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बेहद महत्वपूर्ण है चाबहार समझौता

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भारत पहले से ही रूस और ईरान के साथ मिलकर इंटरनेशनल नॉर्थ-साउथ कॉरिडोर के विकास के लिए प्रयासरत है. इसी क्रम में चाबहार बंदरगाह की योजना बनी, जिस पर 2003 से काम चल रहा है.

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भारत और ईरान के बीच चाबहार बंदरगाह के संचालन और प्रबंधन तथा परियोजना के आगामी चरण के विकास के लिए हुआ दीर्घकालिक समझौता एक महत्वपूर्ण परिघटना है. यह बंदरगाह भारत के लिए रणनीतिक रूप से बहुत अहमियत रखता है. पाकिस्तान के साथ खराब संबंध के कारण अफगानिस्तान और मध्य एशिया से हमारा संपर्क एक तरह से पूरी तरह कट गया है. कुछ समय पहले जब भारत 50 हजार टन अनाज मानवीय सहायता के रूप में अफगानिस्तान भेजना चाहता था, तब पाकिस्तान ने बहुत दिनों तक रास्ता देने में कोताही की थी, जबकि उसका दावा है कि वह अफगानिस्तान का दोस्त है. ऐसे में हमारे लिए एक वैकल्पिक मार्ग आवश्यक हो जाता है.

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भारत पहले से ही रूस और ईरान के साथ मिलकर इंटरनेशनल नॉर्थ-साउथ कॉरिडोर के विकास के लिए प्रयासरत है. इसी क्रम में चाबहार बंदरगाह की योजना बनी, जिस पर 2003 से काम चल रहा है. भारत ने उस बंदरगाह में शहीद बहिश्ती टर्मिनल को बनाया है और अनेक भारतीय कंपनियां संबंधित परियोजनाओं से जुड़ी हुई थीं. लेकिन काम अपेक्षित गति से नहीं हो पा रहा था क्योंकि ईरान पर अमेरिकी और पश्चिमी देशों द्वारा कई तरह के प्रतिबंध लगा दिये गये थे.

हालांकि चाबहार बंदरगाह परियोजना तकनीकी रूप से प्रतिबंधों के दायरे में नहीं थी, लेकिन अनेक कंपनियों ने अमेरिकी पाबंदियों की आशंका से काम की गति को बहुत धीमा कर दिया था. इसी बीच पाकिस्तान ने चाबहार के नजदीक ही चीन के सहयोग से ग्वादर बंदरगाह बनाने का काम प्रारंभ कर दिया. वह परियोजना चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा योजना का हिस्सा है और उसमें सऊदी अरब का भी बहुत निवेश है. चाबहार में काम धीमा होने के बावजूद भारत और ईरान के बीच परियोजना के बारे में बातचीत होती रही थी. पहले हर साल समझौते का नवीनीकरण होता था तथा भारतीय कंपनी इंडिया ग्लोबल पोर्ट लिमिटेड शहीद बहिश्ती टर्मिनल को संभालती थी. लेकिन परियोजना को आगे बढ़ाने के लिए एक दीर्घकालिक व्यवस्था की आवश्यकता थी.

इस साल जनवरी में जब विदेश मंत्री एस जयशंकर ईरान गये थे, तब इस मसले पर ईरानी राष्ट्रपति रईसी और संबंधित मंत्रियों से उनकी चर्चा हुई थी. उसी समय यह तय हुआ था कि ईरान पूरे चाबहार बंदरगाह के प्रबंधन एवं संचालन का जिम्मा भारत को देगा. उस दौरे में भारत ने 120 मिलियन डॉलर के निवेश तथा 250 मिलियन डॉलर के वित्त पोषण के लिए सहमति दी थी. दोनों देशों ने यह भी तय किया है कि यह बंदरगाह इंटरनेशनल नॉर्थ-साउथ कॉरिडोर का हिस्सा भी होगा. इस बंदरगाह के माध्यम से हमारे लिए अफगानिस्तान और मध्य एशिया तक पहुंचने का सरल रास्ता मिल जायेगा. अब इसके लिए हमें पाकिस्तान की आवश्यकता नहीं होगी. उन देशों को भी भारतीय बाजार और हिंद महासागर से जुड़ने का अवसर मिल सकेगा.

यह बहुत अजीब बात है कि समझौते होने के साथ ही अमेरिकी विदेश विभाग का एक बयान आ गया कि जो देश ईरान के साथ आर्थिक संबंध रखेंगे, उन्हें भी प्रतिबंधों के दायरे में लाया जा सकता है. अमेरिका को यह अच्छी तरह से मालूम है कि अफगानिस्तान को मदद की दरकार है ताकि वह संकट और अस्थिरता से निजात पा सके. मध्य एशिया खुद अमेरिका के लिए बहुत महत्वपूर्ण है और वह वहां पैठ बनाने की कोशिश भी कर रहा है. अगर वह भारत के साथ मिलकर मध्य एशिया से अपने जुड़ाव को बेहतर करता, तो वह अच्छी बात होती. चाबहार परियोजना में यदि वे भारत के लिए अवरोध पैदा करते हैं, तो इसे दुर्भाग्यपूर्ण और अनुचित ही कहा जायेगा.

पहले उसने चाबहार परियोजना को पाबंदियों के दायरे से बाहर रखा था. उसे आगे भी ऐसा ही रवैया अपनाना चाहिए. अमेरिका को ऐसा नहीं करना चाहिए कि वह जिस डाल पर बैठा हो, उसे ही काटने लगे. जैसा कि विदेश मंत्री जयशंकर ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा है, अमेरिका भी मानता रहा है कि चाबहार परियोजना पूरे क्षेत्र के लिए फायदेमंद है. इसी समझ के कारण इसे प्रतिबंधों से अलग रखा गया था. अमेरिका के हालिया बयान से यही संकेत मिलता है कि वह इस परियोजना पर भी पाबंदी लगाने के चक्कर में है. अपने भू-राजनीतिक एजेंडे के तहत अगर अमेरिका ऐसा करता है, तो इससे भारत को नुकसान तो होगा, उसको भी कोई लाभ नहीं होगा.

अमेरिका चाहे जो कहे, भारत चाबहार बंदरगाह को लेकर गंभीर है. अमेरिका और भारत के बीच एक व्यापक रणनीतिक समझौता है. इसके प्रावधानों और प्रक्रियाओं के तहत दोनों पक्षों में इस मसले पर बातचीत होगी. तब भारत उसके समक्ष इस परियोजना के बारे में समुचित जानकारी रखेगा और आशा है कि अमेरिका की प्रतिक्रिया भी सकारात्मक होगी. इस संबंध में भारत को किसी दबाव में आने की जरूरत नहीं है. मूल बात यह है कि हमें अपने हितों को प्राथमिकता देनी है. मध्य एशिया से जुड़ाव और इंटरनेशनल कॉरिडोर हमारे लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं. इसमें चाबहार एक आवश्यक कड़ी है. अगर अमेरिका अपनी बात पर अड़ा भी रहता है, तब भी इस परियोजना से भारत के हटने का कोई सवाल पैदा नहीं होता. अफगानिस्तान में शांति एवं स्थिरता एक जरूरी मुद्दा है. इसमें भारत उल्लेखनीय योगदान दे सकता है. मध्य एशिया के देश लंबे समय से चीन और रूस के बीच झूलते रहे हैं. उन्हें भी दूसरे देशों की जरूरत है. वे भारत से संबंध बढ़ाने के साथ-साथ तुर्की और अमेरिका से भी निकटता बढ़ा रहे हैं.

मेरा मानना है कि अमेरिका वैसे तो बयानबाजी करेगा, पर आखिरकार वह यह समझेगा कि उसने पहले चाबहार को महत्वपूर्ण क्यों कहा था और क्यों इसे पाबंदियों से अलग रखा था. यह भी रेखांकित किया जाना चाहिए कि रूस और ईरान ऐसे देश हैं, जिन पर अमेरिका और पश्चिमी देशों ने ढेरों प्रतिबंध लगाये हैं. इन देशों को अगर कोई फायदा होता दिखेगा, तो अमेरिका जरूर अड़ंगा लगाने की कोशिश करेगा. अनेक पाबंदियों का असर अन्य देशों पर भी होता है. यह पहलू एक बड़ी चुनौती है और हमें इसे लेकर सावधान रहना होगा. सरकार यह नहीं कहती कि उसे परेशानी है, लेकिन निजी कंपनियों को अपने नुकसान का अंदेशा रहता है. इसलिए वे दबाव की स्थिति में पीछे हट सकती हैं, जैसा हमने पहले देखा है. बहरहाल, चुनौतियों के बावजूद अभी यह उम्मीद बढ़ी है कि इस परियोजना का कामकाज तेजी से आगे बढ़ेगा तथा समूचे क्षेत्र को उसका फायदा मिलेगा.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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