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ग्लोबल वार्मिंग और गांधी का दर्शन

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Global warming and Gandhis philosophy : ग्लोबल वार्मिंग वर्तमान समय की प्रमुख वैश्विक पर्यावरणीय समस्या है। यह एक ऐसा विषय है कि इस पर जितना सर्वेक्षण और पुनर्वालोकन करें, कम ही होगा। आज ग्लोबल वार्मिंग अंतरराष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिज्ञों, पर्यावरणविदों, सामाजिक कार्यकर्ताओं एवं वैज्ञानिकों की चिंता का विषय बना हुआ है।

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ग्लोबल वार्मिंग वर्तमान समय की प्रमुख वैश्विक पर्यावरणीय समस्या है। यह एक ऐसा विषय है कि इस पर जितना सर्वेक्षण और पुनर्वालोकन करें, कम ही होगा। आज ग्लोबल वार्मिंग अंतरराष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिज्ञों, पर्यावरणविदों, सामाजिक कार्यकर्ताओं एवं वैज्ञानिकों की चिंता का विषय बना हुआ है। ग्लोबल वार्मिंग से पृथ्वी ही नहीं बल्कि पूरे ब्रह्मांड की स्थिति और गति में परिवर्तन होने लगा है। इनके कारण भारत के प्राकृतिक वातावरण में अत्यधिक मानवीय परिवर्तन हो रहा है। पृथ्वी के बढ़ते तापमान के कारण जीव-जंतुओं की आदतों में भी बदलाव आ रहा है। इसका असर पूरे जैविक चक्र पर पड़ रहा है। पक्षियों के अंडे सेने और पशुओं के गर्भ धारण करने का प्राकृतिक समय पीछे खिसकता जा रहा है। कई प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर है।

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सम्पूर्ण ब्रह्मांड में पृथ्वी एक ऐसा ज्ञात ग्रह है जिस पर जीवन पाया जाता है। जीवन को बचाये रखने के लिये पृथ्वी की प्राकृतिक संपत्ति को बनाये रखना बहुत जरुरी है। इस पृथ्वी पर सबसे बुद्धिमान कृति इंसान है। धरती पर स्वाश्वत जीवन के खतरा को कुछ छोटे उपायों को अपनाकर कम किया जा सकता है, जैसे पेड़-पौधे लगाना, वनों की कटाई को रोकना, वायु प्रदूषण को रोकने के लिये वाहनों के इस्तेमाल को कम करना, बिजली के गैर-जरुरी इस्तेमाल को घटाने के द्वारा ऊर्जा संरक्षण को बढ़ाना। यही छोटे कदम बड़े कदम बन सकते हैं। अगर इसे पूरे विश्वभर के द्वारा एक साथ अनुसरण किया जाये।

गत सौ वर्ष में मनुष्य की जनसंख्या में भारी बढ़ोत्तरी हुई है। इसके कारण अन्न, जल, घर, बिजली, सड़क, वाहन और अन्य वस्तुओं की माँग में भी वृद्धि हुई है। परिणामस्वरूप हमारे प्राकृतिक संसाधनों पर काफी दबाव पड़ रहा है और वायु, जल तथा भूमि प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। जहां रहने के लिए जंगल साफ किए गए हैं, वहीं नदियों तथा सरोवरों के तटों पर लोगों ने आवासीय परिसर बना लिए हैं। जनसंख्या वृद्धि ने कृषि क्षेत्र पर भी दबाव बढ़ाया है। वृक्ष जल के सबसे बड़े संरक्षक हैं। बड़ी मात्रा में उसकी कटाई से जल के स्तर पर भी असर पड़ा है। सभी बड़े-छोटे शहरों के पास नदियां सर्वाधिक प्रदूषित है। वायु प्रदूषण, गरीब कचरे का प्रबंधन, बढ़ रही पानी की कमी, गिरते भूजल लेबल, जल प्रदूषण, संरक्षण और वनों की गुणवत्ता, जैव विविधता के नुकसान, और भूमि का क्षरण प्रमुख पर्यावरणीय मुद्दों में से कुछ भारत की प्रमुख समस्या है।

भारत में वायु प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण परिवहन की व्यवस्था है। लाखों पुराने डीजल इंजन वह डीजल जला रहे हैं जिसमें यूरोपीय डीजल से 150 से 190 गुणा अधिक गंधक उपस्थित है। बेशक सबसे बड़ी समस्या बड़े शहरों में है जहां इन वाहनों का घनत्व बहुत अधिक है।

गांधी का दर्शन था कि आवश्यकता हो तब भी लालच मत करो, आराम हो तो थोड़ा हो और वह विलासता न बन जाए। धरती के पास सभी की जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त संसाधन है किंतु किसी की लालच के लिए नहीं। गांधी प्रकृति द्वारा प्रदत संसाधनों को ईश्वर का सबसे अनुपम उपहार मानते थे। वे कहते थे कि इसे आने वाली पीढ़ियों के लिए सृजित किया जाना चाहिए। जब तक प्रकृति में संतुलन है, तब तक परिस्थिति सही है। प्रकृति अपने नियमों के तहत निरंतर कार्य करती है, लेकिन लोग नियमित रूप से उनका उल्लंघन करते हैं।

पर्यावरण शब्द का प्रचलन तो नया है, पर इससे जुड़ी चिंता या चेतना नई नहीं है। पर्यावरण हवा, पानी, पर्वत, नदी, जंगल, वनस्पति, पशु-पक्षी आदि के समन्वित रूप से है। यह सब सदियों से प्रकृति प्रेम की रूप में हमारे चिंतन, संस्कार में मौजूद रहे हैं। वर्तमान समय में प्रत्येक मनुष्य पर्यावरण को लेकर चिंतित तो है पर पर्यावरण को बचाने में सक्रिय सहभागी नहीं है। यह ठीक वैसा ही है जैसे कि देश में भगत सिंह और राजगुरु जैसे देशभक्त पैदा तो होने चाहिए परंतु अपने घर में ना होकर पड़ोसी के घर में होने चाहिए। आज प्रत्येक आदमी को स्वच्छ परिवेश, स्वच्छ गलियां, सड़कें और स्वच्छ पर्यावरण तो चाहिए परंतु साफ करने वाला भी कोई और होना चाहिए। यह ठीक वैसा ही है जैसे दुनिया को सब लोग सुधारना चाहते हैं मगर अपने को कोई नहीं।

मानव का विकास पर्यावरण के दोहन के मूल पर हो रहा है। आदिकाल से मनुष्य और पर्यावरण का अन्योन्याश्रय संबंध रहा है। वर्तमान समय में सबसे चिंताजनक समस्याओं में से एक पर्यावरण की समस्या है। यह समस्या मनुष्य प्रकृति से प्राकृतिक संसाधनों के अनर्गल दोहन से उत्पन्न हुआ है। पशु-पक्षी, जीव-जंतु, पेड़ पौधे, नदी-तलाब, खेत-खलिहान आदि से हमारे समाज का निर्माण हुआ है। मनुष्य अपनी सुविधा संपन्न जीवन जीने के लिए इन सभी का दोहन करता है। पर्यावरण के क्षय के कारण स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं भी उत्पन्न हो रही है। बेतहाशा प्रकृति के शोषण का दुष्परिणाम भी ग्लोवल वार्मिंग, तेजाबी वर्षा, वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, भूस्खलन, मृदा प्रदूषण, रासायनिक प्रदूषण, समुंद्री तूफान आदि के रूप में सामने आने लगा है।     

गांधी जी भारत की आजादी के प्रति जितने चिंतित थे, उससे कहीं ज्यादा विश्व पर्यावरण के प्रति चिंतित दिखाई पड़ते थे क्योंकि गांधी जी का चिंतन वसुधैव कुटुंबकम की भावना में हीं था। उन्होंने विश्व भर में लगातार हो रही वैज्ञानिक खोजों के कारण पैदा हो रहे उत्पादों और सेवाओं को मानवता के लिए घातक बताया था। उन्होंने 1918 में राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन को संबोधित करते हुए चेतावनी दी थी कि विकास और औद्योगिकता में पश्चिम देशों का पीछा करना मनावता और पृथ्वी के लिए खतरा पैदा करना है।

गांधी ने कहा था कि एक ऐसा समय आएगा, जब अपनी जरूरतों को कई गुना बढ़ाने की अंधी दौड़ में लगे लोग, अपने किए को देखेंगे और कहेंगे कि हमने ये क्या किया ? उपभोक्तावादी तथा विलासी जीवन संस्कृति व दोषपूर्ण विकास नीति के कारण पृथ्वी के प्राकृतिक संसाधनों का जैसे जंगल, जल स्रोत, खनिज संपदा आदि समाप्त एवं प्रदूषित हो रहे हैं। सबसे ज्यादा नुकसान जंगलों को हुआ है। विश्व के अधिकांश पहाड़ नंगे हो गए हैं और प्राकृतिक वन समाप्त हो रहे हैं। आबादी बढ़ने के साथ जंगलों में कुछ कमी आना तो स्वभाविक था पर जंगलों का अधिकांश विनाश कागज, प्लाईवुड, कार्डबोर्ड आदि के कारखानों, विलासी जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति तथा भ्रष्टाचार के कारण हुआ। जंगलों के बिना से भूमि का कटाव हो रहा है। भूमिगत जल का स्तर नीचे जा रहा है। वर्षा व मौसम का चक्र बिगड़ गया है। जंगलों पर निर्भर रहने वाले करोड़ों लोगों की जिंदगी दुसर होती जा रही है और वे उजड़ रहे हैं।

पर्यावरण और पारिस्थितिकी को लेकर गांधी का मानना था कि प्रकृति पालक के रूप में देखी जानी चाहिए, ना कि हमारी विलासिता का हिस्सा होना चाहिए। उसके विपरीत हम प्रकृति, पृथ्वी, नदी व वनों का प्रायोग मात्र अपनी विलासिता के लिए कर रहे है। परिणामस्वरूप आज दुनिया भर में जलवायु परिवर्तन व ग्लोबल वार्मिग जैसे बड़े मुददे हमारे सामने है, जिसके दुष्परिणाम आज हम किसी न किसी रूप में झेल रहे है। हम इन सब दुष्परिणामों को देखने के बाद भी प्रकृति को समझने में असफल रहे। स्वच्छ समाज उनकी कल्पना का हिस्सा था। देश के विभिन्न जगहों पर मौजूद कूड़े के पहाड़ निकट भविष्य के प्रमुख संकट है। गांधी ने उसी समय यह कहा था कि स्वच्छता से स्वास्थ्य व चरित्र का निर्माता होता है, जो आज के परिप्रेक्ष्य में सटीक बैठता है।

गंगा नदी के किनारे 40 करोड़ से भी अधिक लोग रहते हैं। हिन्दुओं के द्वारा पवित्र मानी जाने वाली इस नदी में लगभग 2,000,000 लोग नियमित रूप से धार्मिक आस्था के कारण स्नान करते हैं।

भारतीय संस्कृति के अनुसार वृक्षारोपण को पवित्र धर्म मानते हुए एक पौधे को कई पुत्रों के बराबर माना है और उनके नष्ट करने को पाप कहा गया है। हमारे पूर्वज समूची प्रकृति को ही देव स्वरूप देखते थे। प्राचीन काल से मनुष्य के जीवन में पशुओं तथा वन जीव-धारियों के संरक्षण के उद्देश्य से देवी-देवताओं की सवारी के रूप में संबोधित किया गया है।

वृक्ष कितने सौभाग्यशाली हैं जो परोपकार के लिए जीते हैं। इनकी महानता है कि यह धूप-ताप, आंधी व वर्षा को सहन करके भी हमारी रक्षा करते हैं। जंगलों का विनाश राष्ट्रों के लिए तथा मानव जाति के लिए सबसे खतरनाक है। समाज का कल्याण वनस्पतियों पर निर्भर है और प्रकृति पर्यावरण के प्रदूषण का कारण और वनस्पति के विनाश के कारण राष्ट्र को बर्बाद करने वाली अनेक बीमारियां पैदा हो जाती है। तब चिकित्सीय वनस्पति की प्रकृति में अभिवृद्धि करके मानवीय रोगों को ठीक किया जा सकता है।

दुनिया के सभी देश धन का घमंड छोड़ पूरी धून के साथ मानव निर्मित पर्यावरण के सुधार में इतनी ईमानदारी, समझदारी और प्रतिबद्धता के साथ जुट जाए ताकि कुदरत के घरों में भी बचे और हमारे आर्थिक सामाजिक व निजी खुशियां भी। कुदरत से जितना और जैसे ले उसे कम-से-कम उतना और वैसे ही लौटाए। समय रहते नहीं चेते तो अज्ञात बीमारी का महामारी के रूप में फैलना सम्भव है। अगर जनसंख्या दबाव को नियंत्रित तथा पर्यावरण को संरक्षित नही किया गया तो दीर्घकालीन समय में कुछ ऐसे रोग उत्पन्न हो सकते हैं, जिसका इलाज ही संभव न हो। ऐसे में पृथ्वी के प्राणियों के लिए अत्यंत दुखदायी होगा। अतः पृथ्वी को बचाने के लिए जो भी उपाय हमें अपनाना पड़े उसे त्वरित निर्णय लेकर करनी चाहिए।

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