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पटाखों से विषैला होता वायुमंडल

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केवल एक रात में पूरे देश में हवा इतनी जहरीली हो गयी कि 68 करोड़ लोगों की जिंदगी तीन साल कम हो गयी.

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अमावस की गहरी अंधियारी रात में इंसान को बेहतर आबो-हवा देने की सुप्रीम कोर्ट की उम्मीदों का दीप खुद ही इंसान ने बुझा दिया. दीपावली की रात आठ बजे के बाद जैसे-जैसे रात गहरी हो रही थी, केंद्र सरकार द्वारा संचालित सिस्टम- एयर क्वालिटी एंड वेदर फोरकास्टिंग एंड रिसर्च, अर्थात सफर के मोबाइल एप पर दिल्ली एनसीआर का एक्यूआइ, यानी एयर क्वालिटी इंडेक्स खराब से सबसे खराब के हालत में आ रहा था. दिल्ली के पड़ोस में गाजियाबाद में तो हालात गैस चैंबर जैसे थे. यहां संजय नगर इलाके में शाम सात बजे एक्यूआइ 68 था, फिर 10 बजे 160 हो गया, जो स्वास्थ्य के लिए चिंताजनक हो गया. रात 11.40 बजे यह 669 हो गया था. यहां पीएम 2.5 और 10 का स्तर 700 के पार था. नोएडा और गुरुग्राम की हालत भी लगभग इतनी ही खराब थी. आधी रात तक पूरी तरह पाबंद पटाखे, जैसे लड़ी वाले, आकाश में जाकर धमाके से फटने वाले बेरियम के कारण बहुरंगी चिंगारी छोड़नेवाले आदि, सभी धड़ल्ले से चलते रहे. फिर स्मॉग का घना अंधेरा छा गया. दुर्भाग्य है कि शिक्षित और धनवान लोगों के इलाकों में धमाके सर्वाधिक रहे.

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भले ही इस बार आतिशबाजी चला कर सुप्रीम कोर्ट को नीचा दिखानेवालों की संख्या पहले से बहुत कम रही, लेकिन उनके पाप आबो-हवा को जहरीला बनाने के लिए पर्याप्त थे और उनकी इस हरकत से वे लाखों लोग भी घुटते रहे, जो आतिशबाजी से तौबा कर चुके हैं. सोमवार की सुबह मोहल्लों की सड़कें और गलियां आतिशबाजी से बचे कचरे से पटी हुई थीं और यह एक बानगी था कि स्वच्छता अभियान में हमारी कितनी आस्था है. साफ हो गया कि बीते सालों की तुलना में इस बार दीपावली की रात का जहर कुछ कम नहीं हुआ, कानून के भय, सामाजिक अपील सब कुछ पर सरकार ने खूब खर्चा किया, लेकिन भारी-भरकम मेडिकल बिल देने को राजी समाज ने सुप्रीम कोर्ट के सख्त आदेश के बाद भी समय और आवाज की कोई भी सीमा नहीं मानी. दुर्भाग्य यह है कि जब भारत शून्य कार्बन उत्सर्जन जैसा वादा दुनिया के सामने कर रहा है, तब एक कुरीति के चलते देश की राजधानी सहित समूचे देश में वह सब कुछ हुआ, जिस पर पाबंदी है और उस पर रोक के लिए ना ही पुलिस और ना ही अन्य कोई निकाय मैदान में दिखा. यदि इतनी आतिशबाजी चली है, तो जाहिर है कि यह बाजार में बिकी भी होगी. दिल्ली से सटे गाजियाबाद के स्थानीय निकाय का कहना है कि केवल एक रात में पटाखों के कारण दो सौ टन अतिरिक्त कचरा निकला. अगली सुबह लोग धड़ल्ले से कूड़ा जलाते हुए भी दिखे. जाहिर है कि अभी सांसों के दमन का अंत नहीं है.

अकेले दिल्ली ही नहीं, देश के बड़े हिस्से में जब रात ग्यारह बजे बाद हल्की ओस शुरू हुई, तो स्मॉग ने दम घोंटना शुरू कर दिया. स्मॉग यानी फॉग यानी कोहरा और स्मोक यानी धुआं का मिश्रण. इसमें जहरीले कण शामिल होते हैं, जो कि भारी होने के कारण ऊपर उठ नहीं पाते व इंसान की पहुंच वाले वायुमंडल में ही रह जाते हैं. जब इंसान सांस लेता है, तो ये फेफड़े में पहुंच जाते हैं. किस तरह दमे और सांस की बीमारी के मरीज बेहाल रहे, कई हजार लोग ब्लड प्रेशर व हार्ट अटैक की चपेट में आये- इसके किस्से हर कस्बे, शहर में हैं. इस बार एनसीआर में आतिशबाजी की दुकानों की अनुमति नहीं थी. यहां तक कि ग्रेप पीरियड होने के कारण ग्रीन आतिशबाजी की भी मंजूरी नहीं थी, जहां थी वह भी केवल आठ बजे से दस बजे तक. परंतु ना प्रशासन ने अपनी प्रशासनिक जिम्मेदारी निभायी और ना ही पटाखेबाजों ने अपनी सामाजिक जिम्मेदारी. केवल एक रात में पूरे देश में हवा इतनी जहरीली हो गयी कि 68 करोड़ लोगों की जिंदगी तीन साल कम हो गयी.

हम सभी यह जान कर भी अनदेखा करते हैं कि पटाखे जलाने से निकले धुएं में सल्फर डाईऑक्साइड, नाइट्रोजन डाईऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड, शीशा, आर्सेनिक, बेंजीन, अमोनिया जैसे कई जहर सांसों के जरिये शरीर में घुलते हैं. इनका कुप्रभाव पशु-पक्षियों पर भी होता है. यही नहीं, इससे उपजा करोड़ों टन कचरे को निपटाना भी बड़ी समस्या है. यदि इसे जलाया जाए, तो भयानक वायु प्रदूषण होता है. यदि इसके कागज वाले हिस्से को रिसाइकल किया जाये, तो भी जहर घर और प्रकृति में आता है. और, यदि इसे डंपिंग में यूं ही पड़ा रहने दिया जाए, तो इसके विषैले कण जमीन में जज्ब होकर भूजल व जमीन को स्थायी व लाइलाज स्तर पर जहरीला कर देते हैं.

सवाल यह है कि क्या सुप्रीम कोर्ट को इस तरह खुदकुशी कर रहे समाज की सांस बचाने के लिए अब कुछ करना ही नहीं चाहिए. क्या यह मसला केवल कानून या कड़ाई से ही सुलझेगा? क्या समाज को जागरूक बनाने के प्रयास बेमानी हैं? यह तय है कि आतिशबाजी का उत्पादन, परिवहन, भंडारण और विपणन पर जब तक कड़ाई से नियंत्रण नहीं होगा, तब तक इसी तरह लोग मरते रहेंगे और अदालतें चीखती रहेंगी. एक बात जान लें, लोकतंत्र के सबसे भरोसेमंद स्तंभ ‘न्यायपालिका’ को यदि पर्व के नाम पर इस तरह बेबस किया गया, तो इसका दुष्परिणाम समाज को ही भोगना होगा.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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