24.1 C
Ranchi
Thursday, February 6, 2025 | 06:31 pm
24.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

दिल्ली में 5 फरवरी को मतदान, 8 फरवरी को आएगा रिजल्ट, चुनाव आयोग ने कहा- प्रचार में भाषा का ख्याल रखें

Delhi Assembly Election 2025 Date : दिल्ली में मतदान की तारीखों का ऐलान चुनाव आयोग ने कर दिया है. यहां एक ही चरण में मतदान होंगे.

आसाराम बापू आएंगे जेल से बाहर, नहीं मिल पाएंगे भक्तों से, जानें सुप्रीम कोर्ट ने किस ग्राउंड पर दी जमानत

Asaram Bapu Gets Bail : स्वयंभू संत आसाराम बापू जेल से बाहर आएंगे. सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें जमानत दी है.

Oscars 2025: बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप, लेकिन ऑस्कर में हिट हुई कंगुवा, इन 2 फिल्मों को भी नॉमिनेशन में मिली जगह

Oscar 2025: ऑस्कर में जाना हर फिल्म का सपना होता है. ऐसे में कंगुवा, आदुजीविथम और गर्ल्स विल बी गर्ल्स ने बड़ी उपलब्धि हासिल करते हुए ऑस्कर 2025 के नॉमिनेशन में अपनी जगह बना ली है.
Advertisement

सीखने के आनंद पर भारी परीक्षा का दवाब

Advertisement

परीक्षा का वर्तमान तंत्र आनंददायक शिक्षा के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा है. बीते दो दशक में गला काट प्रतिस्पर्धा में न जाने कितने बच्चे कुंठा का शिकार हो मौत को गले लगा चुके हैं. परीक्षा व उसके परिणामों ने एक भयावह सपने, अनिश्चितता की जननी व बच्चों के नैसर्गिक विकास में बाधा का रूप ले लिया है.

Audio Book

ऑडियो सुनें

बीएसई ने 15 फरवरी से 10वीं और 12वीं के बोर्ड इम्तहान होने की घोषणा की है. खुद को बेहतर साबित करने के लिए इन परीक्षाओं में अव्वल नंबर लाने का भ्रम इस तरह बच्चों व उससे ज्यादा उनके पालकों पर लाद दिया गया है कि अब ये परीक्षा नहीं, गलाकाट युद्ध-सा हो गया है. कई हेल्प लाइन शुरू हो गयी हैं कि यदि बच्चे को तनाव हो, तो संपर्क करें. जरा सोचें कि बच्चों के बचपन, शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की कीमत पर बढ़िया नंबरों का सपना देश के ज्ञान- संसार पर किस तरह भारी पड़ रहा है. कैसी विडंबना है कि डाक्टर, इंजीनियर आदि बनने के सपनों को साकार करने के लिए लालायित बच्चों को स्कूली जिंदगी और बांची गयीं पुस्तकें मामूली असफलता को स्वीकारने और उसका सामना करने का साहस नहीं सिखा पाती हैं. उनमें अपने परिवार, शिक्षक व समाज के प्रति भरोसा नहीं पैदा हो पाता कि महज एक इम्तहान के नतीजे अच्छे नहीं होने से वे लोग उन्हें स्वीकार करेंगे अपनों की तरह और आगे की तैयारी के लिए साथ देंगे. असल में प्रतिस्पर्धा के असली मायने सिखाने में पूरी शिक्षा प्रणाली असफल रही है.

- Advertisement -

नयी शिक्षा नीति को आये तीन साल हो गये हैं, लेकिन अभी तक जमीन पर बच्चे न तो कुछ नया सीख रहे हैं और न ही पढ़ने का आनंद ले पा रहे हैं. बस एक धुन या दवाब है कि परीक्षा में जैसे-तैसे बढ़िया नंबर आ जाएं. यह विचारणीय है कि जो शिक्षा बारह साल में बच्चों को अपनी भावनाओं पर नियंत्रण करना न सिखा सके, जो विषम परिस्थिति में अपना संतुलन बनाना न सिखा सके, वह कितनी प्रासंगिक व व्यावहारिक है. बारहवीं के परीक्षार्थी बेहतर स्थानों पर प्रवेश के लिए चिंतित हैं, तो दसवीं के बच्चे अपने पसंदीदा विषय पाने के दवाब में है. एक तरफ स्कूलों को अपनी प्रतिष्ठा की चिंता है, तो दूसरी ओर हैं मां-बाप के सपने. बचपन, शिक्षा, सीखना सब इम्तहान के सामने गौण हो गये हैं. क्या किसी बच्चे की योग्यता, क्षमता और बुद्धिमता का तकाजा महज अंकों का प्रतिशत ही है? वह भी उस परीक्षा प्रणाली में, जिसकी स्वयं की योग्यता संदेहों से घिरी हुई है.

सीबीएसई की कक्षा 10 में पिछले साल दिल्ली में हिंदी में बहुत से बच्चों के कम अंक रहे. हिंदी की मूल्यांकन प्रणाली को देखें, तो वह बच्चों के साथ अन्याय ही है. बिंदी, मात्रा या ‘स’, ‘ष’ और ‘श’ में भेद नहीं कर पाना महज एक गलती है, लेकिन मूल्यांकन के समय बच्चे ने जितनी बार एक ही गलती को किया है, उतनी ही बार उसके नंबर काटे गये. यानी मूल्यांकन का आधार बच्चों की योग्यता नहीं, बल्कि उसकी कमजोरी है. यह सरासर नकारात्मक सोच है, जिसके चलते बच्चों में आत्महत्या, पर्चे बेचने-खरीदने की प्रवृति, नकल व झूठ का सहारा लेना जैसी बुरी आदतें विकसित हो रही हैं.

छोटी कक्षाओं में सीखने की प्रक्रिया के नीरस होते जाने व पढ़ाई के बढ़ते बोझ को कम करने के इरादे से मार्च 1992 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने आठ शिक्षाविदों की एक समिति बनायी थी, जिसकी अगुआई प्रो यशपाल कर रहे थे. समिति ने जुलाई 1993 में सौंपी अपनी रिपोर्ट में साफ लिखा था कि बच्चों के लिए स्कूली बस्ते के बोझ से अधिक बुरा है न समझ पाने का बोझ. सरकार ने सिफारिशों को स्वीकार भी किया और एकबारगी लगा कि उन्हें लागू करने के लिए भी कदम उठाये जा रहे हैं. फिर सरकारें बदलती रहीं और हर सरकार अपनी विचारधारा जैसी किताबों के लिए ही चिंतित रही. वास्तव में परीक्षा का वर्तमान तंत्र आनंददायक शिक्षा के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा है. इसके स्थान पर सामूहिक गतिविधियों को प्रोत्साहित व पुरस्कृत किया जाना चाहिए. यह बात सभी शिक्षाशास्त्री स्वीकारते हैं, फिर भी बीते दो दशक में गला-काट प्रतिस्पर्धा में न जाने कितने बच्चे कुंठा का शिकार हो मौत को गले लगा चुके हैं. परीक्षा व उसके परिणामों ने एक भयावह सपने, अनिश्चितता की जननी व बच्चों के नैसर्गिक विकास में बाधा का रूप ले लिया है.

शिक्षा का उद्देश्य क्या है- परीक्षा में स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करना, विषयों की व्यावहारिक जानकारी देना या फिर एक अदद नौकरी पाने की कवायद? निचली कक्षाओं में नामांकन बढ़ाने के लिए सर्व शिक्षा अभियान समेत अनेक योजनाएं संचालित हैं. सरकार ‘ड्रॉप आउट’ की बढ़ती संख्या पर चिंता जताती रहती है, लेकिन कभी किसी ने यह जानने का प्रयास नहीं किया कि अपने पसंद के विषय या संस्था में प्रवेश न मिलने से कितनी प्रतिभाएं कुचल दी गयी हैं. विषय चुनने का हक बच्चों को नहीं, बल्कि उस परीक्षक को है, जो बच्चों की प्रतिभा का मूल्यांकन उनकी गलतियों की गणना के अनुसार कर रहा है. शिक्षा में इतने प्रयोग हुए हैं कि आम आदमी लगातार कुंद दिमाग होता गया है. हम गुणात्मक दृष्टि से पीछे होते गये और मात्रात्मक वृद्धि भी नहीं हुई. शिक्षा प्रणाली का उद्देश्य और पाठ्यक्रम के लक्ष्य एक दूसरे में उलझ गये हैं. क्या हम बच्चों की बौद्धिक समृद्धि व प्रौढ़ जीवन की चुनौतियों से निपटने की क्षमता के विकास के लिए कारगर कदम उठाते हुए नंबरों की अंधी दौड़ पर विराम लगाने की सुध लेंगे?

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

ट्रेंडिंग टॉपिक्स

Advertisement
Advertisement
Advertisement

Word Of The Day

Sample word
Sample pronunciation
Sample definition
ऐप पर पढें