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अमीरों का क्लब है वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम

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ऐसे मंच, जहां बहुराष्ट्रीय कंपनियों का दबदबा हो और सामान्य प्रतिनिधियों की कोई प्रभावी भूमिका न हो, उससे दुनिया के भले की कल्पना नहीं की जा सकती. समझना होगा कि वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम ऐसा ही एक मंच है. ऐसे मंचों से विश्व को सावधान रहने की जरूरत है, क्योंकि उनका वास्तविक एजेंडा पारदर्शी नहीं है.

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कुछ दिन पहले दुनिया के एक महत्वपूर्ण मंच- वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम का सालाना सम्मेलन दावोस (स्विट्जरलैंड) में संपन्न हुआ. वर्ष 1971 में अस्तित्व में आया यह फोरम वैश्विक आर्थिक संरचना पर चर्चा करने वाली एक अहम संस्था के नाते उभरा है. व्यापार, भू-राजनीति, सुरक्षा, सहकार, ऊर्जा, पर्यावरण, प्रकृति आदि कई मुद्दों पर इस मंच पर चर्चा होती रही है. हर साल की तरह इस बार भी आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक एवं प्रौद्योगिकी क्षेत्र की बड़ी हस्तियों ने इस सम्मेलन में भाग लिया. इनमें साठ देशों के शासनाध्यक्ष भी थे. एक हजार बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा पोषित यह मंच अपने सम्मेलनों में भाग लेने वालों से मोटी रकम शुल्क के रूप में लेता है, यानी किसी भी तरह से यह सर्वसमावेशी मंच तो नहीं कहा जा सकता. समाज में कम भाग्यशाली लोगों की ओर से बोलने वालों में से शायद कोई यहां नहीं पहुंच पाता. इसमें दुनिया के सामान्य जन के हित साधने जैसी कोई बात नहीं होती. इस बार भी जिन मुद्दों पर चर्चा हुई, उनका सामान्य जन से कोई खास सरोकार नहीं दिखता. उदाहरण के लिए, एक सत्र में यह चर्चा हुई कि दुनिया में व्यापार और निवेश कथित रूप से कुशल साझेदारी के स्थान पर मित्रता के आधार पर हो रहा है. रूस-यूक्रेन संघर्ष, इस्राइल-हमास युद्ध आदि स्थितियां इन कंपनियों के लिए शुभ नहीं हैं क्योंकि इनके कारण उनके निवेश प्रभावित हो रहे हैं, इसलिए उनमें चिंता व्याप्त है. वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के सम्मेलन में जिन 60 शासनाध्यक्षों ने भाग लिया, वे सभी वैश्विक भू-राजनीति में उथल-पुथल, देशों के बीच बढ़ती वैमनस्यता और युद्ध की स्थिति से चिंता व्यक्त करते हुए देखे गये. चाहे उनकी चिंता वाजिब है, लेकिन आर्थिक चर्चा करते समय उनका ध्यान मुल्कों के बीच असमानताओं और दुनिया में गरीबी, निरक्षरता और बेरोजगारी की तरफ नहीं था. एक विषय, जिससे पूरे दुनिया का सरोकार है यानी पर्यावरण और मौसम परिवर्तन, पर बात तो हुई, लेकिन समाधान के लिए कोई विशेष इच्छाशक्ति नहीं दिखी. पिछले कई पर्यावरण सम्मेलनों से यह स्पष्ट हो रहा है कि आज पर्यावरण पर चर्चा से ज्यादा समाधान की जरूरत है. काफी साल पहले विकसित देशों ने यह वादा किया था कि वे हर वर्ष 100 अरब डॉलर की सहायता पर्यावरण समस्या से निपटने के लिए करेंगे. लेकिन वह सहायता दूर-दूर तक नजर नहीं आ रही. खरबों डॉलर की संपत्ति वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी विभिन्न मंचों पर इस समस्या पर चर्चा करती होंगी, लेकिन वे भी अपनी प्रौद्योगिकी को बिना भारी शुल्क लिये साझा करने के लिए तैयार नहीं है. यह स्थिति उनके दोहरे चरित्र की ओर इंगित करती है.

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दावोस में बिगड़ते पर्यावरण और बदलते मौसम पर चर्चा करने वालों में अधिकतर अपने-अपने निजी विमान से वहां आये थे. उससे कार्बन का कितना उत्सर्जन हुआ और पर्यावरण का कितना ह्रास हुआ, उस ओर वे उदासीन दिखे. यदि वास्तव में फोरम के कर्ता-धर्ता मुद्दों के प्रति संवेदनशील होते, तो इस सम्मेलन में भाग लेने के लिए भारी शुल्क की अनिवार्यता नहीं होती. इस सम्मेलन में हाशिये पर खड़े समुदायों, पिछड़े समाजों के लिए काम करने वाले कार्यकर्ताओं और सामान्य लोगों को भी इसमें भाग लेने के लिए आमंत्रित किया जाना चाहिए था. शासनाध्यक्षों और बड़े मंत्रियों और बड़ी कंपनियों के चहेते बुद्धिजीवियों की उपस्थिति इन कंपनियों के एजेंडे को वैधता प्रदान करती है. चाहे ये बहुराष्ट्रीय कंपनियां मानवता और विश्व कल्याण की कितनी भी बातें करें, इनका इस सदी की सबसे बड़ी महामारी के दौरान व्यवहार दानवों को भी लज्जित करने वाला था. फाइजर नामक कंपनी ने तो अप्रभावी वैक्सीन ही जान-बूझ कर दुनियाभर में बेच दी. यह कंपनी अमेरिकी सरकार के माध्यम से भारत सरकार पर भी दबाव बना रही थी. यही नहीं, अमेरिकी दबाव में भारत की विपक्षी पार्टियां भी सरकार पर इसकी वैक्सीन खरीदने हेतु दबाव बना रही थीं. पिछले साल फोरम में जब पत्रकारों ने फाइजर कंपनी के प्रमुख से इस बाबत जवाब मांगा, तो वे कुछ बोलने के लिए तैयार नहीं हुए. यह बात छुपी हुई नहीं है कि गैट समझौतों में अधिकांश समझौते बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दबाव में हुए, ट्रिप्स समझौते में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हित में न केवल दवाओं और चिकित्सीय उपकरणों समेत सभी प्रकार के उत्पादों पर पेटेंट की अवधि बढ़ायी गयी, बल्कि प्रक्रिया पेटेंट से उत्पाद पेटेंट की व्यवस्था भी लागू की गयी, जिससे सभी देशों में स्वास्थ्य सुरक्षा बाधित हुई. जब भारत की कैडिला कंपनी से दक्षिण अफ्रीका द्वारा दवा खरीदने का कंपनियों ने विरोध किया और इसके कारण उन्हें जनता के रोष का सामना करना पड़ा, तो विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में मान्य किया गया कि महामारी और अपात स्थितियों में पेटेंट अप्रभावी रहेंगे. लेकिन दुनिया ने देखा कि भयंकर कोरोना महामारी के बावजूद बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अपने पेटेंट अधिकारों को नहीं छोड़ा. जब भारत और दक्षिण अफ्रीका के नेतृत्व में 100 से अधिक देशों ने ट्रिप्स काउंसिल के सामने छूट का प्रस्ताव रखा, तो अपनी कंपनियों के दबाव में अमेरिका और यूरोपीय देशों समेत सभी विकसित देशों ने इसका विरोध किया. तमाम प्रयासों के बावजूद सिर्फ कोरोना वैक्सीन पर ही उन्होंने पेटेंट अधिकार छोड़ने का प्रस्ताव माना, लेकिन उसमें भी इतनी शर्तें जोड़ दी गयीं कि वह छूट लगभग निष्प्रभावी हो गयी.

ऐसे मंच, जहां बहुराष्ट्रीय कंपनियों का दबदबा हो और सामान्य प्रतिनिधियों की कोई प्रभावी भूमिका न हो, उससे दुनिया के भले की कल्पना नहीं की जा सकती. समझना होगा कि वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम, जिसकी विश्व में कोई आधिकारिक भूमिका नहीं है और जो बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों, जिनका धर्म ही लाभ और केवल लाभ कमाना है और जो मानवता के प्रति बहुत अधिक असंवेदनशील है, का ही एक मंच है. उनसे किसी तरह की अपेक्षा रखने का कोई मतलब नहीं है. ऐसे मंचों से विश्व को सावधान रहने की जरूरत है. ऐसे मंचों पर जब आर्थिकी, व्यापार, प्रौद्योगिकी, पर्यावरण और यहां तक की असमानताओं की चर्चा होती है, तो समझ लेना चाहिए कि इन चर्चाओं के माध्यम से बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने हित में वैश्विक एजेंडा चला रही हैं. अमेरिकी प्रतिनिधि स्कॉट पेरी ने 19 जनवरी को पांच लोगों के साथ मिलकर ’डिफंड दावोस एक्ट’ पेश किया और कहा, ‘करदाताओं को द्वीपीय, वैश्विक अभिजात्य वर्ग के लिए वार्षिक स्की यात्राओं के लिए धन देने के लिए मजबूर करना बेतुका है. निंदनीय तो छोड़ ही दें, विश्व आर्थिक मंच अमेरिकी फंडिंग के एक प्रतिशत के लायक भी नहीं है, और यह सही समय है, जब हम दावोस को निधि से वंचित कर रहे हैं.’ इससे पता चलता है कि अमेरिका में भी कांग्रेस द्वारा विरोध किया जा रहा है और यह आरोप लगाया जा रहा है कि दुनिया के आम आदमी के लिए इसकी कोई प्रासंगिकता नहीं है.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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