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आचार्य द्विवेदी : गुरु-शिष्य परंपरा के अप्रतिम पुरस्कर्ता

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आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी, जिन्होंने ‘व्योमकेश दरवेश’ नाम से आचार्य की जीवनी लिखी है, बताते हैं कि द्विवेदी जी ने अपने समूचे अध्यापन काल में गुरु-शिष्य परंपरा को आगे बढ़ाया, क्योंकि उनका मानना था कि यह शिक्षा की सबसे आदर्श व्यवस्था है.

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Hazari Prasad Dwivedi : गौरापंत ‘शिवानी’, इंदिरा गांधी, नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, रामदरश मिश्र, शिवप्रसाद सिंह, काशीनाथ सिंह और विश्वनाथ त्रिपाठी- इनमें कोई प्रधानमंत्री रहा है, कोई आलोचक, कोई संपादक, कोई नामचीन साहित्यकार. लेकिन इन सबका एक साझा परिचय भी है. ये सब छायावाद के बाद के युग में हिंदी को स्वतंत्र देश की जरूरतों के अनुरूप बनाने में लगे उसके उद्भट सेवकों में से एक आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के अंतेवासी, प्रियपात्र या शिष्य रहे हैं.

कोई शांतिनिकेतन में उनके निकट आया, तो कोई काशी हिंदू विश्वविद्यालय या पंजाब विश्वविद्यालय के दिनों में. जल्दी ही उनकी परंपरा का ऐसा पुष्प बन गया, जिसने भरपूर सौरभ बिखेरकर अपनी पहचान बनायी. कहते हैं कि वे अपने इन शिष्यों की बिना पर यह सोचकर स्वाभिमान से भरे रहते थे कि किसी गुरु का इससे बड़ा कोई सौभाग्य नहीं हो सकता कि उसे उसके शिष्यों के कामों से जाना जाए. आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी, जिन्होंने ‘व्योमकेश दरवेश’ नाम से आचार्य की जीवनी लिखी है, बताते हैं कि द्विवेदी जी ने अपने समूचे अध्यापन काल में गुरु-शिष्य परंपरा को आगे बढ़ाया, क्योंकि उनका मानना था कि यह शिक्षा की सबसे आदर्श व्यवस्था है.

उन्होंने अपनी अनूठी निबंध शैली, लालित्यभरी उपन्यासकला और तर्कसंगत व्याख्या व सम्यक मूल्यांकन पर आधारित आलोचना पद्धति को तो अपने शिष्यों तक पहुंचाया ही, उन्हें अपने इतिहास-बोध व परंपरा-चिंतन से भी लाभान्वित कराया. उन्हें यह भी बताया कि हिंदी के उन्नयन के लिए जरूरी है कि उस पर दावा करने वाले देश की दूसरी भाषाएं भी पढ़ें. उन्होंने स्वयं भी संस्कृत व बांग्ला के साथ अंग्रेजी का विशद अध्ययन कर रखा था. साल 1907 में 19 अगस्त को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के आरत दुबे का छपरा नामक गांव उनका जन्म हुआ.

विद्वान पिता अनमोल द्विवेदी और माता ज्योतिष्मती ने उनका नाम बैजनाथ द्विवेदी रखा था. परिवार के कुछ लोग उन्हें भोलानाथ भी कहते थे. बाद में उनके हजारीप्रसाद हो जाने के पीछे एक रोचक प्रसंग है. जिस दिन वे पैदा हुए, उसी दिन उनके नाना ने एक मुकदमे में एक हजार रुपये जीता था. इस जीत को यादगार बनाने के लिए उन्होंने अपने नाती का नाम हजारीप्रसाद रख दिया.


बहरहाल, प्रारंभिक शिक्षा के बाद 1923 में वे काशी चले गये, तो पीछे मुड़कर नहीं देखा. साल 1930 में काशी हिंदू विश्वविद्यालय से ज्योतिष विषय में आचार्य की उपाधि हासिल करने तक वे संत कबीर के फक्कड़पन को अपना आदर्श मानने लगे थे. उसी वर्ष नवम्बर में उन्होंने गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा स्थापित शांति निकेतन में अध्यापन शुरू किया. वहीं रहते हुए ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ और ‘कबीर’ जैसी अनेक प्रतिष्ठित कृतियां रचीं. उन्होंने ‘लाल कनेर’ नाम से गुरुदेव की कविताओं का हिंदी अनुवाद किया और शांति निकेतन में ‘हिंदी भवन’ भी स्थापित कराया. आगे उन्होंने ‘अनामदास का पोथा’, ‘चारु चंद्रलेख’ और ‘पुनर्नवा’ जैसे उपन्यासों के साथ प्रभूत मात्रा में आलोचना के ग्रंथ और निबंध लिखा. साल 1950 में उन्हें काशी हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग का अध्यक्ष बनने का प्रस्ताव मिला. वहां उन्होंने आचार्य रामचंद्र शुक्ल का मार्गदर्शन पाया था, इसलिए उन्हें उससे अतिरिक्त मोह था. पर 10 साल बाद 17 अन्य प्राध्यापकों के साथ उन्हें विश्वविद्यालय से निष्कासित कर दिया गया और उन्हें पंजाब विश्वविद्यालय जाना पड़ा.


साल 1967 में उन्हें फिर बनारस बुलाकर हिंदी विभाग का अध्यक्ष व अगले बरस रेक्टर बनाया गया. वे 1970 में उत्तर प्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी के अध्यक्ष बने और 1972 से आजीवन उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के उपाध्यक्ष रहे. वे अपने शिष्यों के प्रति जितने उदार थे, विरोधियों के प्रति उतने ही सहनशील. वे कहा करते थे कि गरीब का पहला और सबसे बड़ा शत्रु कोई व्यक्ति नहीं, उसका पेट होता है, जबकि दूसरा दुश्मन उसका सिर, जो झुकना ही नहीं चाहता. वे मानते थे कि महान संकल्प ही महान फल का जनक होता है और जीना कला ही नहीं, बल्कि तपस्या है, जिसमें ईमानदारी और बुद्धिमानी के साथ किया हुआ काम कभी व्यर्थ नहीं जाता.

जीवन के युद्ध में जीतता वह है, जिसमें शौर्य, धैर्य, साहस, सत्व और धर्म होता है. आचार्य के अंतिम दिनों में उन्हें हासिल हुए एक और सौभाग्य से बहुत से साहित्यकारों को ईर्ष्या हो सकती है- 19 मई, 1979 को ब्रेन ट्यूमर ने दिल्ली के एक अस्पताल में उनकी जान ली, तो कमरे के बाहर खडे़ तत्कालीन केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री राजनारायण, जो कई दिनों से उनकी तीमारदारी में लगे हुए थे, अपनी रुलाई नहीं रोक पाये थे. दूसरी ओर, रायबरेली में राजनारायण के हाथों पराजित व प्रधानमंत्री पद से अपदस्थ हुईं उनकी शिष्या इंदिरा ने निधन की खबर मिलते ही अपने कमरे का दरवाजा बंद कर लिया था क्योंकि वे किसी के सामने रो नहीं सकती थीं.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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