बदलते वक्त के साथ त्योहारों को मनाने का तरीका भी बदल चुका है. ऐसे में रोशनी के त्याेहार दीपावली में भी लाइटिंग से लेकर पटाखे और मिठाइयों तक में बदलाव देखने को मिल रहे हैं. दीपावली ही एेसा त्योहार है जो हमें अपनी जमीन और अपने करीबियों से जोड़े रखता है. ऐसे में दीपावली पर मिट्टी के दीये हमारी जिंदगी को खुशियों की रोशनी से जगमग करते हैं.
दीपावली पर मिट्टी के दीये से रोशन करें खुशियां
जी हां, दीपावली आने वाली है. लोग इसकी तैयारी में जूट गये हैं. घरों की साफ-सफाई भी शुरू हो गयी है. वहीं, कुम्हार मिट्टी के दीये बना रहे हैं. ताकि दीपावली पर कुछ कमाई कर सकें और लोग मिट्ठी के दीयों से पारंपरिक दीपावली मना सकें. मिट्टी का दिया कहीं ना कहीं इस बात का संदेश देता है कि पर्व त्योहार को मनाते वक्त हम अपनी मिट्टी से भी जुड़े रहे, लेकिन एक विडंबना यह भी है कि जिस मिट्टी के दीये को बनाकर जो लोग हमें त्योहारों में जमीन से जुड़ कर रख रहे हैं उन्हीं की कद्र शायद हम नहीं कर पा रहे हैं और वह बड़ा ही कठिन जीवन जीने को मजबूर हैं .
उंगलियों में है जादू
बांसघाट स्थित कुम्हार टोली का नजारा देखते बन रहा है. चाक पर चलते हाथ और मिट्टी से तैयार होते दीये. बुढ़े हाथ और उंगलियों की जादू दीये की खूबसूरती में देखते बनती है. कुम्हार टोली स्थित राजेंद्र और जोगिंद्र पंडित का पूरा परिवार इन दिनों दीपावली के लिए दीये बनाने में जुटा है. अलग -अलग जगहों पर मिट्टी के चाक चल रहे हैं. चाक पर मिट्टी से सने हाथ बस दीये बनाने की धुन है.ताकि इस दीपावली कुछ अच्छी कमाई हो जाये.
इन मिट्टियों की कीमत कोई क्या देगा
राजेंद्र पंडित की उम्र लगभग 65 वर्ष है. सुबह भरपेट भोजन कर वे मिट्टी और पानी लेकर चाक पर बैठे जाते हैं. ताकि दिनभर में हजार से 1200 दीये बना सकें. वह दीये के थोक विक्रेता के रूप में अपने ग्राहकों के लिए दीये करने में जी-जान से जुटे हैं. वे बताते हैं, कि दीपावली पर ही सही कुछ कमाई हो जाये. वरना इन मिट्टियों की कीमत कोई क्या देगा. वे बताते हैं कि हमारा पेशा है. बस दो वक्त का पेट भर जाता है. वरना इस पेशे में कुछ नहीं रखा है. पूर्वजों से सौगात में मिली हुनर है. बस इसे जिंदा रखे हुए है. दीपावली पर लोग अब भी मिट्टी के दीये जलाना पसंद करते है. इसलिए थोड़ी बहुत हमारी भी कमाई हो जाती है.
चाइनीज झालरों ने बिगाड़ी दुकानदारी
बदलते समय में कुम्हारों को मिट्टी के दीये बनाने के िलए न तो आसानी से मिट्टी मिल पाती है, न ही जलावन के लिए लकड़ी व कंडे. किसी तरह संघर्ष करके इन चीजों को वे जुटा भी लेते हैं तो इन्हें उपयुक्त बाजार नहीं मिलता. बाजार में तरह-तरह के चाइनीज झालर बिक रहे हैं. जो मिट्टी के दीयों से सस्ते और लगाने में आसान भी होते हैं. लोगों का झुकाव अब इन्ही रंग-बिरंगी झालरों की तरफ है. पहले लोग मिट्टी के दीयों से ही दीपावली पर अपने घर को सजाते थे. लेकिन अब लोग आधुनिक झालरों से ही घरों को सजाना पसंद कर रहे हैं. यही कारण है कि बाजार में मिट्टी के दीयों की मांग कम हो गयी है. जिसके कारण दीये बनाने वाले कुम्हार और उनके परिवार पर आर्थिक बोझ बढ़ गया है. अगर उपयुक्त बाजार इन्हें मिले तो इनके रोजगार में वृद्धि होगी. साथ ही साथ प्लास्टिक के कचरे से निजात मिलेगी, जिससे पर्यावरण भी ठीक होगा. मान्यता है कि दीपावली के दीयों में जलने के कारण कई तरह के किट फतंगे भी नष्ट हो जाते हैं. दीये बनाने वालों का कहना है कि उनके इस पुस्तैनी काम में सरकार को भी मदद करनी चाहिए. जिससे दीये बनाने की कला अक्षुण रहे.
मिट्टी की कीमत भी नहीं मिल पाती है
जोगिंद्र पंडित बताते हैं कि दीये के लए नौबत पुर से केवाल मिट्टी मंगाते हैं. ट्रैक्टर ढुलाई उसके बाद मिट्टी तैयार करने में मेहनत के बाद दीये तैयार करते हैं. फिर इन दीयों को पकाने के लिए जलावन की जरूरत पड़ती है. पूरे दिन-रात की मेहनत के बाद हमें थोड़े से रुपये मिल पाते हैं. इससे पूरा परिवार का गुजारा नहीं चत पाता है .इसलिए अपने बेटों को इस पेशे से दूर रखा है. वहीं, मनोज बताते हैं, कि वैसे तो पूरे साल मैं मोटर गैराज में काम करता हूं. पर दीपावली पर दीये की मांग को देखते हुए हाथ बंटाता हूं. पांच हजार के दीये बनाने पर दो हजार के जलावन लगते हैं. वहीं, मिट्टी काॅस्ट और मेहनत अलग से है. बाजार में एक रुपये के एक दीये मिलते हैं, वहीं, हमारे यहां से एक रुपये में तीन दीये लेते हैं.आशा कुमारी बताती हैं कि मिट्टी के काम में मेहनत के मुताबिक पेशे में आमदनी नहीं है.