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डॉक्टर की सलाह को गंभीरता से लें, पढ़ें क्या कहते हैं आपके डॉक्टर्स

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हम और हमारा परिवार सदा रोग-बीमारी से दूर रहें, यह कामना हम सभी करते हैं. मगर इसके लिए प्रयास कम लोग ही करते हैं. डॉक्टर्स के मुताबिक 50 फीसदी यह लोगों पर निर्भर करता है कि उनका स्वास्थ्य कैसा रहनेवाला है. इसलिए बहुत जरूरी है कि हमेशा हम डाॅक्टर की सलाह को गंभीरता से लें […]

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हम और हमारा परिवार सदा रोग-बीमारी से दूर रहें, यह कामना हम सभी करते हैं. मगर इसके लिए प्रयास कम लोग ही करते हैं. डॉक्टर्स के मुताबिक 50 फीसदी यह लोगों पर निर्भर करता है कि उनका स्वास्थ्य कैसा रहनेवाला है. इसलिए बहुत जरूरी है कि हमेशा हम डाॅक्टर की सलाह को गंभीरता से लें और सेहत के लिए आवश्यक एहतियात बरतें. ‘नेशनल डॉक्टर्स डे’ पर हम उन तमाम डॉक्टरों को दिल से धन्यवाद देते हैं, जो खुद को भूल कर मरीजों की सेवा में जुटे रहते हैं. विशेष अंक में हमारे डॉक्टर्स आपसे कर रहे हैं आपकी सेहत से जुड़ी कुछ खास बातें.
भारत की बात की जाये, तो यहां हर दो मिनट में एक व्यक्ति की मौत टीबी से हो जाती है. पहले यह आंकड़ा प्रति मिनट में एक था. हालांकि, साल 1997 से टीबी के खात्में के लिए भारत सरकार की ओर से RNTCP (रीवाइज्ड नेशनल टीबी कंट्रोल प्रोग्राम) चलाये गये हैं, जिसके तहत सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों और मेडिकल कॉलेज हॉस्पिटलों में इसका इलाज पूरी तरह मुफ्त है. इसके बाद भी भारत में ये आंकड़े चिंताजनक हैं. इसलिए जरूरी है कि यदि दो सप्ताह से ज्यादा खांसी और बलगम आये, तो बलगम की जांच करानी चाहिए. टीबी की जांच के लिए दो प्रकार के बलगम (थूक) की जांच की जानी चाहिए. प्रेजेंट सैंपल और कलेक्टेड सैंपल. पहले में स्वास्थ्य केंद्र में तुरंत बलगम का सैंपल देना होता है, साथ ही दूसरे सैंपल में एक दिन का जमा किया हुआ सैंपल देना चाहिए. ऐसा इसलिए कि कई बार तुरंत के बलगम के सैंपल में टीबी का कीड़ा नहीं भी आता है, वहीं यदि बीमारी हो, तो कलेक्टेड सैंपल में टीबी का कीड़ा आसनी से पता चल जाता है. टीबी का इलाज बेहद आसान है. इसके लिए छह माह तक डॉट्स (directly observed treatment) की दवाई दी जाती है. पहले मरीजों को एक साथ इसकी दवा की खुराक दे दी जाती थी, पर कई मरीज एक-दो खुराक खाने के बाद उसे बीच में छोड़ देते हैं, जिससे उनकी बीमारी ठीक नहीं होती थी. अब कम-से-कम मरीज को दो महीने तक प्राथमिक या किसी भी नजदीकी स्वास्थ्य केंद्र में जाकर दवाई खानी होती है. ताकि उनमें इसके प्रति जागरूकता बनी रहे और उनका चेकअप भी हो सके.
अस्थ्मा या दमा : यह दो प्रकार का होता है. चाइल्डहुड अस्थमा और एडल्ड अस्थमा. यह छुआ-छूत की बीमारी नहीं है, पर आनुवंशिक जरूर है. यदि घर में दादा-दादी या नाना-नानी या अन्य किसी को अस्थमा हो, तो बच्चे को भी अस्थमा होने की उम्मीद होती है. इसमें सबसे बड़ी समस्या मां-बाप की होती है. ज्यादातर माता-पिता मानते ही नहीं कि उनके बच्चे को अस्थमा है. हालांकि अस्थमा के लक्षण जैसे-सांस फूलना, पजरा मारना जैसे लक्षण बच्चे में पाये जायें तो समुचित इलाज से यह बड़े होते-होते पूरी तरह ठीक हो सकता है. वहीं, बड़ों के अस्थ्मा में पॉल्यूशन से बचने की कोशिश करनी चाहिए साथ ही जिस चीज से भी एलर्जी हो उनसे दूर रहना चाहिए और रेगुलर इनहेलर का उपयोग करते रहना चाहिए. अस्थमा शारीरिक कारणों के अलावा मानसिक कारणों से भी हो सकता है. इसलिए मेडिटेशन इसमें काफी कारगर साबित होगा.
COPD : इसे क्रोनिक ऑब्सट्रक्टिव डिजीज भी कहते हैं. यह मुख्य रूप से पॉल्यूशन और तंबाकू, बीड़ी, सिगरेट और गुटका के कारण होता है. साथ ही पैसिव स्मोकिंग यानी आपके स्मोकिंग से आपके परिवार और बच्चों को उसके धुएं के कारण हो सकता है. इसलिए इन सबसे दूरी ही आपको स्वस्थ रख सकता है.
डॉ दीपांकर बराट
सीनियर कंसल्टेंट, मेडिसिन, आरएमआरआइ, पटना
स्वास्थ्य के लिए जरूरी है रेगुलर चेकअप
एक आंकड़े के अनुसार भारत की 15 प्रतिशत आबादी आज भी स्वास्थ्य सुविधाओं से महरूम है. वहीं, 45 फीसदी से अधिक आबादी को उचित स्वास्थ्य सुविधा लेने के लिए 100 किलोमीटर से अधिक यात्रा करनी पड़ती है. गांवों की स्थिति और भी खराब है. डॉक्टरों का मानना है कि ज्यादातर बीमारियां खास लक्षणों के साथ आती हैं और यदि उनके लक्षणों को पहचान कर शुरुआती अवस्था में इलाज हो, तो बीमारी को जटिल बनने से पहले ही ठीक किया जा सकता है, जिससे मरीज को कष्ट भी कम होगा और समय के साथ पैसे भी बचेंगे.
दातों को न करें अनदेखा
दांत यदि स्वस्थ नहीं रहेंगे, तो वे कई बीमारियों को न्योता देंगे. दांत को अकसर लोग अनदेखा कर देते हैं. जब तक दांतों में तकलीफ न हो, हम डेंटिस्ट के पास नहीं जाते. यह गलत है. छह माह में एक बार चेकअप कराएं. दांत में काले धब्बे हों, मुंह में सफेद छाला हो, जबड़े में दर्द हो, तीखा खाने पर अधिक देर तक जलन हो, सुबह खाने से पूर्व और रात को खाने के बाद ब्रश करें. टूथपेस्ट कोई भी यूज कर सकते हैं. जितनी बार खाएं कुल्ला जरूर करें. हो सके तो कुल्ला करते समय ऊंगली से भी एक बार मसूढ़ों की मसाज कर लें. चॉकलेट और जंक फूड कम खाएं और खाने के बाद दांत साफ जरूर कर लें. बच्चों के दूध के दांत 6-7 साल में आने शुरू होते हैं और 12 साल तक दूध के दांत टूट जाते हैं. इसका ख्याल रखें कि यदि 12 साल में भी उनका दूध का दांत नहीं टूटेगा, तो अंदर से निकल रहा परमानेंट दांत टेढ़ा निकलेगा. ऐसी स्थिति में डेंटल सर्जन से जरूर मिलें. तंबाकू-गुटका से दूर रहें.
डॉ जेके भगत
ओरल एंड डेंटल सर्जन, कांके रोड, कंसल्टेंट, सेवा सदन, रांची
दर्द हो सकता है गंभीर बीमारी का लक्षण
हृदय शरीर का महत्वपूर्ण अंग है. यह यदि धड़कना बंद हो, जाये, तो जीवन समाप्त. इसलिए इसे स्वस्थ रखना बेहद जरूरी है. कुछ बीमारियां आनुवंशिक होती हैं, जो जन्मजात हो सकती हैं. यदि घर में किसी को हार्ट डिजीज हो, तो गर्भ के 18-20 सप्ताह के अंदर मां को अल्ट्रासाउंड करा कर ये निश्चित कर लेना चाहिए कि उसके बच्चे को इस तरह की कोई बीमारी नहीं है. यदि बीमारी होगी, तो उचित इलाज से वह ठीक हो सकता है. इसे फीटल इको कार्डियोग्राफी कहा जाता है.
जन्मजात बीमारी में बच्चा सही ढ़ग से दूध नहीं पी पाता है. दूध पीते समय माथे पर पसीना आता है. हार्ट बीट बढ़ जाती है. ऐसे में शिशु रोग या हृदय रोग विशेषज्ञ से तुरंत सलाह लेनी चाहिए. इसे कंजीनाइटल हार्ट डिजीज भी कहते हैं. सही समय पर इलाज कराने से कई कंजीनाइटल हार्ट डिजीज पूरी तरह ठीक हो जाती हैं. केंद्र सरकार की कुछ स्कीम के तहत 14 साल तक के बच्चों के हृदय रोग का इलाज बिल्कुल मुफ्त होता है.
10 से 40 साल की उम्र में : जन्मजात होती हैं, जो धीरे-धीरे जटिल हो जाती हैं. दूसरी बीमारी होती है- rheumatic heart disease की. रियूमेटिक हार्ट डिजीज मुख्य रूप से इन्फेक्शन के कारण होता है. इसलिए कमजोर आर्थिक स्थितिवाले लोगों को यह ज्यादा होता है, जो स्लम में और अनहाइजीनिक तरीके से रहते हैं. यह बार-बार गले में streptococcal इन्फेक्शन के कारण होता है. कुछ मामलों में जो बच्चे हमारे पास आते हैं, उनका हार्ट का वाल्व काफी खराब हो चुका होता है. यदि शुरुआती अवस्था में इसका पता चल जाये, तो यह पूरी तरह ठीक हो सकता है. इसके लिए पेनीसिलीन का इन्जेक्शन हर 21 दिन पर देना होता है, पर यह खुद से लेना बिल्कुल सही नहीं होगा.
कार्डियोमायोपैथी : इसमें हार्ट के पंप करने की क्षमता कम हो जाती है. इसमें पैर और शरीर के अन्य जगहों पर सूजन हो जाता है और सांस फूलने लगती है. कमजोरी भी महसूस होती है. यह अधिक शराब के सेवन से हो सकता है. इसलिए इसमें शराब का सेवन बंद कर देना चाहिए. 45 वर्ष की उम्र के बाद ischemic heart disease की समस्या ज्यादा होती है. यह बीमारी मांसपेशियों को रक्त पहुंचानेवाली धमनियों के सिकुड़ जाने के कारण होती है. मरीज को चलने पर सीने में दर्द होता है. यदि धमनियों में खून का संचरण पूरी तरह बंद हो जाये, तो हार्ट अटैक आ जाता है. हार्ट अटैक के लक्षण हैं- सीने में तेज दर्द, अत्यधिक पसीना, सांस फूलना, पेट के ऊपरी भाग में दर्द आदि. हार्ट अटैक में एन्जाइना (चलने पर सीने में दर्द) की समस्या उसे होती है, तो धूम्रपान अधिक करते हों या अत्यधिक तनाव में रहते हों. इसका तुरंत इलाज बेहद जरूरी है. इसके अलावा यदि हृदय की धड़कन की गति बहुत तेज या बहुत कम हो जाये, तो भी तुरंत चिकित्सक से मिलना चाहिए.
डॉ प्रकाश कुमार
एसोसिएट प्रोफेसर, कार्डियोलॉजी डिपार्टमेंट, रिम्स, रांची
हृदय रोग के रिस्क फैक्टर
डायबिटीज
ब्लड प्रेशर
अत्यधिक तनाव
धूम्रपान व शराब का सेवन
बच्चों और वयस्कों में हृदय रोग के लक्षण
बच्चों में बार-बार निमोनिया होना
बच्चों में सांस तेज चलना, पसलियाें का चलना
बच्चों में दूध पीते समय पसीना आना
पैर और पूरे शरीर में सूजन
होंठ, जीभ व ऊंगलियों का नीला होना
कुछ दूर चलने पर भी थकावट व सांस फूलना
तेज चलने पर छाती भारी महसूस होना
बेहोशी, कमजोरी व मामूली काम भी न
कर पाना
हृदय की बीमारी के प्रमुख जांच
इसीजी, – इकोकार्डियोग्राफी
टीएमटी और कोरोनरी एंजियोग्राफी
वैक्सीनेशन के साथ चेकअप भी जरूरी
बच्चे के जन्म लेने से लेकर दो साल तक उसे कई प्रकार के टीके दिये जाते हैं, जिसमें बीसीजी, हेपेटाइटिस बी, ओपीवी, डीपीटी, खसरा, विटामिन ए, जापानी एंसीफेलाइटिस आदि शामिल हैं. ये जन्म के समय और उसके बाद एक माह, दो माह, छह माह, साल भर और दो साल पर दिये जाते हैं. अत: बच्चा जब-जब टीका दिलाने के लिए आये, जरूरी है कि उसका रेगुलर चेकअप भी करा दिया जाये. जैसे-आंख, कान, शारीरिक विकास, बॉडी वेट, बोलने की क्षमता, महसूस करने की क्षमता, ऑटिज्म आदि. चूंकि, छोटा बच्चा बोल नहीं पाता इसलिए वह किसी भी बीमारी से तकलीफ होने पर उसका इजहार रोकर करता है. इसलिए माता-पिता को यह ध्यान देना चाहिए कि बच्चा भूख लगने के अलावा यदि रो रहा हो या उसके शरीर में कही भी लाल दाना या रैशेज हो, तो उसका तुरंत चेकअप करावाएं. इसके अलावा लूज मोशन, सांस लेने में तकलीफ, दूध का नहीं पीना, ज्यादा रोना, कान का बहना, आवाज में बदलाव, यदि आस-पास या घर में किसी को टीबी हो, तो तुरंत जांच कराएं.
पुरानी पर्ची से न दें दवाई : अकसर होता है कि परिजन किसी और के बीमारी के लक्षण में चलायी गयी दवा को अपने बच्चे को भी चला देते हैं. हालांकि यह बेहद खतरनाक है. बच्चे का विकास तेजी से होता है. इसलिए उनके बीमारी का लक्षण भी तेजी से बदलता रहता है. इसलिए किसी भी बीमारी की दवाई शिशु रोग विशेषज्ञ डॉक्टर से दिखाने के बाद ही दें. इसके अलावा हाइजीन का खास ख्याल भी रखें, क्योंकि उनमें इन्फेक्शन भी तेजी से फैलता है.
डॉ अमित मित्तल
सीनियर कंसल्टेंट नियोनेटोलॉजी, कुर्जी होली
फैमिली हॉस्पिटल, पटना

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