़ी. आपको समझ आ गया होगा कि मैं ये सब क्यूं कह रही हूं. बदलाव केवल बड़ों की मानसिकता और परिस्थितियों में नहीं आते. हमारे जीवन पर काल, स्थान और परिवेश का प्रभाव पड़ना अवश्यंभावी है. इससे जब आप और हम बड़े लोग नहीं बच सके, तो बच्चे कैसे बचेंगे. हम तो फिर भी बीते कल की आज से तुलना कर सकते हैं, लेकिन बच्चों के सामने बीता कल नहीं होता, केवल आनेवाला कल और आज होता है, जीवन और दुनिया देखने का अपना नजरिया होता है. जैसे सभी लोगों का चश्मा अलग होता है, जिसमें जैसा रंग वैसी नजर आती है दुनिया. नजर के चश्मे के नंबर भी अलग होते हैं. उसी तरह सबके सोच और ख्याल भी अलग होते हैं. छोटे बच्चों से आप जितनी चाहे पूजा करवाएं और करवानी ही चाहिए, लेकिन जब वह बड़ा होगा तो भगवान को मानना या न मानना उसका अपना निर्णय होगा. वैसे भी बच्चे चंचल होते हैं. जरा-जरा-सी बात पर उनका विश्वास टूटता-बनता रहता है.

कोई बात मन माफिक नहीं होती तो मूड ऑफ या ईश्वर से विश्वास ही उठ जाता है और तुरंत घोषणा जो जाती है कि भगवान-वगवान कुछ नहीं होता. जब हमारे शादी से पहले और एक बच्चे के पिता या मां बनने के बाद के निर्णय प्रभावित हो सकते हैं, तो क्या बच्चों के निर्णय प्रभावित नहीं होंगे. उन प्रभावित निर्णयों और व्यवहार को हम अपनी परवरिश से जोड़ने लगते हैं, जो गलत है. कोई माता-पिता यह नहीं चाहता कि उसका बच्चा किसी भी गलत राह का राही बने. अब आप यह सोचिए कि जब पीढ़ी-दर-पीढ़ी हम लोगों के सोच और नजरिए में फर्कआता है, तो क्या बच्चों की स्थितियों में, सोच में, जरूरतों में, सामाजिक परिस्थितियों में, उनके खान-पान, रहन-सहन, प्रतिक्रि या और व्यवहार में अंतर नहीं आयेगा? पहले आप अपने बचपन को याद करिए फिर उसकी तुलना अपने बच्चे के बचपन से करिए, अपने माता-पिता की चिंताओ और अब अपनी चिंताओं के बारे में सोचिए, आपको जवाब मिल जाएगा. आपको लगेगा कि आपके माता-पिता की आपको लेकर चिंताएं जायज थीं, जो उस समय आपको नागवार लगती थी. उनका डांटना, परवाह, उनकी मजबूरियां, उनका आपके लिए रोना, आपकी जरा-सी परेशानी में परेशान होना, आपकी बदमाशियों पर डांटना और फिर दुखी होना, आपको थप्पड़ लगा कर खुद रोना, आपका खाना बंद करना और फिर खुद ही आपको खिलाकर खुद खाना, आपको सब कुछ याद आएगा. जितना जुड़ाव माता-पिता बच्चों से करते हैं, उतना बच्चे केवल तब तक करते हैं जब तक वे छोटे होते हैं मगर थोड़ा बड़े होने पर उन्हें अपनी आजादी के बीच वह बंधन लगता है. आपने भी कुछ ऐसा ही सोचा होगा. अमूमन ऐसा ही होता है. बच्चे खुल कर जीना चाहते हैं, लेकिन उस खुलने की सीमा को नहीं जानते और जब वही सीमा उन्हें मां या पिता याद दिलाते हैं, तो अचानक से वे हमें खलनायक लगने लगते हैं. इसकी वजह स्पष्ट है कि जिन सीमाओं और प्रतिबंधों की सीमाएं हम जानते हैं, बच्चे केवल उड़ना जानते हैं, क्योंकि पंख नये होते हैं. वे नहीं जानते कि शुरू में थोड़ी-थोड़ी उड़ान के बाद विश्रम जरूरी होता है. उड़ने से पहले आंधियों, तूफानों और बारिश का अंदाजा लगाना होता है. उड़ने के स्थान से अपने घर को निगाह में रखना जरूरी है. रास्ते पहचानना और ऊंचाई का सही जायजा होना जरूरी है. ये सारे अंदाजे तो समय और हमारा प्रयास हमें सिखाता है. बच्चों में ज्यादा ऊर्जा और उतावलापन होता है. आप सब बड़े हैं. माता-पिता हैं. अपने बच्चों को समङिाए. वे धैर्य खो सकते हैं. अगर आप ही धैर्य खो देंगे तो उनको कौन संभालेगा.

मेरी कितने ही साथियों से बात हुई. उन्होंने भी बताया कि जब वे छोटे थे और घर पर डांट पड़ती थी तो मन करता था घर से भाग जाएं. पिताजी और मां डांटते थे, तो लगता था इनको अपने बच्चे अच्छे ही नहीं लगते. जब देखो दूसरे बच्चों की तारीफ, ऐसा लगता है जैसे हम तो इनके बच्चे ही नहीं हैं. हमें तो कहीं से उठा कर ले आये हैं. आप या आपके साथियों में 70 प्रतिशत जरूर ऐसा सोचते होंगे. जब आज से 30-40 साल पहले बच्चे ऐसा सोच सकते थे तो आज के बच्चे 21वीं सदी के हैं. हर क्षेत्र में प्रगति औप उन्नति है, तो क्या प्रगति को अंजाम देनेवाला दिमाग केवल भौतिक क्षेत्र में प्रगति करेगा. दिमाग जब तेज होता है, तो वह किसी एक दिशा में नहीं होता. सब तरफ बराबरी से चलता है. इसलिए आप यह मान कर चलिए कि अब आपका नहीं, आपके बच्चे का समय है. छोटे बच्चों को समझाना बड़ी बात नहीं, लेकिन किशोरों को समझाना और उनकी जिज्ञासा शांत करना आपका कर्तव्य है. उनका सपनों में खोना तय है. विपरीत लिंग के प्रति यौनाकर्षण स्वाभाविक है, जिसे वे खुद ही नहीं समझ पाते कि उनके साथ क्या हो रहा है. इस परिवर्तन को सहज भाव से ही लीजिए और प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से उन्हें इन सब बातों से बचने, पढ़ाई पर ध्यान देने और सही रास्ते पर चलने के लिए प्रोत्साहित करते रहिए मगर अपने बच्चे पर नजर जरूर रखिए. इसके लिए जरूरी है कि आप दोनों के बीच ताल-मेल रहे. आपकी आपसी लड़ाई-झगड़े का और आपके बीच सही ताल-मेल न होने का सीधा असर आपके बच्चे पर पड़ेगा.

एक बच्चे का मेल है, जिसमें उसने लिखा है – ‘मेरे मम्मा-पापा की आपस में नहीं बनती और इसलिए उन्होंने मुङो छोटी-सी उम्र में हॉस्टल भेज दिया. दोनों साथ ही रहते हैं मगर मुङो संभालने को कोई तैयार नहीं. मैं भी उनके बिना ही बड़ा हुआ. सालों बाद मुङो वापस बुलाया जा रहा है. वे चाहते हैं कि मैं वापस घर आऊं, लेकिन अब मेरा मन नहीं करता. क्यूं लड़ते हैं ये माता-पिता और बच्चों को हॉस्टल में डाल देते हैं. क्या उन्हें हमारे एहसासों और परवरिश का जरा-सा भी ख्याल नहीं?’ क्रमश:..

वीना श्रीवास्तव

लेखिका व कवयित्री

इ-मेल: veena.rajshiv@gmail.com

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