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दांव पर क्षेत्रीय नेताओं का भविष्य

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कांग्रेस अगली लोकसभा के गणित और नये भारत की राजनीति को अकेले निर्धारित नहीं कर सकती.

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अगर शांति काल में युद्ध होता है, तो ऐसा चुनाव के दौरान होता है. कभी शासक हमले का समय तय करने के लिए दरबारी ज्योतिषियों की सलाह पर निर्भर होते थे. विडंबना यह है कि चीजें जितनी बदलती हैं, उतनी ही पहले जैसी बनी रहती हैं. उद्योगपति, बाजार विशेषज्ञ, विचारधारा से ग्रस्त बुद्धिजीवी और चुनाव ज्ञानी जैसे चुनावी पंडित कॉकटेल पार्टियों या टीवी पर संख्या का खेल कर अपने श्रोताओं की भूख शांत करते हैं. लोकसभा चुनाव के पहले नेताओं के उतार-चढ़ाव की भविष्यवाणी करना उनका शगल है. कांग्रेस के लिए मृत्युलेख लिखना सामान्य खेल है. नरेंद्र मोदी ने पहले ही अपनी पार्टी की जीत की घोषणा कर दी है. खोखले दक्षिणपंथी विशेषज्ञ कांग्रेस को 50 से कम सीटें दे रहे हैं. जुझारू राष्ट्रीय पार्टी की अनुपस्थिति में अब विपक्ष के क्षेत्रीय क्षत्रपों को अपने यहां मोदी का रथ रोकना है या विलुप्त हो जाना है. लोकसभा का चुनाव केवल मोदी की तीसरी पारी के बारे में नहीं है, बल्कि ममता बनर्जी, शरद पवार, एमके स्टालिन, सिद्धारमैया और रेवंत रेड्डी की क्षेत्रीय विचारधाराओं के राजनीतिक स्थायित्व के बारे में भी है. अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव यह सिद्ध करना होगा कि वे अपने प्रख्यात पिताओं के योग्य उत्तराधिकारी हैं, जिन्होंने अपने राज्यों पर मजबूत पकड़ बनाकर रखी थी और प्रधानमंत्रियों को बनाने एवं नहीं बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी. उत्तर भारत में कांग्रेस सीधी लड़ाई में भाजपा को नुकसान पहुंचाने की स्थिति में नहीं है. लोकसभा का बहुमत उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, महाराष्ट्र, तेलंगाना, झारखंड, पंजाब और दिल्ली के नतीजों पर निर्भर करेगा. इन राज्यों में 348 सीटें है, जिनमें भाजपा के पास 169 तथा इंडिया गठबंधन के पास 126 सीटें हैं. शेष भारत राष्ट्र समिति जैसी छोटी क्षेत्रीय पार्टियों, वामपंथी पार्टियों और अन्यों के पास हैं.
उत्तर प्रदेश 50 वर्षीय पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का भविष्य तय करेगा, जिनके पिता की बड़ी हैसियत के कारण एक बार समाजवादी पार्टी ने 36 लोकसभा सीटें और विधानसभा में लगभग 60 प्रतिशत सीटें जीती थी. साल 2012 में अखिलेश ने राज्य में विजय पायी थी, पर उसके बाद वे लगातार हारते रहे हैं. साल 2019 में उन्होंने मायावती से गठबंधन किया था, पर पांच सीट ही जीत सके थे. इस बार वे राहुल गांधी के साथ जुड़े हैं. मोदी और योगी सभी 80 सीटों पर जीत का दावा कर रहे हैं. क्या राम मंदिर के उत्साह से भरपूर भगवा लहर को अखिलेश की लोकप्रियता रोक सकेगी? मायावती के किनारे होने और उनकी संदेहास्पद राजनीति की स्थिति में क्या वे दो अंकों में पहुंचेंगे और कांग्रेस को सीटें जोड़ने में मददगार होंगे? बिहार में 34 साल के पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव या तो अस्त हो जायेंगे या अपने पिता लालू यादव के योग्य उत्तराधिकारी के रूप में राजगद्दी हासिल करेंगे. अभी लोकसभा में राजद का एक भी सदस्य नहीं है और उसकी सहयोगी कांग्रेस 2019 में केवल एक सीट जीत पायी थी. शेष 39 सीटें भाजपा-नीतीश कुमार की झोली में गयी थी. बिहार में तेजस्वी के पास अपनी जगह बनाने और राष्ट्रीय खिलाड़ी बनने का मौका है. मोदी की संख्या पर असर से उनकी ताकत का आकलन होगा. क्या वे अपनी मेहनत से खाता खोल सकेंगे?
महाराष्ट्र में शरद पवार और उद्धव ठाकरे की भावी प्रासंगिकता का निर्णय होगा. ये दोनों राष्ट्रीय पहुंच वाले सत्ता के स्थानीय खिलाड़ी हैं. वे दशकों से राज्य की राजनीति पर हावी हैं, पर हाल में दल-बदल में दोनों ने अपने दल खो दिये हैं. यह चुनाव तय करेगा कि वे अपने काडर और सांगठनिक समर्थन को बरकरार रख सकते हैं या नहीं. साल 2019 में पवार, जिनके पास अब नया चुनाव चिह्न है, भाजपा-शिव सेना गठबंधन के विरुद्ध केवल चार सीटें जीत सके थे. शिव सेना को 18 सीटें मिली थीं, जिनमें से अधिकतर अवसरवादी आशावाद के चिकने फर्श को पारकर मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे की शिव सेना में शामिल हो चुके हैं. पवार भी अपने लगभग सभी सांसद और विधायक खो चुके हैं. पवार और ठाकरे के करिश्मे की परीक्षा इस बार है.
पश्चिम बंगाल ममता बनर्जी और मोदी के लिए प्रतिष्ठा की लड़ाई है. पिछली बार लोकसभा में 18 और फिर विधानसभा में 77 सीटें जीतकर भाजपा ने तृणमूल कांग्रेस को भारी नुकसान पहुंचाया था. मोदी ने 370 के लक्ष्य को पूरा करने के लिए राज्य में 35 सीटें जीतने का लक्ष्य रखा है. बीते दो साल से पश्चिम बंगाल युद्ध क्षेत्र बना हुआ है. दमदार ममता ने भाजपा को राज्य से बाहर करने की प्रतिज्ञा ली है. उनका व्यक्तिगत अस्तित्व और उनकी पार्टी का भविष्य उनकी जीती सीटों से जुड़ा हुआ है. उनकी हार से विधानसभा चुनाव में भगवा झंडा लहराने का रास्ता बन जायेगा और उनकी जीत का मतलब है कि बंगाल में उनका राज कायम रहेगा. तमिलनाडु में अन्ना द्रमुक के तेजी से गायब होते जाने के साथ 71 साल के एमके स्टालिन और द्रविड़ पहचान को भाजपा की कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है. राज्य की 39 सीटों में 23 द्रमुक और आठ कांग्रेस के पास हैं. भाजपा ने 15 सीटों का लक्ष्य तय किया है. भाजपा जाति समीकरण को तोड़ने और सनातन गौरव को पुनर्स्थापित करने के लिए ध्रुवीकरण की राजनीति कर रही है. ऐसे में स्टालिन को जीत के लिए नये द्रविड़ अस्त्र की आवश्यकता होगी. केरल में दो सेकुलर गठबंधनों- सीपीएम के नेतृत्व वाला वाम मोर्चा और कांग्रेस की अगुवाई में यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट- के प्रतिरोध के कारण भाजपा कभी एक सीट भी नहीं जीत पायी है. पहली बार इन गठबंधनों को भाजपा से अच्छी चुनौती मिल रही है. कांग्रेस को 20 में 15 सीटें स्थानीय बुजुर्ग नेताओं के कारण मिली हैं. वाम मोर्चा 71 वर्षीय मुख्यमंत्री पिनराई विजयन पर निर्भर है. क्या इस बार भाजपा के लिए द्वार खुलेंगे?
कर्नाटक, झारखंड, पंजाब और दिल्ली में भगवा सुनामी रोकने के लिए निगाहें स्थानीय नेतृत्व की क्षमता पर लगी हैं. कर्नाटक में सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार को आशा है कि भाजपा की सीटें 25 से घटकर 15 से कम रह जायेंगी और कांग्रेस शून्य से 10 के आंकड़े पर आ जायेगी. अरविंद केजरीवाल और भगवंत मान दिल्ली एवं पंजाब में भाजपा को शून्य पर लाने के लिए कार्यकर्ताओं को मुस्तैद कर रहे हैं. कांग्रेस अगली लोकसभा के गणित और नये भारत की राजनीति को अकेले निर्धारित नहीं कर सकती. परिणाम क्षेत्रीय नेताओं और जातिगत राजनीति के उभार या खात्मा तय करेंगे. विडंबना है कि आगामी दशकों की राजनीति की दिशा मोदी की जीत नहीं, बल्कि उनके विरोधियों की हार तय करेगी.

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(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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