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निजी अस्पतालों के रवैये पर कार्रवाई

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छोटे-बड़े अस्पताल एक ऐसी संस्कृति का हिस्सा हो चुके हैं, जहां डॉक्टर रुपया छापने की मशीन हो चुके हैं. इसे खत्म किया जाना चाहिए.

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सात साल पहले एक उपभोक्ता ने भारत के प्रतिस्पर्द्धा आयोग में दिल्ली के मैक्स अस्पताल के विरुद्ध एक शिकायत दर्ज करायी थी. उन्होंने पाया था कि इस अस्पताल के दवाखाने से बेची गयी सिरिंज की कीमत बाहर की दुकानों की तुलना में लगभग दो गुनी है. उस उपभोक्ता ने अपनी शिकायत में सिरिंज बनानेवाली कंपनी बेक्टॉन डिकिंसन इंडिया प्राइवेट लिमिटेड और अस्पताल के बीच मिलीभगत का आरोप लगाया था.

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नवंबर, 2015 में प्रतिस्पर्द्धा आयोग की छह सदस्यीय खंडपीठ ने शिकायत की गंभीरता को देखते हुए महानिदेशक को इसकी जांच का आदेश दिया था. वहां से एक लंबी यात्रा शुरू हुई थी, जो महामारी के बाद के दौर में फिर सुर्खियों में है. खबरों के अनुसार, आयोग ने देश के तीन बड़े अस्पताल समूहों से पूछा है कि वे अपने मरीजों के लिए इस्तेमाल होनेवाली दवाओं और अन्य चीजों के दाम कैसे तय करते हैं?

एक स्तर पर यह एक बेहद धीमी सुनवाई का मामला दिखता है, जिसमें पहले कार्रवाई कर अस्पतालों द्वारा कई तरह से हो रहे दोहन से आम लोगों को महामारी के दौरान बचाया जा सकता था. सोचिए, केवल पीपीई किट के लिए मरीज से कितना वसूला जाता था, डॉक्टरों आदि के इस्तेमाल होनेवाली चीजों को छोड़ भी दें, जिनका भारी भुगतान भी मरीज को करना होता था.

साल 2018 में एक अन्य जांच रिपोर्ट में राष्ट्रीय फार्मास्युटिकल प्राइसिंग अथॉरिटी ने रेखांकित किया था कि ‘एक विफल बाजार व्यवस्था में अनैतिक मुनाफाखोरी’ चल रही है, जहां अस्पतालों द्वारा कुछ चीजों को एक हजार फीसदी से भी ज्यादा मुनाफे पर बेचा जा रहा है. अथॉरिटी ने ऐसे ही यह आंकड़ा नहीं बताया था, बल्कि उसकी रिपोर्ट में ऐसी चीजों की सूची थी, जिन्हें मनमाने दाम पर मरीजों को जबरन बेचा गया था.

कुछ चीजों, जैसे आरएमएस इंफ्यूजन सेट 2112 फीसदी और डिस्पोजेबल सीरिंज 1596 फीसदी के मार्जिन पर बेचा गया था. यह दिन-दहाड़े होनेवाली डकैती है, जिसे अंजाम देकर भी लंबे समय से अस्पताल सजा से बचते आये हैं. यह रिपोर्ट एक सरकारी संस्था ने ठोस जांच के आधार पर दी थी और उसके बाद फिर हम ऐसी महामारी की चपेट में आ गये, जिससे हुई मौतों का आधिकारिक आंकड़ा पांच लाख से अधिक है.

भले ही प्रतिस्पर्द्धा आयोग की कार्रवाई धीमी गति से चल रही है, पर इस संस्था की प्रशंसा की जानी चाहिए कि वह जांच के दायरे में अनेक अस्पतालों को लाया है. उसने पाया कि सुपर स्पेशियलिटी अस्पतालों में मुनाफाखोरी गहरे तक बसी हुई है.

उदाहरण के लिए, आयोग ने पाया है कि दिल्ली के पटपड़गंज में स्थित एक अस्पताल ने सिरिंजों को बेच कर 2014-15 में 269.84 से 527 फीसदी तक तथा 2015-16 में 276.96 से 527 फीसदी तक मुनाफा कमाया है. ये आकंड़े बेहद चौंकानेवाले हैं और इसके साथ यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि भर्ती मरीजों को अस्पताल के दवाखाने से चीजें खरीदने के लिए मजबूर किया गया,

जैसा कि अगस्त, 2018 में दिये गये आयोग के आदेश में उल्लिखित है. ये स्पष्ट तथ्य हमें इन अस्पतालों में शीर्ष स्तर पर काम करनेवालों की मानसिकता के बारे में बताते हैं, जो इस कोशिश में लगे रहते हैं कि कैसे और कहां खर्च को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया जा सकता है. यह एक ऐसी प्रवृत्ति है, जो मूल्य नियंत्रण के विचार के विरुद्ध है और वैसे लोगों पर हावी होने की मनोदशा है,

जो बीमारी से परेशान होने के कारण कहीं और जाने की स्थिति में नहीं होते. जब बड़े अस्पताल ही ऐसे शोषणकारी व्यवहार में लिप्त होंगे, तो इसका एक नुकसान है कि सभी निजी अस्पतालों की छवि खराब होती है. जो कुछ अच्छे अस्पताल हैं, उन्हें भी जनमानस में बहुत सारे खराब अस्पतालों के साथ देखा जाने लगेगा. इससे निजी बनाम सरकारी स्वास्थ्य प्रणाली की बेमतलब बहस को हवा मिलेगी.

हालांकि यह मामला कुछ अस्पतालों से संबंधित दिख रहा है और कारण बताओ नोटिस देने का मतलब यह नहीं है कि दोष भी साबित हो गया है, पर सच यह है कि छोटे-बड़े अस्पताल एक ऐसी संस्कृति का हिस्सा हो चुके हैं, जहां ऐसे संस्थानों में डॉक्टर रुपया छापने की मशीन हो चुके हैं, जो कमाई का लक्ष्य निर्धारित करने में नहीं हिचकते. यह रवैया सामान्य हो चुका है और अब इसे कठोर कार्रवाई से खत्म किया जाना चाहिए.

यह कार्रवाई केवल प्रतिस्पर्द्धा आयोग को ही नहीं करनी है, बल्कि इसमें अनेक एजेंसियों को एक साथ लगाया जाना चाहिए. मौजूदा व्यवहार भारत के चिकित्सा तंत्र को पतन की ओर धकेल रहे हैं और इनमें पेशेवर विशिष्टता की अपेक्षा अधिक से अधिक मरीज देखने, सर्जरी करने और पैसा वसूलने पर ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है. अब सक्रिय रूप से कदाचार बस एक कदम ही दूर है.

एक ओर इसका नतीजा निश्चित रूप से भारी खर्च के रूप में होगा, जिसे भारत वहन नहीं कर सकेगा. दूसरी ओर इससे सेवा की गुणवत्ता में लगातार गिरावट आती जायेगी. ऐसी व्यवस्था में अच्छे डॉक्टर बेहतर नहीं कर सकेंगे, क्योंकि बड़ी कमाई कर रहे डॉक्टर और अस्पताल प्रबंधक उनसे आगे निकल जायेंगे. इसका यह भी अर्थ है कि हमारे बेहतरीन डॉक्टरों को आवाज और नीतिगत समर्थन चाहिए, ताकि वे वार्डों और ऑपरेशन थिएटरों में खराब रवैये को रोक सकें. अभी भी बड़ी संख्या में ईमानदार और भले डॉक्टर हैं, पर वे कम होते जा रहे हैं.

बड़े अस्पतालों के खिलाफ प्रतिस्पर्द्धा आयोग की कार्रवाई और उसके नतीजे पर देश के हर अस्पताल की निगाह रहेगी. इसके अलावा, दवाओं और मेडिकल से संबंधित चीजों के निर्माताओं और अंतरराष्ट्रीय आपूर्तिकर्ताओं की भी इस प्रक्रिया पर नजर रहेगी. हाल ही में स्टेंट के दामों को लेकर अंतरराष्ट्रीय निर्माताओं ने खूब लड़ाई लड़ी,

लेकिन सरकार ने कार्रवाई की और उन्हें दाम घटाने पर मजबूर किया. उस समय ऐसा करने से रोकने के लिए सरकार पर हर तरह के दबाव डाले गये थे. सरकार ने उस मामले में कार्रवाई कर उल्लेखनीय उपलब्धि हासिल की और एक कड़ा संदेश भी दिया कि भारत अपने नागरिकों को शोषित नहीं होने देगा. इस मामले में भी ऐसा ही करते हुए चिकित्सा प्रणाली में व्यापक सफाई की जानी चाहिए.

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