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गृहणियों के काम के महत्व को कम न आंकें

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गृहणियां दुनिया की सबसे बड़ी कार्यशक्ति हैं, जो बिना किसी प्रोत्साहन के काम करती हैं. बदले में उन्हें अवांछित उपहास और ताने मिलते हैं.

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बीते दिनों, देश की शीर्ष अदालत ने अपने निर्णय में कहा कि ‘गृहणी द्वारा परिवार के लिए किया गया योगदान अमूल्य और उच्च कोटि का होता है.’ जस्टिस सूर्यकांत और के विश्वनाथन की पीठ ने यह भी कहा कि ‘गृहणी द्वारा किये गये योगदान का मौद्रिक आकलन करना मुश्किल है. यह कहने की जरूरत नहीं की गृहणी की भूमिका उतनी ही महत्वपूर्ण है, जितनी परिवार के कमाने वाले सदस्य की.’ न्यायालय ने यह टिप्पणी 17 वर्ष पूर्व सड़क दुर्घटना में महिला की मौत से जुड़े मोटर दावे की सुनवाई के दौरान की.
यह पहला वाकया नहीं है, जब शीर्ष अदालत ने गृहणी के कार्यों के अवमूल्यन पर नाराजगी व्यक्त की है. इससे पूर्व जनवरी 2021 में सर्वोच्च न्यायालय ने मोटर दुर्घटना क्षतिपूर्ति के दावे के मामले में निर्णय देते हुए कहा था कि ‘यह धारणा कि गृहणी काम नहीं करती है या वह घर में योगदान नहीं देती है, समस्या पूर्ण विचार है. एक गृहणी की आमदनी को निर्धारित करने का मुद्दा काफी अहम है. यह उन तमाम महिलाओं के काम को मान्यता देता है, जो चाहे विकल्प के रूप में या सामाजिक-सांस्कृतिक मानदंडों के परिणामस्वरूप इस गतिविधि में लगी हुई हैं.’ वर्ष 1968 से 2021 के मध्य मोटर दुर्घटना क्षतिपूर्ति के लगभग 200 मामलों में बीमा कंपनियों का गृहणी के कार्य को मूल्यहीन समझना इंगित करता है कि समाज गृहणियों के अथक परिश्रम और त्याग के प्रति कितना असंवेदनशील है. इसमें संदेह नहीं कि गृहणियों के स्नेह, त्याग, ममत्व और समर्पण का मूल्यांकन असंभव है, परंतु यह भी कहां तक उचित है कि उनके अथाह परिश्रम को मूल्यहीन समझा जाए? भारत ही नहीं, दुनियाभर की महिलाओं के लिए सबसे भयावह प्रश्न यही है कि ‘आप क्या करती हैं? यदि इसका उत्तर ‘गृहणी’ है, तो समाज बड़ी निष्ठुरता से उसके अस्तित्व को मूल्यहीन करार देता है. दुर्भाग्यपूर्ण है कि जो घरेलू महिलाएं मां और पत्नी की भूमिका में स्वयं को इस तरह अंगीकार कर लेती हैं कि उन्हें अपने ही अस्तित्व का कोई भान नहीं होता, उनकी समस्त भूमिकाओं को लाभ-हानि के तराजू में तोला जाये. यह न तो न्यायसंगत है, न ही संवेदनशील.

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दुखद है कि बीते ढाई दशक में गृहणियों के आत्महत्या की दर में निरंतर वृद्धि हुई है. परंतु उनका अस्तित्व सामाजिक और राजनीतिक परिचर्चा का विषय कभी नहीं बन पाया, क्योंकि उनके प्रति न केवल संपूर्ण पितृसत्तात्मक ढांचा असंवेदनशील है, अपितु यह विषय राजनीतिक परिदृश्य के लिए भी लाभकारी नहीं है. वर्ष 2021 से 2023 के मध्य हर वर्ष आत्महत्या करने वाली गृहणियों की कुल संख्या किसानों की तुलना में दोगुने से अधिक रहने के बावजूद भी कभी राजनीतिक तथा सामाजिक मंचों पर उभरकर सामने नहीं आयी. इसलिए गृहणियों के संबंध में दोहरे रवैये को लेकर गंभीर चर्चा की जरूरत है. भारत ही नहीं, विश्वभर में महिलाएं गृहणी शब्द से परहेज करने लगी हैं, विशेषकर यदि इस संदर्भ में भारतीय महिलाओं की बात की जाये, तो उनकी पीड़ा अन्य देशों की तुलना में अधिक गंभीर है. वे तनावग्रस्त हैं. इसे समझने के लिए उस सिद्धांत को समझना होगा, जिसे ‘लुकिंग ग्लास सेल्फ’ (स्व-दर्पण) कहा जाता है. समाजशास्त्री चार्ल्स कूले का यह सिद्धांत बताता है कि समाज उस ‘दर्पण’ की भांति है जिसके समक्ष खड़े होकर एक व्यक्ति स्वयं के बारे में आकलन करता है और समाज की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप वह अपने बारे में विचार करता है. स्वयं को ‘हीन’ मानना अथवा ‘श्रेष्ठ’, इसी प्रक्रिया से उपजता है. गृहणी के कार्यों और उनकी अदृश्य भूमिकाओं को समाज द्वारा ‘शून्य’ मानना और उसे ‘शाब्दिक तथा वाचिक’ रूप से अभिव्यक्त करना असंवेदनशीलता को प्रकट करता है. ‘न कहने की असमर्थता’, ‘उत्तरदायित्व की अतिरंजित भावना’, ‘पूर्णतावाद’ गृहणी के भीतर अत्यधिक विरक्ति का भाव उत्पन्न कर देते हैं. निरंतर मिलने वाली अवहेलना कई बार उन्हें आत्मघाती कदम उठाने पर भी विवश कर देती है. हमें समझना होगा कि गृहणियों का काम वह है, जो किसी भी देश की अर्थव्यवस्था में प्रत्यक्ष रूप से लगे हुए श्रम के पुनर्जीवन में सीधे-सीधे अपना योगदान देता है.


यक्ष प्रश्न यह है कि गृहणियों के कार्यों की आर्थिक गणना कैसे संभव है? भारत ने देश की जीडीपी में महिलाओं के घरेलू कामों के योगदान को मापने के लिए विभिन्न तरीकों पर गौर करने की कवायद शुरू कर दी है. सरकार घरेलू काम पर महिलाओं द्वारा खर्च किये जाने वाले समय की गणना करने के लिए समय उपयोग सर्वेक्षण को एक नियमित सुविधा बनाने पर विचार कर रही है. गृहणियां दुनिया की सबसे बड़ी कार्यशक्ति हैं, जो बिना किसी प्रोत्साहन के काम करती हैं और उन्हें अवांछित उपहास और ताने मिलते हैं. महिला सशक्तीकरण को बढ़ावा देने के लिए, विशेष रूप से भारत जैसे पितृसत्तात्मक देश में, इस मिथक को दूर करना आवश्यक है कि ‘एक गृहणी होना बड़ी बात नहीं है और उसका काम कॉरपोरेट क्षेत्रों की तुलना में कुछ भी नहीं है.’ गृहणियों के काम को जीडीपी गणना में स्थान देना गृहणी कर्तव्यों से जुड़ी रूढ़िवादिता को तोड़ने में उत्प्रेरक का कार्य करेगा, वे जो करेंगी, उसके लिए उनका सम्मान किया जायेगा.

(ये लेखिका के निजी विचार हैं.)

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